— श्रीनिवास —
अमूमन हर राजा-बादशाह और शासक अपने कार्यकाल में कुछ ऐसा कर जाना चाहता था, जिस कारण इतिहास में उसे खास स्थान मिल जाए। वे इसके लिए खर्च की परवाह नहीं करते थे। उनको पूछना भी किससे था? सरकारी खजाना अपनी जागीर थी। दुनिया भर में शासकों की ऐसी महत्त्वाकांक्षा या सनक के कारण बनी शानदार दर्शनीय इमारतें आज भी मौजूद हैं। वैसे कुछ राजा जनोपयोगी निर्माण- बांध-सड़क आदि- पर भी खर्च करते थे।
मगर लोकतांत्रिक व्यवस्था में, जनता द्वारा चुनी हुई और जनहित के नाम पर बनी सरकारों के मुखिया भी कई बार गैरजरूरी, महज अपने शौक के लिए ऐसे निर्माण कराते रहे हैं। राजधानी दिल्ली में अकूत धनराशि खर्च कर निर्मित संसद का नया और भव्य भवन-परिसर भी हमारे ‘लोकप्रिय’ प्रधानमंत्री की ऐसी ही महत्त्वाकांक्षा या सनक का जीवंत उदहारण है, जिसका वे 28 मई को ‘वीर’ सावरकर के जन्मदिन के मौके पर उदघाटन करेंगे। प्रसंगवश, 27 मई (1964) को देश के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का निधन हुआ था; और ‘संयोग’ से 28 मई को दिल्ली में ही उनका अंतिम संस्कार हुआ था। तो क्या नये संसद भवन के उदघाटन की तारीख 28 मई को ही रखने के पीछे यह भी एक वजह हो सकती है? शायद वह अंतिम आहुति हो। लेकिन क्या देश और जनता के मानस से भी नेहरू इतनी आसानी से ओझल हो जाएंगे! यह तो वक्त बताएगा। इतिहास अपना निर्णय इतनी जल्दबाजी में नहीं सुनाता।
कोई संदेह नहीं कि तस्वीरों में देखकर ही पूरा परिसर और भवन भव्य और दर्शनीय लगता है। मगर तत्काल यह आवश्यक था, इसे लेकर थोड़ा संदेह है। वह भी 13,450 करोड़ रुपये की लागत से! लेकिन ‘राजा’ इतना कहां सोचता है? मूड हो गया तो नोटबंदी का दी। काला धन पर रोक लगाने के लिए दो हजार का नोट चला दिया। फिर मूड हो गया, तो उस नोट को बंद कर दिया। सरकार के समर्थक इसका एक मकसद काला धन पर चोट भी बता रहे हैं!
आखिर संसद की इमारत कितनी भी खूबसूरत हो, यदि वह लोकतांत्रिक परम्पराओं-मूल्यों के लिहाज से प्राणहीन हो, वह महज पक्ष-विपक्ष की नोकझोंक अखाड़ा बन कर रह जाए, तो वह किस काम की. निश्चय ही ऐसा सामूहिक प्रयास और योगदान से ही संभव है, मगर इसका प्राथमिक दायित्व तो सत्तापक्ष पर ही होता है, जो इस दिशा में बहुत प्रयत्नशील नहीं दिखता।
प्रधानमंत्री इस प्रोजेक्ट को ‘समय पर’ यानी ’24 के पहले पूरा करने के लिए इतने दृढ़प्रतिज्ञ और व्यग्र थे कि तमाम आपत्तियों को दरकिनार कर कोविड की महामारी के दौरान भी इसका काम बदस्तूर चलता रहा। बेशक सुप्रीम कोर्ट ने भी उन आपत्तियों को खारिज कर दिया था, मगर यह सवाल तो है ही कि क्या यह निर्माण इतना ही आवश्यक था?
वैसे देश भर में सड़कों, इमारतों के नाम बदलने, खासकर उनमें यदि मुसलिम या उर्दू का बू-बास हो, उनका ‘भारतीय’ नाम रखने के मौजूदा चलन को देखते हुए इस परिसर का नाम ‘सेंट्रल विष्टा’ (या ‘विस्टा’, पता नहीं) कुछ अटपटा जरूर लगता है। वैसे मेरे जैसे अज्ञानी को क्या पता, यह शुद्ध सांस्कृतिक एवं भारतीय नाम ही हो! इसका ठीक से अर्थ तो नहीं समझे, पर विश्वास है कि मोदी जी का फैसला है, तो स्पेशल ही होगा! वैसे भी आपत्ति और एलर्जी तो सिर्फ उर्दू फारसी टाइप नाम से है, अंग्रेजी से थोड़े न है! और अंग्रेजों ने ही तो हमें मुगलों से मुक्ति दिलायी थी. इसीलिए तो ये उनके खिलाफ आंदोलन में भी शामिल नहीं हुए, उनकी भाषा से क्यों परहेज करें!
लेकिन एक बात और समझ में नहीं आ रही। खबरों के अनुसार इस पूरे आयोजन से राष्ट्रपति महामहिम श्रीमती द्रौपदी मुर्मू को पूरी तरह अलग रखा गया है। सही है कि वास्तविक सत्ता तो प्रधानमंत्री में ही निहित होती है, मगर राष्ट्रपति को देश का प्रथम नागरिक और संसदीय मुखिया माना जाता है. जिस संसद का उदघाटन होने जा रहा है, उसके प्रत्येक संयुक्त सत्र का प्रारंभ राष्ट्रपति के संबोधन से होता है। और उस दिन हमारी राष्ट्रपति कहीं सीन में नहीं होंगी! संभव है, उस दिन उनकी व्यस्तता कहीं और तय कर दी गयी हो! लेकिन यदि वे राजधानी में होंगी, तो उनको कैसा लगेगा! ‘भक्ति’ में डूबी जनता को तो शायद कुछ एहसास नहीं होगा। हमें पता है कि हमारे प्रधानमंत्री को ऐसे आयोजनों के केंद्र में, कैमरे के फोकस में रहने की ललक बीमारी की हद तक है। फिर भी पहली बार एक आदिवासी महिला को राष्ट्रपति पद पर आसीन करने का श्रेय लेने वाले प्रधानमंत्री का कद इस बात से छोटा तो नहीं हो जाता कि उदघाटन राष्ट्रपति के हाथों ही होता।
इस बारे में कांग्रेस के द्वारा सवाल करने और राष्ट्रपति के हाथों उदघाटन की मांग करने पर केंद्रीय मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने कहा- कांग्रेस ने भी तो ऐसा ही किया था! 1975 में इंदिरा गांधी ने संसद के एनेक्सर का और 1987 में राजीव गांधी ने भी संसद के पुस्तकालय का उदघाटन किया था! अपने फैसले और कृत्य की हर आलोचना पर कांग्रेस की पिछली सरकारों के वैसे ही कृत्य का हवाला देना इनकी आदत रही है। क्या यह सरकार कांग्रेस को ही अपना आदर्श मानती है? लेकिन क्या एनेक्सर और पुस्तकालय की तुलना संसद के सर्वथा नये परिसर से की जा सकती है? इंदिरा गांधी ने तो देश पर इमरजेंसी भी लगा दी थी। तो इंदिरा गांधी का अनुसरण करते हुए आप भी…?
खबरों के अनुसार विपक्षी दलों ने इस आयोजन का बहिष्कार करने का निर्णय लिया है। आपने अपनी आपत्ति दर्ज कर दी, इतना पर्याप्त होना चाहिए। या कार्यक्रम में उपस्थित रहकर भी अपनी प्रतीकात्मक असहमति दर्ज करने का कोई तरीका अपनाना चाहिए। लेकिन श्री मोदी विपक्ष के साथ जिस तरह का सलूक करते रहे हैं; साथ ही इसे राष्ट्रीय आयोजन का स्वरूप देने के बजाय खुद पर केंद्रित और अपने दल की उपलब्धि के तौर पर पेश करने का प्रयास हो रहा है और होगा, उसे देखते हुए विपक्ष के लिए दुविधा की स्थिति तो अवश्य है। फिर भी इस आयोजन का दल विशेष का आयोजन बन जाना अशोभनीय ही होगा।