— ध्रुव शुक्ल —
जब नये संसद भवन के रूप में लोकतंत्र के गृहप्रवेश के मुहूर्त को सत्ता हस्तांतरण की तरह प्रचारित किया जा रहा है, मुझे जवाहरलाल नेहरू की याद आ रही है। उनके व्यक्तित्व से पूरे हिंदुस्तान की बहुरंगी झांकी दीखती थी। वे देश के अपनेपन के नायक थे, किसी परायेपन के नहीं। वे सब हिंदियों के हमवतन थे, उन्हें पूरे हिंद पर नाज़ था।
देश में दोनों देश साथ चल रहे थे–गांधी का देश और नेहरू का देश। मेरा जन्म इन दो देशों के बीच की देहरी पर हुआ। मुझे अपनी स्कूल की बालभारती में गांधी बन जाने का गीत भी सुनाया जाता और जब स्कूल में विविध भेषभूषा प्रतियोगिता होती तो मास्साब मुझे नेहरू भी बनाया करते। मेरा बचपन गांधी जी और नेहरू जी की यादों से जुड़ गया। मैं दोनों देशों की आब-ओ-हवा में पला-बढ़ा। ग़रीबी से अब तक उबर नहीं पाये देश में लोकतंत्र के घर को पहले इतना महॅंगा और सजावटी नहीं देखा। नेताओं के व्यक्तित्व में गांधी जी की सद्भावपूर्ण सहजता और नेहरू के आधुनिक बोध का तेज झलकता था।
अपनी किशोर वय में चाचा नेहरू की जीवनी पढ़कर अनुभव हुआ कि उनका नज़रिया पूरब और पश्चिम के वैचारिक तानों-बानों से मिलकर बना है। वे पश्चिम में अपने आपको एक अजनबी की तरह महसूस करते थे और उन्हें कुछ ऐसा भी लगता था कि वे अपने ही देश में निर्वासित हैं। जो उनके देहावसान के बाद अब सच साबित हो रहा है। नेहरू ने अपने आज़ाद मुल्क में किसी प्राचीन राजदण्ड को नहीं, स्वतंत्रता, समानता, न्याय और बंधुता के मूल्य पर आधारित आधुनिक संविधान को लोकतंत्र के घर में स्थापित किया था।
मेरे लोककवि पिता माधव शुक्ल मनोज अपनी कविताएं रचकर कभी गांधी के देश के और कभी नेहरू के देश के मधुर गीत गा लेते। वे दोनों देशों को अपने दिल में सॅंजोये हुए थे। इन दोनों देशों के बीच एक सेतु था जो अब तोड़ा जा रहा है। आज इक्कीसवीं सदी की देहरी पर खड़ा सोच रहा हूँ कि मैं किस देश में रहता हूँ, मेरा घर अब किस देश में है जहाँ मैं अपने को अपने घर में होने जैसा अनुभव कर पाऊँ। मेरे अपने दोनों देश तो पीछ छूट रहे हैं। मैं अब किसी तीसरे देश में अपने आपको ही अजनबी लग रहा हूँ।
अपने अवसान से पहले चाचा नेहरू ने देश के नाम वसीयत लिखते हुए यह कामना की थी कि मेरे तन की माटी गंगा के जल और किसानों के पसीनों से भीगी धरती के कण-कण में मिल जाये और मैं खेतों में अंकुराऊॅं, फसलों में मुस्कुराऊँ — यह भाव मेरे कवि-पिता की उस कविता का है जिसके छंद में वे नेहरू जी की वसीयत रच रहे थे। कविता अभी पूरी नहीं हुई थी और चाचा नेहरू चल बसे।
नेहरू जी की मृत्यु की ख़बर सुनकर पूरा सागर शहर और कवि पिता फफक-फफक कर रोने लगे। वे गर्मियों के दिन थे। जेठ मास की तपती दुपहरी में हर किसी की डबडबाई आंखों में आंसू थमते ही नहीं थे थे–लीडर जवाहरलाल से बिछुड़ने की पीड़ा से भरा उदास जल पूरे शहर की आंखों से चुपचाप बह रहा था।
जवाहरलाल नेहरू ऐसे खोजी की तरह लगते हैं जो अपने आपको और अपने देश को सनातन परंपरा और विश्व इतिहास में खोजते रहे। उनकी भारत की खोज में यही पद्धति अपनायी गयी है। वे कहते थे कि—हम तस्वीर के वास्तविक चेहरे को दीवार की तरफ़ मोड़कर इतिहास का रुख़ नहीं बदल सकते, हमें तो उसका सामना करना ही होगा। क्या आज हमारे नेता इतिहास का सामना कर पा रहे हैं?
चाचा नेहरू इसी तरह अपने आपको खोजने में उत्सुक थे तभी तो वे निर्भय होकर गुटनिरपेक्ष हो सके। सुना है कि स्कूल की किताबों से नेहरू का वह पाठ भी हटा दिया गया है जो संसार के शक्ति केन्द्रों के आगे समर्पण से इंकार करने का मार्ग दिखाता है। जो नेता अपने ही चेहरे से मुंह मोड़कर देश चलाने का दावा करते हैं वे हमेशा इतिहास में अविश्वसनीय बने रहते हैं और जनता का विश्वास भी खो देते हैं।
मेरे पिता अक्सर कहा करते कि नेहरू का दिल बहुत बड़ा है। जब 1962 में चीन ने भारत की सीमाओं पर हमला किया और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की भावना को ठेस पहुंचायी तो नेहरू के दिल को भारी आघात लगा। मैं सोचा करता कि जिसका दिल बड़ा होता होगा उसका देश भी उदार होता होगा। छोटे दिल में इतना बड़ा देश कैसे समा सकता है?