— अशोक वाजपेयी —
समाजवादी बुद्धिजीवी और राजनेता मधु लिमये के जन्म को सौ वर्ष हो गए। हाल ही में एक बड़ी सभा में उन्हें याद किया गया। आजकल राजनीति राजबाज़ारी, नीतिशून्य सत्ता की साधना, तिकड़म, झूठ-घृणा-हिंसा-हत्या-अत्याचार सार्वजनिक अभिव्यक्ति का लगभग वैध माध्यम बन गए हैं। पाखंड, अन्याय, गाली-गलौज, झगड़ालूपन आदि राजनीति की दैनिक भाषा बन गए हैं। ऐसे में मधु लिमये उन राजनेताओं में याद किए जाएंगे जो राज को नीति से विलग होने पर उसका तीख़ा-गहरा प्रश्नांकन कर, राज की बढ़ती नीतिहीनता पर प्रहार करते हुए राजनीति को एक सभ्य कर्म बनाते थे।
उनका सौम्य-सभ्य संवाद में भरोसा था : वे स्वयं एक अत्यंत सभ्य राजनेता थे। उस समय यह याद करना है जब बड़ी संख्या में नेता असभ्य, अभद्र, नीच आचरण करने से नहीं चूकते। आज लोकतंत्र में लगातार कटौती लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का दुरुपयोग कर, उन्हें विकृत कर, की जा रही है। संसद ज्वलंत मुद्दों पर चर्चा और बहस का मंच नहीं, उनसे बचने की जुगत-जमात बना दी गई है। तब मधु लिमये की याद आती है कि उनके लोकतंत्र का धर्नुधर होने, लोकतंत्र को अपने सुचिंतित विरोध द्वारा पुष्ट-सशक्त-सत्यापित करने, संसद को व्यापक भारतीय जन की समस्याओं को उजागर करने, सत्ता को अपनी जवाबदेही पर विवश करने में भूमिका निभाने के लिए।
वे संसद में बहुत तैयारी से जाते थे : वाग्युद्ध में कभी तथ्यों से विरत-विपथ नहीं होते थे। मधु जी उन भारतीयों में से हैं जिन्होंने भारतीय लोकतंत्र और संसद दोनों को जन-प्रासंगिक बनाने में, उनकी गरिमा बचाने-बढ़ाने में अविस्मरणीय योगदान किया है।
समता और मुक्ति ये दोनों ही शब्द और उनमें विन्यस्त अवधारणाएं वर्तमान भारतीय राजनीति के शब्दकोष से ग़ायब हो चुके हैं। भारतीय नागरिकता का वह बड़ा हिस्सा, जो आज ग़रीबी-विषमता-बेरोज़गारी का शिकार है, वर्तमान राजनीतिक कल्पना और प्रयत्न के भूगोल से अपदस्थ किया जा चुका है। समाजवादी होने के नाते समता और मुक्ति मधु जी के केंद्रीय सरोकार जीवन भर रहे।
भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम, गोवा मुक्ति संघर्ष और अनेक जन आंदोलनों में उनकी भागीदारी और इस कारण स्वतंत्रता के पहले और बाद में भी जेलों में बिताया लंबा जीवन आज अगर याद आते हैं तो इसलिए भी कि आज ऐसी शक्तियां सत्ता में हैं जिन्होंने कभी किसी मुक्ति-संघर्ष में हिस्सा नहीं लिया और जो समता की संभावना तक को ध्वस्त करने में सक्रिय हैं।
इन दिनों अमृत काल में बुद्धि एक अभद्र शब्द बन गया है। बुद्धिजीवियों का लगभग रोज़ अपमान किया जाता है, उनकी खिल्ली उड़ाई जाती है। अपनी बुद्धिहीनता को राजनेता माला आभूषण की तरह पहनकर अपना रौब जमाते हैं। राजनीति में बुद्धि नहीं तिकड़म और हिकमत से सब काम चल रहा है। मधु जी, इसके बरअक्स, एक बुद्धिशील राजनीतिक थे। उनके लिए राजनीति बौद्धिक और नैतिक कर्म भी थी। उनकी नागरिक और राजनीतिक सजगता का बौद्धिक सजगता अनिवार्य हिस्सा थी। उन्होंने स्वतंत्रता-संग्राम, सरदार पटेल आदि अनेक विषयों पर बड़ी संख्या में पुस्तकें लिखीं। वे फिर याद दिलाते हैं कि लोकतंत्र बिना बुद्धि के सशक्त नहीं हो सकता।
आज सारी संस्कृति को तमाशे में बदल दिया जाता है। बिना फ़कीरों का भेस बदले हम रोज़ तमाशा देखते हैं : जो जितना बड़ा तमाशा करता है वह उतना ही लोकप्रिय है। सब कुछ राजनीति है ऐसी ज़हनियत बन गई है। ऐसे में मधु जी जैसे लोग थे जिनके लिए संस्कृति का राजनीति में भी बहुत महत्त्व था और जो उसकी स्वतंत्रता और गरिमा का सम्मान करते थे।
उन्होंने आपातकाल में मध्यप्रदेश की किसी जेल में क़ैदी रहते हुए कुमार गंधर्व को एक पत्र में यह लिखा था कि उनके संगीत को सुनकर उनको लगता है कि वे ‘संसार के रहस्य को कुछ छू-सा रहे हैं।’ आज ऐसा कोई राजनेता खोजे से न मिलेगा जो शास्त्रीय संगीत की ऐसी महिमा पहचान सकता हो। मधु जी के लिए बुद्धि और विचार के साथ-साथ संस्कृति भी राजनीति को मानवीय, संवेदनशील और सच्चे अर्थों में सामाजिक बनाने के लिए अनिवार्य थी।
(‘वायर’ से साभार)