राहुल अगर अमरीका अभी नहीं जाते तो कब जाते?

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— श्रवण गर्ग —

राहुल गांधी का अमरीका जाना जरूरी हो गया था। डॉ मनमोहन सिंह की 2009 में हुई राजकीय यात्रा के चौदह साल बाद नरेंद्र मोदी की होनेवाली पहली राजकीय यात्रा और अमरीकी संसद में उनके बहु-प्रचारित उदबोधन के पहले राहुल का वहाँ जाना महत्त्वपूर्ण हो गया था। ऐसा इसलिए कि अमरीका इस समय दुनिया की तमाम सवर्ण सत्ताओं का सम्राट राष्ट्र बना हुआ है। अमरीका के जरिए ही तय होता है कि मुसलिमों, अश्वेतों और जातिगत रूप से गैरजरूरी घोषित कर दिये गए लोगों के लिए समाज के किस कोने में कितनी जगह निर्धारित की जानी चाहिए !

प्रजातंत्र के सारे मानकों का उत्पादन और वितरण अमरीका और पश्चिमी यूरोप के मुल्कों के जरिए ही होता है। अमरीका में भारतीय मूल के नागरिकों की आबादी कोई पैंतालीस लाख है। इनमें 55 प्रतिशत के करीब हिंदू हैं जो कि वहाँ का सबसे प्रभावशाली समूह है। इस हिंदू आबादी में भी लगातार वृद्धि हो रही है।

भारत में इस समय जिस तरह की राजनीतिक सक्रियता है, पूछा जा सकता है कि राहुल गांधी की इतने लंबे समय के लिए देश से अनुपस्थिति क्या विपक्षी एकता के लिहाज से नुकसानदेह नहीं मानी जाएगी? उनकी इसी साल मार्च में हुई लंदन यात्रा के बाद से उठा तूफान अभी थमा भी नहीं था कि भाजपा की ‘टोल आर्मी’ की सुविधा के लिए नए विवाद खड़े करने वे अमरीका पहुँच गए।

राहुल गांधी पर आरोप लगाए जा रहे हैं कि अपनी छह दिनी अमरीका यात्रा के दौरान केलिफोर्निया से वाशिंगटन और न्यूयॉर्क जहां भी वे गए और भाषण दिए सिर्फ प्रधानमंत्री और उनकी सरकार की ही मुस्कुराते हुए आलोचना की। बहुत संभव है आनेवाले किसी वक्त में राहुल ऑस्ट्रेलिया और जर्मनी आदि देशों की यात्राओं के कार्यक्रम बना लें और वहाँ भी लंदन और अमरीका को ही दोहराएँ।

पिछले एक दशक के दौरान राहुल और उनके परिवार को साँस ही नहीं लेने दी गई कि वे नजरें घुमाकर देख सकें कि सवर्ण राष्ट्रवाद की स्थापना को लेकर किस तरह का कृत्रिम संसार भाजपा-समर्थक धार्मिक संगठनों ने अमरीका और अन्य देशों में निर्मित कर दिया है। इसका पहला संकेत तब मिला था जब अमरीका में राष्ट्रपति पद के चुनावों की पूर्व संध्या पर सितंबर 2019 में ‘हाउडी मोदी’ रैली का ह्यूस्टन में भव्य आयोजन हुआ था।

ह्यूस्टन की बहुचर्चित रैली में अमरीका भर से पहुँचे कोई पचास हजार भारतीय मूल के नागरिकों से ‘अबकी बार भी ट्रम्प सरकार’ के नारे लगवाए गए थे। ऐसी ही एक रैली का आयोजन पिछले दिनों ऑस्ट्रेलिया के सिडनी शहर में हुआ था जिसमें कोई बीस हजार लोग मोदी के स्वागत के लिए उपस्थित थे।

विदेशों में बस चुके भारतीय मूल के सवर्णों के बीच (गांधी परिवार की दो-दो शहादतों के बावजूद) सोनिया गांधी की छवि एक ‘विदेशी महिला’ की और राहुल की एक पप्पू के तौर पर सफलतापूर्वक स्थापित कर दी गई तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि मोदी का ‘विश्वस्वरूप’ गढ़ने के लिए किस स्तर के प्रयास चल रहे हैं। इस काम में विदेशों में स्थित भारतीय मिशनों की भूमिका प्रदेशों की राजधानियों में स्थित राजभवनों के मुकाबले कितनी ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो गयी है !

कथित ‘राष्ट्रभक्तों’ के लिए जो भारतीय वर्षों पहले भारत को त्यागकर विदेशी नागरिक बन चुके हैं आज भी सच्चे भारतीय बने हुए हैं और जो विदेशी महिला 1968 में ही अपना सब कुछ त्यागकर भारत की बहू बन गई थी वह पचपन सालों के बाद भी विदेशी ही बनी हुई है ! इन राष्ट्रवादियों को इस बात पर किंचित् भी शर्म नहीं महसूस होती कि कोई ढाई-तीन लाख लोग हर साल अपनी भारत की नागरिकता त्यागकर विदेशी नागरिकता अपना रहे हैं।

कल्पना करके देखिए कि इतने बड़े देश के इतने व्यापक विपक्ष में, जिसमें कि छोटी-बड़ी कोई पचास राजनीतिक पार्टियाँ होंगी, राहुल गांधी के अलावा और कौन सा नेता हो सकता है जो विदेशी जमीन पर पहुँचकर ‘भारत के विकास में मोदी के अप्रतिम योगदान और विनाश में विपक्ष की भूमिका’ के संगठित कुप्रचार का इतने आत्मविश्वास के साथ पर्दाफाश कर सकता है? स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी में ‘पॉवर’ और ‘फोर्स’ के बीच फर्क की दार्शनिक व्याख्या कर सकता है? क्या राहुल गांधी ने पल भर के लिए भी नहीं सोचा होगा कि मुसलिमों और दलितों के खिलाफ भारत में होनेवाले अन्याय के बारे में अमरीका में बोलने के कारण भारत के हिंदू मतदाता उनसे और कांग्रेस से कितने नाराज हो सकते हैं?

देश और दुनिया के नीति-निर्धारकों के बीच अपनी स्वीकार्यता कायम करने के लिए राहुल के लिए यह निहायत जरूरी हो गया है कि प्रधानमंत्री के कृत्रिम आभामंडल को सवालों के उन कठघरों में खड़ा करें जिन्हें ‘इण्डियन डायस्पोरा’ के नाम से पुकारा जाता है। मोदी के तिलिस्म को कैम्ब्रिज और स्टेनफोर्ड में तोड़ा जाना भी उतना ही जरूरी है जितना कि कर्नाटक में !

राहुल गांधी ने देर से ही सही शुरुआत कर दी है। चुनौती बड़ी है और मुकाबला भी आसान नहीं है। सारे संसाधनों और मीडिया का एकछत्र स्वामी इस समय सत्तारूढ़ दल ही है। प्रधानमंत्री का कृत्रिम ‘आभामंडल’ शक्तिशाली ‘इवेंट मैनेजमेंट’ समूहों के संगठित प्रयासों का परिणाम है।

राहुल गांधी अकेले हैं। राहुल के दौरे जैसे-जैसे बढ़ते जाएँगे, उन पर हमले भी उतने ही तेज़ होते जाएँगे। भाजपा के इस भ्रम को ध्वस्त होने में समय लग सकता है कि मोदी सिर्फ भारत और एक-दो देशों के ही नहीं बल्कि सारी दुनिया के ‘बॉस’ हैं। मंदिर-परिसरों की मूर्तियों में दरारों का पड़ना प्रारंभ हो गया है। धर्म-आधारित राजनीति पर भी उसका असर जल्दी ही नजर आने लगेगा।

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