देशकाल को देखते हुए संपूर्ण समता के कुछ संभव रूप यहाँ जतलाने की अब मैं कोशिश करूँगा। अकस्मात् जो कोई बात मन में आएगी उसे मैं लिख दूँगा। कोई सुसंगठित श्रृंखला बनाने की कोशिश न होगी। यह सही है कि दो-तीन दशकों की सोच और कर्म संपूर्ण और संभव समता के अन्योन्याश्रय संबंध पर मैंने बिताये हैं। एक-एक बात इसी संबंध से उपजी है। लेकिन इस समय मैं उनमें कोई श्रृंखला नहीं बाँध रहा हूँ। 1. सभी प्राथमिक शिक्षा समान स्तर और ढंग की हो तथा स्कूल का खर्चा और अध्यापकों की तनख्वाह एक जैसी हो। प्राथमिक शिक्षा के सभी विशेष स्कूल बंद किए जाएँ। 2. अलाभकर जोतों से लगान अथवा मालगुजारी खत्म हो। संभव है कि इसका नतीजा हो सभी जमीन कर अथवा लगान का खात्मा और खेतिहर आयकर की शुरुआत। 3. पाँच या सात वर्ष की ऐसी योजना बनाना जिससे सभी खेतों को सिंचाई का पानी मिले। चाहे यह पानी मुफ्त मिले अथवा किसी ऐसी दर पर या कर्ज पर कि जिससे हर किसान अपने खेत के लिए पानी ले सके। 4. अँग्रेजी भाषा का माध्यम सार्वजनिक जीवन के हर अंग से हटे। 5. हजार रुपये महीने से ज्यादा का खर्चा कोई व्यक्ति न कर सके। 6. अगले बीस वर्ष के लिए रेलगाड़ियों में मुसाफिरों के लिए सिर्फ एक दर्जा हो। 7. अगले बीस वर्षों के लिए मोटर कारखानों की कुछ क्षमता बस, मशीन, हल अथवा टैक्सी बनाने के लिए इस्तेमाल हो और कोई निजी इस्तेमाल की गाड़ी न बने। 8. एक ही फसल के अनाज के दाम का उतार-चढ़ाव 20 प्रतिशत के अन्दर हो और जरूरी इस्तेमाल की उद्योगी चीजों के बिक्री-दाम लागत-खर्च के डेढ़ गुना से ज्यादा न हों। 9. पिछड़े समूहों यानी आदिवासी, हरिजन, औरतें, हिन्दू तथा अहिन्दुओं की पिछड़ी जातियों को 60 प्रतिशत का विशेष अवसर मिले। जाहिर है कि यह विशेष अवसर ऐसे धन्धों पर नहीं लागू होता जिनमें खास हुनर की जरूरत है, जैसे चीरफाड़, किन्तु थानेदारी अथवा विधायकी ऐसे धन्धों में नहीं गिने जा सकते। 10. दो मकानों से ज्यादा मकानी मिल्कियत का राष्ट्रीयकरण। 11. जमीन का असरदार बँटवारा और उसके दामों पर नियंत्रण।
इस 11 सूत्री कार्यक्रम के हर मुद्दे में बारूद भरा हुआ है। किसी में कुछ कम हो किसी में ज्यादा, लेकिन है सबमें। इसमें से किसी एक मुद्दे को अपना लेने से बड़े-बड़े गुल खिलेंगे।
हजार रुपये की माहवारी सीमा के मुद्दे को थोड़ा ध्यान से देखना जरूरी है। एक मानी में इसका अर्थ होगा उद्योग और व्यापार का संपूर्ण राष्ट्रीयकरण। लेकिन उद्योगी और व्यापारी राष्ट्रीयकरण से बढ़कर भी इस मुद्दे की पहुँच है। सरकारी नौकरी, अफसरी, अथवा मन्त्रित्व में भी ऐसी माहवारी सीमा बँध जाने से व्यापारी क्रांति के साथ-साथ प्रशासकीय क्रांति भी हो जाती है। ऐसी सीमा में निजी खर्च के सभी प्रकार के भत्ते शामिल करने चाहिए। सिर्फ वही खर्चा जो उचित ढंग से सार्वजनिक कामों अथवा हैसियतों के लिए किया जाए, इसमें शामिल न हो। साम्यवाद के सार्वजनिक व्यापक राष्ट्रीयकरण का भी इतना असर नहीं हो सकता जितना इस अकेले मुद्दे का, क्योंकि इसमें शासकीय और व्यापारी दोनों प्रकार के नियंत्रण निहित हैं। असल बात है उद्देश्य। साधन है गौण। फिर भी साधनों का कुछ पता रहना चाहिए। चाहे राष्ट्रीयकरण, चाहे खर्चे की सीमा, चाहे मुनाफे पर वक्ती रोक, चाहे कर के उपयुक्त गठन के द्वारा इस माहवारी सीमा को हासिल किया जा सकता है। यह सही है कि सीमा का उल्लंघन करनेवालों के साथ कानूनी सख्ती बरतनी पड़ेगी।
समाजवादी सोच में न्यूनतम और अधिकतम सीमाओं की बात अर्से तक रही है। 100 से कम न हजार से ज्यादा, समाजवाद का यही तकाजा- यह एक नारा है। सोच जब ज्यादा गहरी बनती है तब न्यूनतम और अधिकतम की प्राप्ति की विधियों का अंतर भी मालूम होने लगता है। अधिकतम को लादना सहज है, न्यूनतम को पहुँचाना मुश्किल है। एक समाजवादी सरकार के आते-जाते अधिकतम को हासिल किया जाना चाहिए। न्यूनतम को हासिल करने में पाँच-सात वर्ष लग सकते हैं। ठीक दामों के संदर्भ में ही मैंने यह बात कही है। मुद्रास्फीति करके 100 रुपये महीने हासिल कर लेना आसान है।
हजार रुपये महीने की सीमा को हासिल करने के हौसला वाली सरकार ही प्रशासन के कलमघीसू नौकरों की तादाद नियंत्रित कर सकती है। मुझे इसमें कोई शक नहीं लगता कि वर्तमान एक-सवा करोड़ सरकारी नौकरों में से आधे के करीब या एक-तिहाई निश्चित रूप से गैरजरूरी हैं। लेकिन इनकी विशुद्ध छँटनी करने की ताकत किसी विचारधारा की नहीं। अगर समाजवादी विचारधारा कभी सचमुच सशक्त हो तो वह इतना कर सकती है कि कलमघीसू धन्धों में से उनकी छँटनी करके उन्हें सीधा उत्पादन के धन्धों में लगाया जाए। अकेले इन दो कार्यक्रमों को पूरा करने पर राष्ट्र को 15 अरब रुपये के आसपास पूँजी मिल सकती है। मेरा हिसाब अंदाज का है। मैंने सरकार को भी तीन वर्षों से कहा है कि वह पुख्ता हिसाब लगाये। लेकिन कभी कोई प्रयत्न नहीं होता। 15 अरब रुपये की सालाना पूँजी कोई मामूली बात नहीं। उसी से खेती का बाग शाब्दिक अर्थों में हरा हो सकता है। समूची खेती को पानी मिल सकता है।
समता और संपन्नता किस तरह जुड़ी हुई हैं। कुछ लोग कहेंगे कि लाभ अथवा नौकरी अथवा खर्चे पर माहवारी सीमा बाँध देने से जड़ता आ जाएगी। आर्थिक जीवन में चमक या तरक्की न रहेंगे। इस बहस का विशेष अर्थ नहीं। एक अटूट उत्तर यही है कि चाहे चमक आए न आए, पूँजी निर्माण और आर्थिक तरक्की का कोई अन्य रास्ता नहीं। फिर, यह बात निर्विवाद है जब सबकी सीमाएँ बँधेंगी, चाहे प्रधानमंत्री या करोड़पति, तब सबके लिए अल्पसंतोषी होना सहज हो सकेगा। चटकीले जीवन की यह लालसा न रहेगी जो आज है। दूसरी तरह की सार्वजनिक स्फूर्तियाँ और परमार्थ रंग लाएँगे।
यह सही है कि महीनेवाली सीमा का कार्यक्रम किसी मिलीजुली सरकार के लिए संभव नहीं। यह कार्यक्रम तभी संभव दीखता है जब देश एक बड़ी क्रांति के दौर से गुजर चुका हो। फिर ऐसी सरकार बने कि जो इस कार्यक्रम को चलाने के लिए गंभीर रूप से प्रतिबद्ध हो, कार्यक्रम पूरा न होने पर जिसकी नैतिक धज्जियाँ उड़ने का खतरा हो। साधारण तौर पर ऐसी सरकार कम से कम यूरोपीय संसार में चुनाव द्वारा नहीं बन सकती। किन्तु कोई तार्किक बाधा नहीं दीखती। मजबूत संकल्प हो जनतंत्र का और अनुकूल परिस्थितियाँ हों तो चुनाव के द्वारा भी ऐसी सरकार का निर्माण संभव है। लेकिन बहुपक्षीय सरकार से ऐसे कार्यक्रम की आशा नहीं करनी चाहिए।
अगर मासिक सीमा पटाकाश है तो प्राथमिक शिक्षा का साधारणीकरण घटाकाश है। बैंकों के राष्ट्रीयकरण से भी ज्यादा दुष्कर किंतु ज्यादा असरदार मुद्दा है। 5 से 10 वर्ष अथवा 11 वर्ष के बच्चों को राष्ट्र, समूह, एकात्मता, समता और मनुष्यता का मजबूत अर्थ मिल सकता है। रोगी, जाति और श्रेणी विभक्त दरिद्र समाज को मर्म चोट पड़ेगी। लेकिन अभिजात वर्ग शायद आखिरी दम तक कोशिश करे कि इस तरह की चोट उसे न उठानी पड़े। पहले तर्क दिया जाएगा कि अगर सभी बच्चे गाली देना और थूकना सीख जाएँगे तो देश को कौन चलाएगा। इस तर्क का उत्तर आसान है। जब बड़े लोगों के बच्चे भी थूकने और गाली देने लगेंगे तब अतिशीघ्र सारी प्राथमिक शिक्षा का सुधार होगा। जिस कोढ़ी ढंग से आज देश चल रहा है उससे अच्छा हर वैसी हालत में चलेगा जब कोई कार्यक्रम पूरे 48 करोड़ को हिला देता हो। फिर तर्क दिया जाएगा कि इस कार्यक्रम से अच्छा और बुरा दिमाग सब एक ढंग का किया जा रहा है। यह सही नहीं है, क्योंकि पढ़ाई के खर्चे, किताबों और अध्यापकों की तनख्वाहों को एक सा किया जा रहा है न कि दिमागों की क्षमता को। अन्ततोगत्वा ऊँचे वर्ग की औरतें नयी सरकार के समाजवादी तथा दूसरे विधायकों और उनकी औरतों को फुसला सकेंगी कि उनके बच्चों और इसलिए सारे देश को पीछे धकेला जा रहा है। ऐसे समय में विधायकों का अधिकांश हिस्सा गंभीरता और धर्य के नाम पर यथास्थिति की तरफ बह जाएगा, कहेगा सोच-सोचकर कदम उठाओ। इसका इलाज सिर्फ एक है। विभिन्न दलों के कर्मठ सदस्य और कमेटियाँ इतनी समक्ष हों कि अपने विधायकों को पोख्ता रखें और जरूरत पड़ने पर सशक्त धमकी दें।
अभी तक संसार के किसी भी देश में, न रूस में न चीन में, इस मुद्दे को कार्यान्वित किया जा सका है। इन देशों में बड़े लोगों के मुहल्ले अलग हैं। इस कारण से उनके बच्चों की पढ़ाई भी अलग जैसी हो जाती है। भारत में यह संभव नहीं, क्योंकि ऊँचे से ऊँचे मुहल्ले में जितने बड़े लोग हैं उनसे तीन-चार गुना ज्यादा छोटे लोग हैं, उन्हीं के नाई, धोबी, कहार इत्यादि। जब देश कंगाल हो जाता है, तब महल के अंदर ही गरीबों से छुटकारा मिलता है। फिर भी, इस प्रसंग में किसी भी तरह की चालाकी पर कड़ी निगाह रखनी होगी।
(जारी)
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