रंजीता सिंह ‘फलक’ की पॉंच कविताएँ

0
पेंटिंग- कंचन प्रकाश
पेंटिंग- कंचन प्रकाश

1. बिसराई गईं बहनें और भुलाई गईं बेटियां

बिसराई गईं बहनें
और
भुलाई गईं बेटियाँ
नहीं बिसार पातीं
मायके की देहरी।

हालांकि जानती हैं
इस गोधन में नहीं गाए जाएँगे
उनके नाम से भैया के गीत

फिर भी
अपने आँगन में
कूटती हैं गोधन,
गाती हैं गीत
अशीषती हैं बाप-भाई,
जिला-जवार को
और देती हैं
लंबी उम्र की दुआएँ

बिसराई गईं बहनें
और भुलाई गईं बेटियाँ
हर साल लगन के मौसम में
जोहती हैं
न्योते का संदेश
जो वर्षों से नहीं आए उनके दरवाज़े

फिर भी
मायके की किसी पुरानी सखी से
चुपचाप बतिया कर
जान लेती हैं
किस भाई-भतीजे का
होना है
तिलक-छेंका
किस बहन-भतीजी की
होनी है सगाई,
गाँव-मोहल्ले की
कौन-सी नई बहू सबसे सुंदर है
और कौन सी बिटिया
किस गाँव ब्याही गई है?

बिसराई गईं बहनें
और भुलाई गईं बेटियाँ
कभी-कभी
भरे बाजार में ठिठकती हैं,
देखती हैं बार-बार
मुड़कर
मुस्कुराना चाहती हैं
पर
एक उदास खामोशी लिए
चुपचाप
घर की ओर चल देती हैं,
जब दूर का कोई भाई-भतीजा
मिलकर भी फेर लेता है
आंखें,

बिसराई गईं बहनें
और भुलाई गईं बेटियाँ
अपने बच्चों को
खूब सुनाना चाहती हैं
नाना-नानी, मामा-मौसी के किस्से
पर
फिर सॅंभल कर बदल देती हैं
बात
और सुनाने लगती हैं
परियों और दैत्यों की
कहानियां।

2. “सुनो प्रिये”

एक

सुनो प्रिये
जब मैं काकुलें खोले
आधे वृत्त सी
झूल जाऊँ,
तुम्हारे आलिंगन में,
तो उसी दम
तुम
मेरी कमर पर
बॉंध देना
सदी के
सबसे खूबसूरत
गीतों की कमरघनी

और देखना
बहुत धीरे से
सरक आएगा
चाँद,
मेरी हथेली पर
और फिर
हजारों ख्वाहिशें
फूलों सी खिल उठेंगी,

सुनो प्रिय
किसी दूधिया चाँदनी रात में
मेरे चेहरे से
जुल्फों को
हटाते हुए,
तुम फिसल आना
पीत पराग सी
नरमी लिये
और मेरे गले के तिल पे
धर देना
कोई
दहकता बोसा

और फिर देखना
किसी चन्दन वन का
धू-धू कर जलना
—-

दो

सुनो प्रिये
मेरे अंदर उतरती है
कोई भरपूर नदी
जो दूर ऊँचे ख्वाहिशों के टीलों से
आ गिरती है किसी जलप्रपात सी

सुनो प्रिये
प्रेम में पड़ी औरत
हो जाना चाहती है
नदी से झील
और टिकी रहना चाहती है
प्रेमी के सीने पर
सदियों
सदियों
मुँह छिपाए
सुनना चाहती है
अपना ही देहगीत
—-

तीन

सुनो प्रिये
अपनी ही तयशुदा
बंदिशों के बावजूद
संभावनाओं की आखिरी हद तक
एक-दूसरे को
इतनी शिद्दत से चाहना
अपनी ही दूरियों में
एक दूसरे को पल पल महसूस करना
और फिर तवील रात के ॲंधेरों को
मुस्करा कर सहते हुए
रख लेना
अपनी आँखों पर
एक वर्जित प्यार

सुनो प्रिये
यही वो प्रेम है
जिसमें पड़ी औरत
हो जाती है
खुशबू सी लापता।

—-

चार

सुनो प्रिये
जब दुनिया के सारे मौसम
अपनी गति से बदलते हैं
प्रेम तब भी
बना रहता है
जस का तस

सुनो प्रिये
प्रेम कभी नहीं बदलता
टिका रहता है
अपनी जगह
एक ही लय
एक ही गति
एक ही ध्रुव पर

सुनो प्रिये
प्रेम का
न बदलना ही
उसका
सबसे बड़ा
सौंदर्य है

सुनो प्रिये
आकर ठहरो
कभी इस एकरंग मौसम में
और देखो
इसी एक रंग में खिल उठे हैं
दुनिया के सारे
रंग।

पेंटिंग - अतुल पांडेय
पेंटिंग – अतुल पांडेय

3. स्त्री अस्मिता का आका होना

वो नहीं भूल पाते अपना आका होना
हालांकि वो बेहद शालीन
बुद्धिजीवी लोग हैं
स्त्री अस्मिता के घोर पक्षधर लोग हैं

ये वही लोग हैं
जो औरतों को नई दिशा
और दशा देना चाहते हैं

ये वही लोग हैं
जो सदियों की परम्परा को
अब बदल देना चाहते हैं

ये वही लोग हैं
जो द्रवित होते रहे हैं सालों से हमारी
दबी कुचली हैसियत पर

ये वही लोग हैं
जिन्होंने खपा दिए जिन्दगी के
बरसों-बरस हमारे विमर्श पर

ये वही लोग हैं
जो एकदम से हमारे शुभेच्छु
और सगे हो जाना चाहते हैं

ये वही लोग हैं
जो हमारे व्यक्तित्व को
गीली मिट्टी सा गूंध देना चाहते हैं

ये वही लोग हैं
जिन्होंने बनाए हैं अलग अलग साँचे
कि हमें नये नये रूप में सिरज सकें

ये वही लोग हैं
जो हमें बताएँगे कि हम
नाप सकते हैं आसमान

ये वही लोग हैं
जो हमें पतंग की शक्ल में
देंगे खुला आसमान

ये वही लोग हैं
जो हमें बचाएंगे
किसी भी घात प्रतिघात से

ये वही लोग हैं जो
हमें सिखाएंगे
रेस में जीतने के हुनर

पर तभी जब हम में से कोई भी स्त्री
गूंधे जाने के बावजूद नहीं ढल पाती
इनके साँचे में
या फिर
आसमान में अचानक
बदल देती है
अपनी उड़ान की दिशा

ये वही लोग हैं
जो सबसे ज्यादा
तिलमिलाते हैं
बौखलाते हैं
और त्यौरियाँ चढ़ाते हैं

ये वही लोग हैं
जो जारी करते हैं
सदी का नया फतवा
या फरमान

ये वही लोग हैं
जो बरसों से हमारी आज़ादी के नाम पर
कर रहे हैं अपनी अलग अलग सियासत

ये वही लोग हैं जो
कभी नहीं भूलते
अपना आका होना।

4. उस रात

उस रात
वह मुझतक आया था
एकदम टूटा-बिखरा सा
जैसे चांद पर किसी ने धोखे से
चला दी हो गुलेल

वह मुझे मिला
जैसे कोई टूटता हुआ तारा

मैं भौचक्क थी
इससे पहले
कभी कोई टूटता सितारा
यूं मेरी हथेलियों में
नहीं सिमट पाया था

तकदीर और वक़्त पर
हैरान होती मैं
उस एक लम्हे में
सदियां जी आई थी

मैंने धीरे से मुट्ठी भींची
और सुर्खरू हुई
धीरे से दिल के खाली सफे पर
धर दीं हथेलियां

उस रात
हजारों सितारे
हर्फों की शक्ल में उभरे
और नज़्म की शक्ल में मिले

किसी नीम बेहोशी में
मैंने देखी
दो बड़ी-बड़ी
स्वर्ण-कमल सी आंखें
पनीली, सुनहरी और आबसार सी आंखें
टप-टप गिरीं कुछ बूंदें
जिन्हें मैंने पहली बार चखा

और मुझे लगा कि
मुझे मिल गया
वर्षों का योगी-वियोगी
और मेरी उद्भ्रांत कामनाओं का
जोगी
उन आंसुओं को चखते हुए मुझे लगा
मैंने चख लिया
सुजाता का खीर
और वर्षों की क्षुधा शांत हुई
मैंने पा लिया बुद्धत्व।

5. तुम्हारी आज़ादी

तुम्हारे बारे में सोचते हुए
मन को खूब उदार करते हुए
प्रेम को पूरी आजादी देते हुए
हर धड़कती आशंका को
एक झटके में छाती से विलग करते हुए

सामने-सामने दिख रहे
छल से आंखें मींचते हुए
सारी पीड़ा, संत्रास और बेचारगी के मध्य
एक कृत्रिम मुस्कान से आबद्ध मैं
बनी रही
सच्ची प्रेयसी और समझदार स्त्री

मेरे और तुम्हारे प्रेम में
प्रेम का निर्वहन मेरे हिस्से था
और आजादी
तुम्हारे हिस्से।

Leave a Comment