— अनुपम —
फिल्म अदिपुरुष के नाम पर जो कुछ भी हुआ है, उसको समझने के लिए हमें थोड़ा पीछे जाना पड़ेगा।
हिन्दू देवी-देवताओं को पारंपरिक तौर पर सौम्य, सहज और शालीन दिखाया जाता रहा है। धार्मिक मान्यताओं में अहंकार, नफरत और क्रूरता को हमेशा से ही नकारात्मक गुणों में गिना गया। यह बात उन लोगों के लिए बड़ी चुनौती थी जो हिन्दू धर्म के नाम पर उद्दंडता, उग्रता और उन्माद फैलाना चाहते थे। ये वो लोग थे जिनको हमारे धर्म का इस्तेमाल अपनी राजनीति के लिए करना था लेकिन कर नहीं पा रहे थे।
इसी कारण लगभग तीन दशक पहले एक खेल शुरू हुआ। सबसे पहले विश्व हिंदू परिषद ने भगवान राम की उस छवि को चलाना शुरू किया जिसमें वो समुद्र से रास्ता मॉंगते हुए आक्रोशित होकर धनुष बाण खींचते हैं। कहा गया है कि पूरे रामायण में इस एक अवसर के अलावा श्रीराम कहीं और गुस्से में या आक्रोशित नहीं दीखते। लेकिन पूरी रामायण में इनको यही एक तस्वीर भगवान राम के साथ जोड़ना उचित लगा। खैर वो तो फिर भी ठीक था, क्योंकि उसमें झूठ नहीं था। बस एक ऐसा एजेंडा था कि आम हिन्दू के मष्तिष्क में श्रीराम की कैसी छवि बनायी जाए।
उसी एजेंडे के तहत धीरे-धीरे जय सियाराम को जय श्रीराम बना दिया गया। हमारी मिथिलांचल की परंपरा में तो विशेष तौर पर माँ सीता के बिना कभी राम का नाम नहीं लिया जाता था। लेकिन आम आदमी यह सब बड़े खेल नहीं समझता है कि कैसे उसके विचार और मन को प्रभावित किया जा रहा है। हालात ऐसे आ गए कि कुछ लोग ‘जय श्रीराम’ एक युद्ध उदघोष की तरह प्रयोग करने लगे, उपद्रव मचाकर नारे लगाने लगे, जो ‘जय सियाराम’ में नहीं हो सकता था। हालात ऐसे बना दिए कि गंदे लोग भी राम का नाम ढाल की तरह इस्तेमाल करने लगे हैं।
हिन्दू धर्म को उग्र बनाने का यह एजेंडा आगे बढ़ता गया और कुछ वर्षों पहले रामभक्त हनुमान के साथ भी ऐसा ही कुछ किया गया। हमारी परंपरा में हनुमान जी की मुख्य छवि एक ऐसे सेवक वाली थी जो सीना चीर कर सीता राम के दर्शन करवा देते हैं। दूसरी छवि जो हमारे मन-मष्तिष्क में थी वो लक्ष्मण के लिए हथेली पर पर्वत समेत संजीवनी बूटी लेकर हवा में उड़ रहे बजरंग बली की। दिक्कत थी कि इन दोनों सुंदर छवियों से राजनीति करने वालों का काम नहीं चलता। इसलिए फिर हनुमान जी की भी एक नयी छवि बनायी गयी। वो था एक डिज़ाइन जिसको angry hanuman का नाम दिया गया। हो सकता है आपकी कार के पीछे भी वो स्टिकर चिपका हो, नहीं तो आपने सड़क पर देखा जरूर होगा। इसमें भी मकसद वही कि रामभक्त हनुमान जी को एक गुस्सैल और उग्र छवि दी जा सके। ताकि चौक चौराहे सड़क और समाज में इनके नाम पर हिंसा को स्वीकृति मिल सके। लोगों को अटपटा नहीं लगे कि भगवान का नाम लेकर उग्रता और उन्माद कैसे चल रहा।
क्षमा दया तप त्याग धैर्य सौम्यता जैसे गुणों को हिन्दू धर्म की परिभाषा से दूर करने की साज़िश रची गयी। जाने अनजाने हम सब उसका शिकार हुए और अपनी परम्पराओं को नष्ट करते गए। इस योजना का सीधा फायदा किसकी राजनीति को मिला यह हम अच्छे से जानते हैं। आज भी यह एजेंडा बदस्तूर जारी है।
आदिपुरुष जैसी फिल्म उसी का हिस्सा थी। मनोज मुन्तशिर जैसे लोगों से प्रधानमंत्री बिना अपॉइंटमेंट के सीधा मिलते हैं। इस फिल्म को भाजपा के हर मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक का आशीर्वाद है। ज़रा सोचिए उन्होंने ऐसा क्यों किया?
ऐसा इसलिए किया कि सड़कछाप निम्नस्तरीय भाषा को भगवान के मुँह से बुलवाकर उसको भी सामाजिक स्वीकृति दिलाना चाहते थे। ताकि कल को आमलोग इसी भाषा में बात करें, लड़ें मरें कटें, और आपको भ्रम होता रहे कि यह सब धर्म के नाम पर ही चल रहा है। भीड़ की भाषा को धार्मिक चोला पहनाने की गंदी कोशिश हो रही है।
खुशी की बात है कि पूरे देश ने एक सुर में इस भाषा को नकार दिया है। लेकिन याद रखिए कि ऐसी कोशिशें अभी बंद नहीं होने वाली। हिन्दू धर्म की विशेषताओं को नष्ट करके उग्र और उन्मादी बनाने का यह एजेंडा आगे भी जारी रहेगा। यदि आप सच में धार्मिक हैं तो इस खेल को समझिए और इससे बचकर रहिए।
(लेखक युवा हल्लाबोल के संस्थापक हैं।)