गरीब देशों पर जलवायु परिवर्तन की दोहरी मार

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— सुनीता नारायण —

ब इसमें कोई शक नहीं बचा कि जलवायु परिवर्तन के कारण दुनिया मौसम की चरम घटनाओं से प्रभावित हो रही है। यह भी उतना ही स्पष्ट है कि इस तबाही का असर सब पर एक सामान नहीं पड़ा है। सबसे गरीब देशों को इसकी दोगुनी मार झेलनी पड़ी है।

जलवायु वित्त (क्लाइमेट फाइनेंस) का अर्थ केवल जलवायु परिवर्तन के इन विषम प्रभावों को कम करने या उनके प्रति अनुकूलित होने के लिए भुगतान या क्षतिपूर्ति भर ही नहीं है। बल्कि यह इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि ये गरीब देश अपने औद्योगिक विकास से समझौता नहीं कर सकते।

उन्हें एक अलग ढंग के विकास की आवश्यकता है, ताकि वे उत्सर्जन में बिना अधिक वृद्धि किए भी अपने लक्ष्य प्राप्त कर सकें। यही कारण है कि जलवायु न्याय (जिस पर 1992 के यूएन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) में सहमति बनी थी) बहुत मायने रखता है।

सहमति इस बात पर बनी थी कि वातावरण में उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार देशों (ऐतिहासिक प्रदूषक) को उत्सर्जन कम करने की दिशा में कदम उठाने होंगे। साथ ही, इस बात पर भी सहमति बनी थी कि चूंकि विश्व के अन्य देशों को भी विकास का अधिकार है, इसलिए उन्हें संधारणीय (सस्टेनबिलिटी) विकास हेतु आवश्यक वित्तीय एवं तकनीकी सहायता दी जाएगी।

लेकिन बदलते मौसम की ही तरह, बराबरी का यह मुद्दा ऐसे खत्म नहीं होगा। आज भी दुनिया की 70 प्रतिशत आबादी ऊर्जा या आधुनिक जीवन के लिए आवश्यक अन्य चीजों के मामले में बहुत पीछे है।

वहीं दूसरी ओर वर्तमान तापमान को पूर्व-औद्योगिक विश्व से डेढ़ डिग्री से अधिक गर्म न होने देने के लिए जो कार्बन बजट निश्चित किया गया था, वह खत्म हो चुका है। साथ ही, यह भी स्पष्ट हो गया है कि 2009 में प्रति वर्ष 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर देने का जो वादा किया गया था (जो भी सपना कम और हकीकत ज्यादा है) अब शायद ऊंट के मुंह में जीरा साबित हो।

हमारी धरती के विकास के भविष्य को बदलने के लिए आवश्यक राशि का एक अंश मात्र है। इसलिए हमें जल्द से जल्द पैसे का इंतजाम करने की आवश्यकता है।

पर बात इतनी ही नहीं है। हम जानते हैं कि वैश्विक दक्षिण के देश जलवायु परिवर्तन के प्रति अनुकूलन या शमन की कीमत नहीं चुका सकते, इसलिए हमें हमारी दुनिया की विशाल असमानताओं को रेखांकित करने वाले इन संरचनात्मक मुद्दों पर भी चर्चा करने की आवश्यकता है। मेरे सहयोगियों ने “बियॉन्ड क्लाइमेट फाइनेंस” शीर्षक से एक रिपोर्ट तैयार की है, जो इस मुद्दे को गहराई से समझने और आगे का रास्ता सुझाने में मदद करती है।

हम जानते हैं कि क्लाइमेट फाइनेंस के लिए उपलब्ध राशि अपर्याप्त है। साथ ही, हम यह भी जानते हैं कि क्लाइमेट फाइनेंस की कोई सर्वसम्मत परिभाषा नहीं है, जिसके कारण यह राशि भी खाते बही की उलटबांसियों का शिकार बन जाती है। लेकिन जो बात हम समझ नहीं पाते या जिसपर चर्चा नहीं करते वह यह है कि क्लाइमेट फाइनेंस के नाम पर जो कुछ भी दिया जा रहा है, वह रियायती नहीं है।

मोटे तौर पर 5 प्रतिशत राशि अनुदान और शेष ऋण या इक्विटी है। ऐसे में यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि जिसे क्लाइमेट फाइनेंस कहा जाता है, वह उन देशों को नहीं जा रहा है, जहां इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है। ऐसा इसलिए है क्योंकि ये फंड वहीं जाते हैं, जहां पैसा बनाने का अवसर होता है, जहां वित्तीय बाजार की स्थिरता में कम जोखिम है और इसलिए, जहां वित्त की लागत कम है।

देखा जाए तो एक सौर संयंत्र स्थापित करने के लिए वित्त की लागत (ब्याज दर), यूरोप में 2-5 प्रतिशत, ब्राजील में 12-14 प्रतिशत और कुछ अफ्रीकी देशों में 20 प्रतिशत तक हो सकती है। इस वजह से ब्राजील और अफ्रीकी देशों में संयंत्र बना पाना लगभग असम्भव होगा, इससे भी बुरा, अगर यह पैसा ऋण के रूप में अफ्रीका जाता है (उच्च ब्याज दरों पर, जैसा कि हमेशा होता है) तो इससे केवल उनकी मुसीबतें ही बढ़ेंगी। देश ऋण लौटाने में चूक नहीं कर सकते, क्योंकि इससे उनकी क्रेडिट रेटिंग खराब हो जाती है।

लेकिन जलवायु परिवर्तन हालात को और भी बदतर बना देगा, क्योंकि सबसे कमजोर देशों पर ही सबसे ज्यादा कर्ज है। प्रत्येक जलवायु परिवर्तन से जुड़ी आपदा इन देशों को कर्ज के चंगुल में और फंसाती है, क्योंकि वे जीवित रहने और पुनर्निर्माण के लिए उधार लेने को विवश होते हैं।

फिर इन्हीं देशों पर खराब क्रेडिट रेटिंग की मुहर लगा दी जाती है, जिससे उनकी उधारी और पूंजी की लागत और भी अधिक हो जाती है। मैं वैश्विक रेटिंग प्रणाली के अंतर्निर्मित पूर्वाग्रह की बात भी नहीं कर रही हूं, लेकिन यह स्पष्ट है कि इसे देशों को विफल करने के लिए बनाया गया है।

आज, सबसे कमजोर देश, जिन्हें जलवायु शमन के लिए धन की भी आवश्यकता है। उन पर भारी कर्ज का बोझ है (जो पैसा वे वार्षिक ब्याज में चुकाते हैं) वह 2023 में उनके सरकारी राजस्व का 16 प्रतिशत जितना अधिक है। इसलिए, हम अब छोटे बदलावों या गरीबों को रियायतें देने की बात नहीं कर सकते।

रियायती वित्त के नए साधन ढूंढ़ने के प्रस्ताव हैं। सबसे उल्लेखनीय है ब्रिजटाउन एजेंडा (जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए कमजोर देशों को मदद करने के तरीकों पर एक अंतरराष्ट्रीय पहल है)। इसका आह्वान बारबाडोस की दुर्जेय (फॉर्मिडबल) प्रधानमंत्री मिया मोटली के हवाले से किया गया है।

लब्बोलुआब यह है कि क्लाइमेट फाइनेंस अब वह धन नहीं रह गया है जो केवल देशों की ऋणग्रस्तता को बढ़ाता है और उन्हें अगली आपदा के लिए और भी कमजोर बनाता है। तो, आइए जलवायु परिवर्तन नामक इस अस्तित्वगत संकट के लिए वास्तविक धन की आवश्यकता समझें।

(downtoearth.com से साभार)

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