डिजिटल लेन-देन में वृद्धि विकास का सूचक नहीं

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— डॉ. लखन चौधरी —

पिछले कुछ सालों से देश में डिजिटल लेन-देन तेजी से बढ़ा है, बल्कि कहा जाए कि लगातार तेजी से बढ़ रहा है। इसमें कोई दो-मत नहीं है। लेकिन सरकार के दावे के बीच यह खबर भी चौंकाने वाली है कि देश में तीन-चौथाई से अधिक यानी लगभग 75-76 फीसदी परिवार अभी भी किराना सामानों की खरीदारी नकदी में कर रहे हैं। एक सर्वेक्षण के मुताबिक देश के 342 जिलों के 76 फीसदी लोग किराना, रेस्टोरेंट का बिल और फूड डिलीवरी का भुगतान नकदी में कर रहे हैं। फिर सरकार के दावे का क्या है? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या डिजिटल लेन-देन की तेजी से बढ़ोतरी को विकास का सूचक माना जा सकता है? क्या इसे विकास का पैमाना माना जाना चाहिए? हकीकत यह है कि किसी अर्थव्यवस्था में डिजिटल लेन-देन का बढ़ना विकास का सूचक नहीं होता है।

डिजिटल भुगतान यानी डिजिटल लेन-देन के मामले में भारत दुनिया के अग्रणी देशों में से एक है। सरकार दावा कर रही है कि डिजिटल भुगतान में भारत विश्वगुरु बन रहा है। देश में रोजाना 30-32 करोड़ डिजिटल लेन-देन हो रहे हैं। सरकार का कहना है कि डिजिटल भुगतान और डीबीटी यानी डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर के मामले में भारत विश्वगुरु बन गया है। यहाँ तक कि जर्मनी जैसा विकसित देश भी डिजिटल तरीके से डीबीटी भुगतान के मामले में भारत से पीछे है। वर्ष 2021-22 में रोजाना 90 लाख से अधिक डीबीटी भुगतान हुए हैं। मंत्रालय के मुताबिक भारत में प्रतिदिन औसतन 28-29 करोड़ डिजिटल ट्रांजैक्शन किया जा रहा है, जो दुनिया में सर्वाधिक है। डिजिटल ट्रांजैक्शन के मामले में चीन दूसरे नंबर पर तो अमेरिका तीसरे नंबर पर है।

डिजिटल भुगतान क्षेत्र में देश में 2022 की दूसरी तिमाही में 36.08 लाख करोड़ रुपये के 20.57 अरब लेन-देन हुए हैं। रिपोर्ट के अनुसार, छोटे लेन-देन में भी यूपीआई की बड़ी मात्रा में उपस्थिति दर्ज हुई है। रिपोर्ट में बताया गया कि जून 2022 में यूपीआई क्यूआर कोड की संख्या वार्षिक आधार पर 92 फीसदी बढ़कर 19.52 करोड़ के करीब पहुंच गई है। ऑनलाइन क्षेत्रों जैसे ई-कॉमर्स, गेमिंग, यूटिलिटी और वित्तीय सेवाओं में मात्रा के अनुसार 86 फीसदी और मूल्य में 47 फीसदी से अधिक डिजिटल भुगतान हुआ है, जबकि शिक्षा, यात्रा, आतिथ्य और सरकारी क्षेत्र में मात्रा में 14 फीसदी और मूल्य में 53 फीसदी डिजिटल भुगतान हुआ है। रिपोर्ट के मुताबिक सबसे अधिक डिजिटल लेन-देन महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और केरल में हो रहे हैं। शहरों में सबसे अधिक डिजिटल लेन-देन हैदराबाद, बेंगलुरु, चेन्नई, मुंबई और पुणे में हो रहे हैं।

यह तो डिजिटल लेन-देन का पक्ष है, लेकिन असल सवाल यह है कि क्या इसे विकास का पैमाना माना जा सकता है ? क्योंकि अर्थव्यवस्था में विकास के पैमानों से संबंधित जिस तरह की खबरें लगातार आ रही हैं उससे तो अर्थव्यवस्था में असल विकास की जगह दिखावटी विकास अधिक दिखता है। सीएमआईई की रिपोर्ट है कि कोरोना कालखण्ड के पिछले तीन सालों में देश में वेतनभोगियों की संख्या नौ करोड़ से घटकर साढ़े आठ करोड़ रह गई है। वहीं निजी कंपनियों में वेतन तीन गुना बढ़ गया है। इसका मतलब है कि कर्मचारियों की संख्या घटने या कम होने के बावजूद वेतन पर होने वाले खर्चों में भारी वृद्धि हो रही है। दूसरी ओर देश की आधी आबादी महीने में पांच हजार रु भी नहीं कमा पा रही है। कोरोना कालखण्ड के बाद देश के असंगठित क्षेत्र के तीन-चौथाई कामगारों के वेतन में भारी कमी देखने को मिल रही है।

इधर चौंकाने वाली खबर है कि मनरेगा के अंतर्गत काम मांगने वालों की संख्या में गिरावट देखी जा रही है। इसका तात्पर्य है कि अब लोग मनरेगा या गांवों में काम नहीं करना चाहते हैं, और काम की तलाश में एक बार फिर तेजी से शहरों की ओर पलायन बढ़ने लगा है। देश में बेरोजगारी लगातार 8 फीसदी से ऊपर बनी हुई है। आंकड़े यह भी बताते हैं कि देश में मात्र 10 फीसदी लोग हैं जो महीने में एक लाख रु से अधिक कमाते हैं, और इन्हीं लोगों के वेतन में बढ़ोतरी हो रही है। बाजार में उपभोग-खपत-मांग इसी वर्ग की वजह से बढ़ रही है, जिसे सरकार विकास मानने लगी है। यही लोग बढ़चढ़ कर डिजिटल लेन-देन कर रहे हैं। कोरोना कालखण्ड के बाद देश के लोगों की बचत खत्म हो गई है। घरेलू बचत सिमटकर 10 फीसदी से नीचे चली गई है। बची-खुची कसर महंगाई से पूरी हो जा रही है। ऐसे में विकास की परिभाषाएं बदल कर ढिंढोरा पीटना कितना सही है?

रेलवे में 80 फीसदी टिकट बुकिंग ऑनलाइन यानी डिजिटल हो रही है। इधर पिछले एक-डेढ़ साल में सरकार ने हजारों रेलों या रेल यात्राओं को निरस्त करते हुए सैकड़ों करोड़ रु कमा लिये हैं। आम जनता को भारी परेशानी हुई और हो रही है, वह अलग मसला है, लेकिन असल मसला यह है कि टिकट बुकिंग से सरकार जोरदार कमाई कर रही है। पेट्रोल-डीजल के दाम से 28-30 लाख करोड़ की कमाई कर चुकी है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल एवं प्राकृतिक गैस के दाम लगातार घट रहे हैं। कच्चे तेल के दाम 80 डॉलर प्रति बैरल से नीचे चले गये हैं, इसके बावजूद पेट्रोल-डीजल और गैस की कीमतें कम करने पर सरकार चुप्पी साधे बैठी है। तात्पर्य यह है कि डिजिटल लेन-देन के नाम पर सरकार अपनी तिजोरी भर रही है, मगर आमजन को कोई खास फायदा नहीं हो रहा है।

डिजिटल लेन-देन से बड़े कारोबारियों, बड़े पूंजीपतियों, बड़ी कंपनियों को बड़ा फायदा हो रहा है, लेकिन इससे छोटे व्यापारियों, छोटे कारोबारियों की कमर टूट रही है। डिजिटल लेन-देन बढ़ने से ऑनलाइन धोखाधड़ी में हजारों गुनी बढ़ोतरी हो चुकी है, जिसकी रोकथाम के लिए सरकार के पास कोई पुख्ता उपाय नहीं है। देश में आर्थिक असमानताएं तेजी के साथ बढ़ रही हैं, जिसकी ओर सरकार का ध्यान कतई नहीं है। इन आर्थिक असमानताओं और डिजिटल लेन-देन के बढ़ने से देश में आर्थिक एवं सामाजिक अपराध द्रुत गति से बढ़ने लगे हैं। बढ़ती आत्महत्याएं और बढ़ता मानसिक अवसाद समाज को बीमार करने लगा है। मगर सरकार इन तमाम सामाजिक सरोकारों की अनदेखी करते हुए केवल और केवल चुनाव जीतने और सरकार बनाने में अपनी पूरी ताकत लगाने में लगी हुई है। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण और विकास के लिए बहुत विनाशकारी है। महज डिजिटल लेन-देन का बढ़ना विकास का सूचक नहीं होता है, सरकार को यह समझने और समझाने की दरकार है।

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