राकेश रंजन की छह कविताएँ

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पेंटिंग- अतुल पांडेय
पेंटिंग- अतुल पांडेय

Rakesh Ranjan

1. जब मेरी खुदकुशी की वजह लिखी जाए

जब मेरी खुदकुशी की वजह लिखी जाए
तो लिखा जाए कि ठीक से
न मैं संत हो सका न सांसारिक
लोग मुझ पर यकीन करते रहे
जबकि मैं खोता रहा खुद पर यकीन

मैं थाली का बैंगन था
चाँदी का लोटा बेपेंदी का

लिखा जाए
मैं शर्मसार था अपने मिथ्याचार पर
अपनी कायरता को कविता से ढँकता हुआ
हो रहा था पुरस्कृत
और अपनी दमक में देख नहीं पा रहा था
मनुष्यता का तिरस्कार

लिखा जाए
दुखियों के देश में धन और धर्म के अश्लील
धारावाहिक दृश्यों के चलते
मैं लंबे समय से यंत्रणा में था
ऐसे नाटक का मूकदर्शक था
जिसके नायक थे खल और विदूषक
बरसों से देखा नहीं था
किसी किसान का चेहरा प्रत्यक्ष
नहीं जान पाया था मेहनतकश जीवन के घट्ठे

लिखा जाए
मैं खो चुका था अपने लोग अपनी भाषा
एक अजनबी देश में एक खोखली भाषा बोलता
महानता के लिए टपकाता लार
दुम हिलाता खटखटाता प्रभुओं के द्वार

मैं भटका हुआ जहाज था
किसी संत का रबाब बाजार में बिकाऊ

लिखा जाए मैं झूठ बोलकर जिंदा था
जिंदा था हत्यारे की विरुदावलि गाकर
आँख मूँदकर थूक चाटकर नाक रगड़कर
जिंदा था क्योंकि मार दिया था अपना जमीर
छोड़ दी थी जिद तोड़ दिया था वादा
इतनी हैवानियत के होते भी जिंदा था
शर्मिंदा था

जिन रास्तों पर
मेरी साइकिल के डगमग निशान थे
उन पर पड़े थे बच्चियों के चीथड़े
और मैं झुका था लिंगशेष देवों के आगे

जब मेरी खुदकुशी की वजह लिखी जाए
तो लिखा जाए मैं डरता था
क्रांति की मशाल लिये निकलता था
तो आँखों में घूमता था घर का अँधेरा!

2. मेरे लाल को हरा पसंद है

मेरे लाल को हरा पसंद है
उसे हरी कमीज चाहिए
हरी पतलून
टोपी हरी मोजे हरे रूमाल हरा
बहुत सारी चीजों में से
वह उसे चुनेगा
जिसमें हरा सबसे ज्यादा हो
उसे संख्या सिखाओ और कहो ‘वन’
तो समझेगा जंगल
कहो पहाड़ा
तो सुनेगा पहाड़

कितने रंग कितने सपने उगाता हूँ मैं
कविता के वृंत पर
कितनी इच्छाएँ कितने प्रण
क्या मैं एक पत्ता उगा सकता हूँ
उसके लिए
कविता के बाहर
एक सचमुच का पत्ता?

जैसे लाल के ललाट पर लगाता हूँ
काला टीका
वैसा ही टीका लगा सकता हूँ
हरे के ललाट पर?
जैसे उसे देता हूँ हरी गेंद
दे सकता हूँ केले का भीगा हुआ वन
दूर तक फैला
नदी के साथ-साथ?
गेहूँ को पोसता महीना पूस का?
शिशिर के दुआरे से देह झाड़कर निकला वसंत
पतरिंगों की चपल फड़फड़ाहट में साँस लेता हुआ?
ओ सतरंगी पूँछवाली हरी पतंग,
तुम उड़ो वसंत के गुलाबी डैनों पर सवार
मैं लगाता हूँ
अपनी जर्जर उँगलियों से ठुनके
उम्मीद के
ओ दूब, तुम फैलो
धरती की रेत होती देह पर!

मैं स्टेशनरी जाता हूँ
और कहता हूँ वह ग्लोब देना
जिसमें हरा ज्यादा गहरा हो
जिल्दसाज से कहता हूँ
धरती एक किताब है रंगों के बारे में
जरा फट-चिट गई है
इस पर लगा दो फिर से
वही हरी जिल्द

मेरे लाल को हरा पसंद है
इसे मैं दुहराता हूँ उम्मीद की तरह
इस काले होते वक्त में
रहम करो, लोगो
मत सुनो इसे मजहब की तरह
मत देखो इसे
सियासत की तरह

ओ पेड़ो–ओ हरे फव्वारो,
तुम उठो नीले आकाश की तरफ
ओ सुग्गो,
मेरे स्याह आँगन में उतरो!

3.बारिश

बहुत देर से बिजली नहीं आई
नहीं आया टीवी का सिग्नल

वह मिस्त्री भी नहीं आया
जो चढ़ा खंभे पर
बिजली ठीक करने

अगर तुम्हारे लिए बारिश का मतलब
पकौड़े हैं
तो उन अभागों को तुम नहीं जानते
जिनकी टूटी छानियों
और भँसे चूल्हों के बीच
आग एक सपना है

तुम नहीं जानते
जिनकी फसलें डूब जाती हैं
उनके लिए क्या है बारिश का मतलब
वज्रपात में मृत लोगों के परिजन
क्या सोचते हैं
बारिश के बारे में

यही मौसम है जब बाढ़
कितनी साँसों और सपनों को
निगल जाती है
पानी आता दसों दिशाओं से हहाता
हर तरफ से
मृत्यु की विकराल बाँहें बढ़ी चली आती हैं

जिस छप्पर को कद्दू की बेल भी
बोझ है
उस पर पनाह लेने वालों से पूछो
बारिश का अर्थ

देर से राहत नहीं आई
वह लड़का भी नहीं आया जो गया बेड़ा लाने
हर तरफ डूबने के दृश्य
नाक तक पहुँचा पानी और पीने को
चुल्लू भर नहीं
लाशें पहचान से परे और संख्या से बाहर
अन्न मवेशी रास्ते लोग सपने उम्मीदें सबको निगलता
हजार फनों वाला फुफकारता नाग

जिस समय तुम कविताओं में विरहिनियों का बहता काजल
देख रहे होते हो
उसी समय उठता है चक्रवात
और लापता हो जाती हैं नावें
फटते हैं बादल और बह जाते गाँव के गाँव

गई हुई बिजली लौट आती है
कुछ देर बाद
लौट आता है सिग्नल

गए हुए लोग
फिर नहीं लौटते!

पेंटिंग- एम सरोज
पेंटिंग- एम सरोज

4. बहार!

रात भर
हाँका लगाता है पहरू
रह-रहकर सुनता हूँ
सायरन की भीषण आवाज
कुत्तों का रोदन

पौ फटते
ट्रैफिक की दुस्सह आवाजें
अहं के, दिखावे के, स्वारथ के भोंपू
कुहराम
और कहकहे

मिक्सर और ग्राइंडर
दररते हैं प्राण

झूठ के अहर्निश प्रचार
आत्मा को तार-तार करने के
इतने औजार!

बार-बार बजता है फोन
सारा दिन
अथक विकट शोर
मजहबी सियासी हुंकारें
बहसों की चिल्लम-चिल्ला…

न कोयल
न किलकिल्ला
कैसी बहार है बिस्मिल्ला!

5. अपने बच्चे से बात करते हुए

कितना भी भीषण लगे समय
पर मन में तनिक न लाना भय
कैसा भी हो नैशांधकार
सूरज करता है उसे पार
कितनी भी गहरी हो शिकस्त
डूबी हों आशाएँ समस्त
पर मन से पड़ना तुच्छ नहीं
जीवन से बढ़कर कुच्छ नहीं

राहें दुनिया में बेशुमार
चौड़ी, चिकनी औ’ चमकदार
अंधी, हर पल जागती हुई
आँधी बनकर भागती हुई
हिंसक, सबकुछ रौंदती हुई
लोहू पीने की लती हुई
पर उसी राह चलना सहास
जो ले जाती मनुज के पास

देखना स्फुरित-विहसित विहान
सुनना चिड़ियों के चहक-गान
हिंसा से, मद से महाच्छन्न
विस्फोट-विकल औ’ विष-विषण्ण
जग में खग-जीवन बचे रहें
सारे सुर इसमें रचे रहें
सुख-सावन-झूला झूल-झूल
भीगना, मगर जाना न भूल
उनको, जो बदकिस्मती लहे
असहाय, हाय! दुख-बाढ़-बहे

रखना तुम हर हाल में आस
जाना जरूर से नदी-पास जएगा
चाहे वह जितनी बची हुई
हो युग-तापों से तची हुई
घूमना निविड़ पर्वत औ’ वन
अनुभव करना रोमांच सघन
सुनना समुद्र की रोर घोर
देखना चंद्रचुंबी हिलोर
उस महाप्राण की, परम रम्य
वह महाबली! वह चिर अदम्य!

देखना विहँसता खिला चाँद
मेरे बच्चे! पड़ना न माँद
अंतर में धरना शक्ति धवल
प्रेम की, सत्यता की निर्मल
सुनना हृदयों का रुदन मूक
प्राणों में आकुल करुण हूक
सुनना कंठों में दमित चीख
रखना सदैव याद यह सीख

पढ़ना जीवन का सही पाठ
जिस तरह सात के बाद आठ
लिखते हो, रवि के बाद सोम
प्रातः को सायं का विलोम
वैसे ही ‘ग’ से बस गाँधी
लिखना तुम, नफरत की आँधी
से भरा समय यह अननुकूल
झोंके आँखों में भले धूल

अभिलाषाओं के मेले में
घन प्रलोभनों के रेले में
भूलना न हामिद का चिमटा
हो भले स्वार्थ हर ओर पटा
भूलना न जूते प्रेमचंद
के फटे हुए, जो सकल छंद
ठुकराते सदियों के सदैव,
जो भीतिभाव जानते नैव

रखना मेरी यह बात याद
यह अपने युग का दु:खवाद
ये ऊँची-ऊँची अटारियाँ
हैं लक-लक करती कटारियाँ
जनता के सीने में धँसकर
लोहू पीती हैं हँस-हँसकर
इनकी नींवों में धुनी हुईं
मजलूम हड्डियाँ चुनी हुईं
तख्तों के नीचे न्याय दफन
युग-युग की बेबस हाय दफन

देखना नखत तुम गगन-तले
जगमग-जगमग, उजले-उजले
पर फुटपाथों पर बुझी स्याह
जिंदगियाँ जो बिखरीं तबाह
जिनके सब सपने चूर-चूर
उनके हित कुछ करना जरूर

नभ के मेले में मनोहरा
खोई बच्ची यह वसुंधरा
अपनों से जो बिछुड़ी, अनाथ
थामो इसका असहाय हाथ

इन दिनों पराजित मानवता
संदिग्ध विजय की संभवता
पर जब तक यह अँधियारी है
संघर्ष हमारा जारी है!

6. मानो घर के गिर्द मौत देती हो पहरा
(एक छंदोबद्ध कहानी; छंद–रोला)

पत्नी बोली–भाग्य हमारा जला हुआ है
करिखा ही भाल पर हमारे मला हुआ है
जब देखो तब काम-काम रटते रहते हो
भूखे-प्यासे बैल बने खटते रहते हो
खूँटा गाड़े हुए गेह को किए बथानी
लिये हुए हर घड़ी बड़ी-सी बुद्धि-मथानी
क्या जाने तुम कौन कठिन सागर महते हो
गहते माहुर कौन, कौन अमरित लहते हो!

बीते कितने बरस, कहीं भी नहीं घुमाया
सोने जैसा समय धूर में व्यर्थ गँवाया
मेला, ठेला, मॉल, सिनेमा, खेल, तमाशा–
सबकुछ सबके लिए हमारे लिए निराशा
मोटे-मोटे ग्रंथ लिये तुम आँखें फोड़ो
घर से नाता तोड़-ताड़ शब्दों को जोड़ो
जोड़-जाड़कर खूब हवाई किले बनाओ
हमें भुला दो, प्रीत तुम्हारी देखी, जाओ
समय ब्याह के तुम्हें परीछ हमारी माई
कितनी खुश थी, लोर बहाती थी हरसाई
हमें कहा था–महादेव दिखते दूल्हे में
और आज! हम यहाँ सती होतीं चूल्हे में!

कविजी बोले–सबर करो, अलबेली आली
बिलकुल अगले बरस चलेंगे कुलू-मनाली
वहाँ मनोहर शैल-शिखर हम-तुम देखेंगे
चीड़-नीड़ में चहक-कहानी फिर लेखेंगे
देवदार के गहन वनों में खो जाएँगे
व्यास किनारे मेघ ओढ़कर सो जाएँगे
रोहतांग की बर्फ-ढलानों पर फिसलेंगे
सूखे सपनों पर अपार सब्जा घिस लेंगे
चहुँदिस होगा ठोस सनातन हुस्न-समंदर
दोनों उसके बीच तिरेंगे मस्त कलंदर!

हँस बोली वह–वाह! वहाँ मंदिर भी ढेरों
मॉल रोड पर शॉल आदि के स्टॉल घनेरों
मँझली दिदिया घूम वहाँ से कल ही आई
आते ही उसने हमको हर बात बताई
अजी, वहाँ जंगल-पहाड़-मंदिर के अंदर
करते रहते कूद-फाँद हथलप्पक बंदर
जाएँगे हम मगर हिडिंबा माता टेंपल
वहीं पास में वीर घटोत्कच का पुण्यस्थल
इन जगहों को देख, चलेंगे ओल्ड मनाली
मनु-मंदिर है जहाँ बड़ा ही महिमाशाली।

कविजी बोले–यार, बड़ी भक्तिन हो माना
मगर कहो, हर जगह भला मंदिर क्यों जाना
धन्य प्रकृति का दिव्य सुमंदिर स्वयं हिमालय
सर-सरिता-वन-विहग-सुमन-सौंदर्य-महालय
जिससे हैं फूटते अगिन जीवन के सोते
किसे देखना उस विराट के सम्मुख होते
ऊँचे स्वर्णिम नग-शिखरों के बीच, बिलल्ला
तुच्छ पत्थरों हेत घिसोगी काहे तल्ला
जो तुम मनु के धर्मशास्त्र से वाकिफ रहती
मनु-मंदिर में पग धरने की बात न कहती!

सुन पत्नी ने शुरू किया शहजोर झमकना–
महाराज जी, बंद करो यह प्रवचन अपना
जरा नहीं कुछ कहा, लगे उपदेश सुनाने
ज्ञान झाड़ने, इनकलाब का पाठ पढ़ाने
मनु-मंदिर में चले गए तो क्या होगा जी
पति हो, पति ही रहो, बनो मत दारोगाजी
भली-बुरी हर चीज हमें देखनी चाहिए
हर अनुभव से भरी जिंदगी घनी चाहिए
सगरो जाएँ, भला-बुरा सब देखें-जानें
अपना बुद्धि-विवेक कहे, बस उसको मानें
खुद जो चाहो करो, हमें रोको, हरजाई
क्यों देते फिर संविधान की व्यर्थ दुहाई!

फिर बोली वह निकट प्राणप्यारे के आकर
नैनों से निष्पाप अश्रुधारा बरसाकर–
सच कहते हो, किंतु कसम है तुम्हें हमारी
कुछ मत बोलो, हाथ जोड़ती जिया तुम्हारी
हिये हमारे बैठ गया है डर यह गहरा
मानो घर के गिर्द मौत देती हो पहरा
यह जो तुम दिन-रात न्याय की बातें कहते
जनहित के जो लेख तुम्हारे छपते रहते
यह जो तुम समता-स्वतंत्रता के हित लड़ते
प्रेम-एकता हेत किसी के सम्मुख अड़ते
यह जो करते प्रदर्शनों में आवाजाही
नारा देते–नहीं चलेगी तानाशाही
नुक्कड़-नुक्कड़ घूम तंत्र को अंधा कहते
दया-मनुजता-हीन धर्म को धंधा कहते
कहते–लोलुप दस्यु देश को नोच रहे हैं
मातृकुक्षि तक स्वार्थ-नखों को कोच रहे हैं
इन बातों को देशद्रोह कहती है सत्ता
जिसकी मरजी बिना आज डोलता न पत्ता
जिस शासन में लोकतंत्र कुचला जाता हो
संविधान को रोज-ब-रोज दला जाता हो
जिस शासन में झूठ बली हो, जुल्म अकड़ता
मारा जाता सत्य, न्याय जेलों में सड़ता
जो शासन नित प्रजा-चबेना चाबे चुन-चुन
फाँस लिये कर राज-धर्म-पूँजी की तिरगुन
उस शासन को लगातार ललकार रहे हो
निज पैरों पर हाय! कुल्हाड़ी मार रहे हो
हाथ जोड़ती, कसम तुम्हें बच्चे की अपने
छोड़ न जाना बीच राह में हमें बिलपने!

कविजी प्रेम-विभोर, प्रिया का माथ चूमकर
फिर बच्चे की ओर स्नेह से द्रवित घूमकर
देखा, बच्चा मुसक रहा बिस्तर पर लेटा
बोले–लाखों बरस जिएगा अपना बेटा
पाएगा यह सुख-सपनों का अपना हिस्सा
और अचानक, खत्म हो गया सारा किस्सा!

10 COMMENTS

  1. राकेश रंजन जी की बेहतरीन कविताएं। बहुत सुंदर रचना। कविता के लिए राकेश जी और प्रकाशन के लिए समता मार्ग को बधाईयां

  2. नए मिजाज और नए शिल्प की सुंदर कविताएँ। शुक्रिया!

  3. मेरी कविताओं को इतने सुंदर ढंग से प्रकाशित करने के लिए हार्दिक आभार!

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