— कनक तिवारी —
(1) इस्काॅन इंटरनेशनल सोसायटी फाॅर कृष्णा काॅन्शेन्शसनेस ने बताया है कि उन्होंने अपने एक संन्यासी अमोघ लीला दास पर एक महीने के लिए बैन लगा दिया है। अमोघ लीला दास ने मछली खाने को लेकर स्वामी विवेकानन्द की आलोचना की थी। उन्होंने कहा था कि एक नेक आदमी कभी किसी जीव को नुकसान पहुंचाने के बारे में नहीं सोच सकता। इसके अलावा अमोघ लीला दास ने रामकृष्ण परमहंस पर भी कटाक्ष किया था। अमोघ लीला दास ने अपने बयान के लिए माफी मांगी है और उन्हें एहसास हो रहा है कि उन्होंने कितना भारी नुकसान कर दिया। इस्काॅन ने बताया है कि अमोघ लीला दास ने प्रायश्चित्त करने का संकल्प लिया है। इसके लिए वो तत्काल प्रभाव से सार्वजनिक जीवन से अलग होकर गोवर्धन पर्वत पर एकांतवास में चले गए हैं।
(2) सोशल मीडिया में स्वामी विवेकानन्द के कथित तौर पर मांस और मछली खाने को लेकर एक बावेला मचाने की कोशिश की गई है। विवेकानन्द को गए 121 वर्ष हो गए हैं। उन पर आरोप या यदि कोई तोहमत लगाता है तो उसे विवेकानन्द के जीवन पर शोध भी करना चाहिए। यह आमफहम है कि जन्मजात और सांस्कृतिक बंगाली रहे विवेकानन्द अपने बचपन से परिवार और परिवेश में मांस, मछली का उपभोग तो करते रहे होंगे। बंगाल में कई तीज-त्योहार और जश्न मछली के बिना पूरे होते नहीं समझे जाते। विवेकानन्द सर्वधर्म समभाव के सबसे बड़े प्रवक्ताओं में शुमार होकर लगभग सबसे ऊपर हैं। उनकी अंतरराष्ट्रीय समझ और छवि भारत के लिए गर्व का विषय है। लगभग साढ़े तीन वर्ष विवेकानन्द अमेरिका और यूरोप में रहे। उन्होंने वेदांत का भी सघन प्रचार किया। छत्तीसगढ़ के रायपुर को सौभाग्य है कि यहां विवेकानन्द अपनी किशोर अवस्था में दो वर्षों से ज्यादा रहे। उन्होंने छत्तीसगढ़ की मछलियां भी खाई होंगी।
(3) विवेकानन्द के निजी जीवन को लेकर कई महत्वपूर्ण किताबी कुंजियां हैं। विवेकानन्द का लेखन ही कम से कम दस खंडों में वर्षों से प्रकाशित है। वहां उनकी खाने पीने की आदतों का भी जिक्र है। इसके अतिरिक्त ‘रेमेनीसेंसेस आफ स्वामी विवेकानन्द बाई हिज़ ईस्टर्न एण्ड वेस्टर्न एडमायरर्स; दी मास्टर ऐज़ आई साॅ हिम’ (सिस्टर निवेदिता), ‘स्वामी विवेकानन्द इन दी वेस्ट : न्यू डिस्कवरीज़’- मेरी लुइस बर्क और उनके छोटे भाई भूपेन्द्रनाथ दत्त द्वारा लिखी गई दुर्लभ किताब का सहारा लिया जा सकता है। विवेकानन्द आधुनिक ऋषियों में सबसे वैज्ञानिक, तार्किक और भविष्यमूलक समझ के बडे़ शोधकर्ता भी हैं। कट्टर हिन्दुत्व के कई लोग विवेकानन्द की कई शिक्षाओं से खुद को एक राय और हमकदम नहीं बना पाते हैं। उन्हें केवल उतना विवेकानन्द अपना लगता है जो हिन्दुत्व के प्रचारक के रूप में भगवा वस्त्र पहनकर ओजमयी भाषा में समाज का आह्वान करता है। ऐसे लोग चाहते हैं और लिखते बोलते भी हैं कि विवेकानन्द हिन्दुत्व के संकीर्ण बाड़े में कैद रहें। उन्हें अन्य धर्मों के विचार, आहार और प्रचार से वंचित रखा जाए।
(4) एक बंगाली नौजवान द्वारा साधु बनने के पहले और बाद में मछली, मांस खाना सार्वजनिक जीवन का विवाद बन ही नहीं सकता। विवाद पर वस्तुपरक ढंग से विचार करने की जरूरत है। अन्यथा कई पुरातनपंथी संकीर्ण तत्वों को इससे रोजी रोटी कमाने का मौका मिल सकता है। यह गलतफहमी है कि संन्यासी बनकर भी विवेकानन्द आदतन मांसाहार करने की परम्परा के पक्षधर रहे हैं। विवेकानन्द भोजनप्रेमी रहे। उनके भाई भी बताते कि वे बचपन से रसोई में घुसकर मां की सहायता किया करते, बल्कि भोजन पकाने को लेकर कई तरह के प्रयोग भी करते थे। यह आदत संन्यास लेने के बाद बेलूर मठ में भी कायम रही। मांसाहारी भोजन को लेकर विवेकानन्द के लेखन और उदबोधन में कई उल्लेख हैं। उन्हें एकजाई कर समझे बिना विवेकानन्द के लिए चलताऊ और सतही कटाक्ष करते एक महत्वपूर्ण मुद्दे को लेकर अपने हाथ अपनी पीठ ठोंकने का जतन करना गैरमुनासिब होगा।
विवेकानन्द ने समय-समय पर कहा है :
1. जब तक मनुष्य प्रजाति के लिए पर्याप्त वैज्ञाानिक शोध सहित रसायनशास्त्र में भी इस तरह के प्रयोग नहीं किए जाएं कि इंसान को शाकाहारी भोजन ठीक से मिल सके। तब तक मांसाहार को रोक देने का विकल्प कैसे उपलब्ध हो सकता है। (24/04/1897) (वि . सा. /4/486.4)
2. आप चाहे गंगा में स्नान करें या केवल शाकाहारी भोजन करते रहें। लेकिन जब तक आप अपनी आत्मा का शुद्धिकरण नहीं करते तब तक इसका कोई अर्थ नहीं हैं। (वार्तालाप 1901) (वि.सा. 7/210.4)
3. गरीबों का तो सारे संसार में भोजन मसालायुक्त मक्का है। वनस्पतियां, सब्जियां और मांस मछली तो उनके लिए लग्जरी होने से चटनी की तरह होते हैं। (आलेख दी ईस्ट ऐंड दी वेस्ट) (वि.सा. 5/491.3)
4. वे देश जो मांसाहार करते हैं व्यापक तौर पर बहादुर, साहसी और वैचारिक भी समझे जाते रहे हैं। (वि.सा 5/484.2) (निबंध: दी ईस्ट एंड दी वेस्ट)
5. मांसाहारी देश लगातार यह प्रतिपादित करते हैं कि उन दिनों में जब यज्ञ का धुआँ आकाश तक उठता था हिन्दू मांसाहार करते थे। तब उनमें महान धार्मिक और बौद्धिक लोग भी पैदा हुए हैं। (वि. सा. 5/484.2)
6. बातचीत में उन्होंने कहा था कि पूर्वी बंगाल के रहवासी काफी मछली मांस और कछुआ खाते हैं और वे बाकी बंगाल के लोगों से ज्यादा स्वस्थ हैं। (वि. सा. 5/402.3)
7. मैं अपने आप से कई बार सवाल पूछता हूं कि क्या मैं मांसाहार छोड़ दूं? मेरे गुरु ने कहा तुम क्यों छोड़ते हो? वह वस्तु ही तुमको छोड़ देगी। कुदरत की किसी वस्तु को छोड़ देने की बात मत करो। उसे कुदरत के लिए इतना गर्म कर दो कि कुदरत ही उसे छोड़ दे। कभी तो वह वक्त आएगा जब तुम मांसाहार संभवतः नहीं कर पाओगे। उसे देखते ही तुम्हें कोफ्त होगी। (वि.सा.1/519.4)
8. व्यावहारिक वेदांत के व्याख्यान में उन्होंने कहा कि जब मैं मांसाहार करता हूं तब जानता हूं कि यह गलत है। मुझे परिस्थितिवश यदि खाना भी पड़ता है तब भी मैं जानता हूं कि यह क्रूरता है। (वि.सा.2/298.1)
9. यह बेहतर होता जो मांस खाए, वह पशु को मार देता। लेकिन इसके बदले समाज ने पशुओं को मारने वालों का वर्ग बना दिया। और उनसे इस बाबत घृणा भी करता है। मांसाहार करना केवल उनके लिए अनुकूल है जो कड़ी मेहनत करते हैं और जो भक्त बनने वाले नहीं हैं। लेकिन यदि तुम भक्त बनने की राह पर हो तो तुम्हें मांस खाना टाल देना चाहिए। (वि.सा.4/5.1)
10. शिकागो में 3 मार्च 1894 को उन्होंने कहा था कि हम प्रत्येक व्यक्ति को हक देते हैं कि जानने, चुनाव करने और किसी बात को लागू करने के लिए अपने आप में आजाद है। मसलन मांस खाना किसी को अटपटा लग सकता है। तो किसी को फल खाना। लेकिन दूसरे की आलोचना करने का अधिकार नहीं है क्योंकि यह फिर छींटाकशी परस्पर होती जाएगी। (वि.सा. 4/357.3)
11. तुम क्षत्रियों के मांस खाने की बात करते हो। मांस खाना हो या नहीं हो हिन्दू धर्म के सभी आदर्शों और बेहतर तत्वों को लेकर क्षत्रिय ही पितातुल्य हैं। राम, कृष्ण और बुद्ध, जैन तीर्थंकर कौन थे? (वि.सा. 4/359.3)
12. क्या ईश्वर तुम्हारी तरह कोई घबराया हुआ मूर्ख है? कि करुणा की सरिता एक टुकड़ा मांस से प्रदूषित हो जाएगी? यदि वह ऐसा है तो उसका मूल्य एक पाई के बराबर भी नहीं है। (वि.सा. 4/359.3)
(लेख का बाकी हिस्सा कल)