— डॉ. राममनोहर लोहिया —
(प्रस्तुति)
— प्रोफेसर राजकुमार जैन —
(इंसानी जिंदगी में नदियों की अहमियत से हर कोई वाकिफ है इंसान और धरती, पशु पक्षियों, वनस्पतियों, जीव-जंतुओं, पानी के अंदर और बाहर की प्यास बुझाने वाली कुदरत की इस देन को “मैया” जैसे खिताब से नवाजा जाता है। पर आज वह रौद्र रूप धारण करके तबाही, बर्बादी का आलम क्यों बन गई? भौतिक संपदा की अंधी दौड़ में कुदरत से मिले इस बहुमूल्य खजाने के अंधाधुंध दोहन, घरों से निकलने वाला गंदा पानी, उद्योगों से निकलने वाले कूड़े कचरे, रासायनिक तत्वों, धार्मिक सामाजिक रीतियों के कर्मकांड से पैदा हुए कचरे, रंगों, से हम नदियों को मार रहे हैं।
हिमाचल में पिछले दिनों नदी किनारे जबरन अवैध कब्जा करके बने हुए होटल, रिसोर्ट, ऐशगाहों, कॉटेजों को वहां की नदियों ने एक झटके में अपने आगोश में ले लिया। अब उसका नामोनिशान तक नहीं है। कुदरत के साथ खिलवाड़ करने वाली इंसानी भूख की वजह से तबाही का मंजर अब सामने आ रहा है।)
आज से तकरीबन 60 साल पहले 26 मई 1958 को डॉक्टर राममनोहर लोहिया ने भाषण देते हुए चेताया था, उसके कुछ अंश यहां प्रस्तुत हैं।
“आज मैं आपसे एक बात ऐसी करूंगा जिसे धर्म के आचार्यों को करनी चाहिए, लेकिन ये नहीं कर रहे हैं। वे तो गलत और गैरजरूरी कामों में फंसे हुए हैं। मैं अपने लिए कह देता हूं कि मैं नास्तिक हूँ कोई यह न समझ बैठे कि ईश्वर से मुझे मुहब्बत हो गई है।
हिंदुस्तान का मौजूदा जीवन और पुराना इतिहास सभी बहुत-कुछ नदियों के साथ-साथ चला, यों सारी दुनिया में, लेकिन यहां ज्यादा। अगर मैं राजनीति न करता और स्कूल में अध्यापक होता, तो इसके इतिहास को समझता। राम की अयोध्या सरयू के किनारे, कुरु और पांचाल और मौर्य तथा गुप्त गंगा के किनारे, और मुगल और शीरसेनी नगर और राजधानियां यमुना के किनारे रहीं बारहों मास पानी के कारण, शायद विशेष जलवायु के कारण, या हो सकता है, विशेष संस्कृति के कारण ऐसा हुआ हो। एक बार मैं महेश्वर नाम के स्थान पर गया, जहां अहिल्या अपनी ताकत से गद्दी पर बैठी थी। वहां पर एक संतरी था। उसने पूछा कि तुम किस नदी के हो? दिल में घर कर जाने वाली बात है। उसने शहर नहीं पूछा, भाषा भी नहीं, नदी पूछी। जितने साम्राज्य बढ़े, किसी न किसी नदी के किनारे बढ़े- चोल कावेरी के किनारे, पांड्या वैगेई के और पल्लव पालार के किनारे बढ़े।
आज हिंदुस्तान में 40 करोड़ लोग बसते हैं। एक-दो करोड़ के बीच रोजाना किसी न किसी नदी में नहाते हैं और 50-60 लाख पानी पीते हैं। उनके मन और क्रीड़ाएं इन नदियों से बंधे हैं। नदियाँ हैं कैसी? शहरों का गंदा पानी इनमें गिराया जाता है। बनारस के पहले जो शहर हैं, इलाहाबाद, मिर्जापुर, कानपुर, इनका मैला कितना मिलाया जाता है इन नदियों में कारखानों का गंदा पानी नदियों में गिराया जाता है- कानपुर के चमड़े आदि का गंदा पानी। यह दोनों गंदगियां मिलकर क्या हालत बनाती हैं? करोड़ों लोग फिर भी नहाते हैं और पानी पीते हैं। इस समस्या पर मैं, साल से ऊपर हो गया, कानपुर में बोला था।
तैराकी का खेल दुनिया में सबसे ज्यादा खेला जाता है- क्रिकेट, हाकी वाल से ज्यादा क्रिकेट कह गया। यह तो पाजी, पुराने सामंतों और जमींदारी का खेल है। यूरोप, अमरीका में तैराकी के तालाब बनाए जाते हैं। अरबों रुपए खर्च होते हैं। लावा यहां नहीं है। अगले 50-100 वर्षों में रूस और अमरीका के जैसे तैराकी के सालाब यहां नहीं बन सकते। जो राजा हैं या गद्दी पर बैठने का मंसूबा रखते हैं, वे थोड़े ही नहाने जाते हैं। वे तो आधुनिक हो गए हैं, किंतु इतने आधुनिक भी नहीं कि करोड़ो के दुख-दर्द का इलाज कर सकें।
क्या हिंदुस्तान की नदियों को साफ रखने और करने का आंदोलन उठाया जाए? अगर यह काम किया जाए तो दौलत के मामले में भी फायदा पहुंचाया जा सकता है मल-मूत्र और गंदे पानी की नालियां खेतों में गिरे। उनको गंगामुखी या कावेरीमुखी न किया जाए। दूर, कोई 10-20 मील पर नालियों द्वारा मल-मूत्र ले जाया जाए। खर्च होगा। दिमाग के ढर्रे को बदलना होगा। मुमकिन है, इस योजना में अरबों रुपयों का खर्च हो। 2,200 करोड़ रुपए सरकार हर साल खर्चती है। पंचवर्षीय योजना के कुछ काम बंद करने होंगे, हालांकि इसमें रुकावटें जबरदस्त हैं। राजनैतिक व्यक्ति, चाहे गद्दी पर हों चाहे बाहर, अपने दिमाग से नकली यूरोपी हो गए हैं कौन हैं हिंदुस्तान के राजा? करीब एक लाख लोग होंगे, या उससे भी कम, जो थोड़ी बहुत अंग्रेजी जानते हैं, कांटे-छुरी से खाना और कोट-टाई पहनना जानते हैं। ताकतवर दुनिया के प्रतीक हैं। आज राजगद्दी चलाने वाले हैं कौन? नकली आधुनिक विदेशी लोग दिमाग जरा भी हिंदुस्तानी नहीं, नहीं तो हिंदुस्तान की नदियों की योजना बन जाती। मैं चाहता हूँ कि इस काम में, न केवल सोशलिस्ट पार्टी के, बल्कि और लोग भी आएं, सभाएं करें, जुलूस निकालें, सम्मेलन करें और सरकार से कहें कि नदियों के पानी को भ्रष्ट करना बंद करो। फिर सरकार को नोटिस दें कि 3 से 6 महीने के भीतर वह नदियों का गंदा पानी खेतों में बहाएं, इसके लिए खास खेत बनाएं, और वह अगर यह न करे तो मौजूदा नालियों को तोड़ना पड़ेगा। इससे हिंसा नहीं होती।
कबीर ने कहा था
माया महा ठगिनि हम जानी।
बोले मधुरी बानी। केसो के कमला होय बेठी,
तिरिगुन फांस लिए कर डोले, सिव के भवन भवानी। तीरथ महं भई पानी।
पंडा के मूरति होय बैठी,
सब अपने ढंग से इसका अर्थ लगाते हैं। तीर्थ है क्या- पानी को साफ करने के लिए आंदोलन चाहिए। लोगों को सरकार से कहना चाहिए- बेशर्म, बंद करो यह अपवित्रता ! यह सही है कि दुनिया से सीखना है, लेकिन करोड़ों का ध्यान रखना है मैं फिर कहता हूं कि मैं नास्तिक हूँ। मेरे साथ तीर्थबाजी का मामला नहीं है। मुख्य बात यह है कि 30 लाख का देश बने या 40 करोड़ का। इसके लिए अगर कुछ लोग आंदोलन करना चाहें तो मैं मदद करूंगा।
उड़ीसा ऐसे संगम स्थान पर है, जहां एक ओर कोणार्क है, और दूसरी ओर एलोरा। भारत में पांच महान सांस्कृतिक केंद्र हैं, जिनमें एलोरा, कोणार्क और खजुराहो के मंदिर जमुना के दक्षिण में हैं। जमुना के दक्षिण में ही कला विकसित हुई है, उत्तर में नहीं गंगा और जमुना का पानी बड़ा विशाल है। वहां महाकाल की चलती है, मनुष्य की कुछ नहीं।