— डॉ. लखन चौधरी —
देश में जुलाई महीने में खाने-पीने की चीजों की यानी खाद्य महंगाई अपने अब तक के सर्वाेच्च स्तर पर पहुंच कर रिकॉर्ड बना रही है। टमाटर 200-250 रु., हरी मिर्च और धनिया 200-250 रु., अदरक 350-400 रु. प्रति किग्रा. के पार पहुंच चुके हैं। महंगाई को लेकर रोना केवल सब्जियों तक सीमित नहीं है। आटा, दाल, दूध, मसाले सहित रोजमर्रा की तमाम जरूरी खाद्य सामग्रियों की कीमतें जुलाई महीने में अपने ’ऑल टाईम हाई लेवल’ पर खेल रही हैं। आम आदमी बेबस और लाचार है।
लेकिन सरकार मानने को तैयार नहीं है कि देश में महंगाई है। सरकार दावा कर रही है कि देश में थोक महंगाई दर पिछले 8 साल के निचले स्तर पर आ गई है। सरकार के आंकड़े बता रहे हैं कि जून में थोक महंगाई दर मात्र 4.12 फीसदी रही है, और इसकी वजह खाने-पीने की चीजों का सस्ती होना है!
असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले देश के लगभग 55-60 करोड़ लोगों की रसोई का सारा खेल बिगड़ चुका है। गरीबों और मध्यमवर्ग की थाली से टमाटर, हरी मिर्च और हरी धनिया की चटनी गायब है। देश की आधी आबादी यानी लगभग 70-72 करोड़ लोग खाद्य महंगाई की चपेट में आ चुके हैं, लेकिन सरकारी आंकड़े इससे सहमत नहीं दीखते हैं। सरकारी आंकड़े बता रहे हैं कि देश में लगातार तीसरे महीने थोक महंगाई दर में गिरावट दर्ज की गई है। जून महीने में थोक महंगाई दर यानी होलसेल प्राइस इंडेक्स 4.12 फीसदी पर आ गई है। सरकार तर्क दे रही है कि जून में थोक महंगाई की दर में गिरावट मुख्य रूप से मिनरल ऑयल्स, खाने-पीने की चीजें, बेसिक मेटल्स, क्रूड पेट्रोलियम और नेचुरल गैस और कपड़ों की कीमतें कम होने के कारण आई है।
सवाल उठता है कि आखिरकार बाजार की वास्तविक महंगाई और महंगाई के सरकारी आंकड़ों को लेकर इस कदर विरोधाभास क्यों है? तात्पर्य यह है कि यदि वास्तविकता में महंगाई दरें सामान्य हैं, तो फिर खाने-पीने की चीजों की कीमतें आसमान क्यों छू रही हैं?
रोजमर्रा की जरूरी चीजों की कीमतें आमजन को रुला क्यों रही हैं? दाल की कीमतें 200 रु. के पार हैं। आटा 50 रु. पार कर गया है। ठीक तरह से खाने लायक चावल 50 रु. पार है। इस समय बाजार में कोई भी सब्जी 50 रु. के नीचे नहीं है। गरीब आदमी दाल-चावल और टमाटर-मिर्च की चटनी खाकर काम चला लेता था, आज तो वह भी मुमकिन नहीं दीखता है? फिर भी सरकारी आंकड़े महंगाई पर हकीकत बयान क्यों नहीं करते हैं?
महंगाई को अक्सर आंकड़ों में दिखाने, प्रस्तुत करने, समझने की कोशिश की जाती है। ठीक है कि महंगाई की आंकड़ों की भाषा होती है, लेकिन इसके इतर आम जनजीवन पर महंगाई का व्यापक प्रभाव एवं असर होता है। महंगाई की वजह से आम आदमी के खान-पान, रहन-सहन एवं जीवन स्तर में गुणात्मक गिरावट आ जाती है। कमाई का सारा पैसा महंगाई की भेंट चढ़ जाता है, और दिनरात मेहनत करने एवं आमदनी बढ़ने के बावजूद जीवनस्तर में कोई सकारात्मक बदलाव नहीं आ पाता है।
महंगाई का असर अर्थव्यवस्था पर भी पड़ता है। सामान्य महंगाई यानी मुद्रास्फीति से उत्पादकों को मुनाफा होता है, जिससे निवेश एवं रोजगार के अवसर बढ़ते हैं, लेकिन दीर्घकाल में उपभोक्ताओं पर इसका बुरा या नकारात्मक प्रभाव पढ़ता है। उपभोक्ताओं की वास्तविक आय घट जाती है, और अंततः बाजार में मांग सिकुड़ने लगता है। इसकी वजह से उत्पादक इकाइयां बंद होने लगती हैं। कुल मिलाकर सामान्य से अधिक महंगाई सबके लिए हानिकारक ही होती है।
सरकार के अनुसार जून में खुदरा यानी फुटकर महंगाई 4.81 फीसदी पर पहुंच गई है। मई में यह 25 महीने के निचले स्तर 4.25 फीसदी पर आ गई थी। सरकार का तर्क है कि जून में सब्जियों की ऊंची कीमतों के कारण महंगाई बढ़ी है। तेज गर्मी, असमय बारिश जैसी प्राकृतिक घटनाओं ने फसलों को नुकसान पहुंचाया है जिससे सब्जियों के दाम बढ़े हैं। चूंकि प्रचलित महंगाई दर के निर्धारण में लगभग आधी हिस्सेदारी खाने-पीने की चीजों की होती है, लिहाजा खुदरा महंगाई दर में मामूली बढ़ोतरी दर्ज हुई है, जो अगस्त महीने के बाद सामान्य हो जाएगी।
वैसे तो जुलाई के महीने में सब्जियों की कीमतें हमेशा अधिक हो जाती हैं। आलू, प्याज, टमाटर, हरी मिर्च, हरी धनिया पत्ती, अदरक इत्यादि तमाम मौसमी सब्जियों की कमी की वजह से कीमतें बढ़ जाती हैं, और आम आदमी की रसोई का जायका बिगड़ जाता है; लेकिन इस बार आलू, प्याज को छोड़कर शेष सब्जियों ने जिस तरह से रिकॉर्ड तोड़ महंगाई पैदा की है, यह विचार-विमर्श का एक गंभीर मसला है। यद्यपि यह महंगाई बहुत कुछ प्राकृतिक कारणों की वजह से है, इसके बावजूद इस कमरतोड़ महंगाई के लिए कहीं न कहीं सरकार की नीतियां जिम्मेदार हैं।
दरअसल, इस महंगाई की सबसे बड़ी वजह उत्पादन की कमी है। देश की 142 करोड़ की आबादी के लिए जितनी खाद्य वस्तुओं यानी रोजमर्रा की खाने-पीने की चीजों की जरूरत है, उस अनुपात में देश में उत्पादन नहीं हो रहा है। कई चीजों का यदि उत्पादन है, तो ऊंची कीमतों के लालच में बड़े पैमाने पर निर्यात कर दिया जा रहा है। तात्पर्य यह है कि खाद्य महंगाई की सबसे बड़ी वजह मांग-पूर्ति का असंतुलन है। प्राकृतिक कारणों से उत्पादन प्रभावित होने की वजह से आपूर्ति बुरी तरह घटती जा रही है। जिसकी वजह से साल के कुछ महीनों जैसे जून-जुलाई, अक्टूबर-नवम्बर, मार्च-अप्रैल आदि में जलवायु परिवर्तन जैसे कारणों से सब्जियों, फलों, दूध, दाल, तेल आदि रोजमर्रा की जरूरी जिंसों के दाम आसमान छूने लगते हैं।
सवाल यह भी उठता है कि यदि महंगाई दर नियंत्रित यानी सामान्य है तो फिर वह धरातल पर दिखलाई क्यों नहीं देती है? आमजन महंगाई को लेकर परेशान क्यों है? महंगाई को लेकर जो विरोधाभास है, उसकी वास्तविकता क्या है? महंगाई के कारण क्या हैं? वास्तविक महंगाई की वजह क्या है?
सरकार को दीर्घकालिक कृषि नीति बनाने की जरूरत है, लेकिन इस दिशा में सरकार का ध्यान केवल कागजी खानापूर्ति तक सीमित है। इसके लिए कृषि को उद्योग का दर्जा देकर कृषि में भारी सरकारी निवेश की दरकार है, जिससे देश की विशालतम जनसंख्या के लिए जरूरत के अनुसार उत्पादन को बढ़ावा दिया जा सके। फलों, सब्जियों इत्यादि के भंडारण की समुचित व्यवस्था नहीं हो पाने की वजह से इन मौसमों में होने वाली जमाखोरी और कालाबाजारी पर कठोर कार्रवाई करने की जरूरत है।
अब समय आ गया है कि धान उत्पादन के रकबा को हतोत्साहित करते हुए दलहन, तिलहन, दूध, फल, सब्जियों के उत्पादन को बढ़ाने के लिए सब्सिडी बढ़ाई जाए। इनके भंडारण की समुचित सरकारी व्यवस्था करनी होगी, जिससे महंगाई पर रोक लगाई जा सकती है। देश में खाद्य वस्तुओं के भंडारण की व्यवस्था नहीं है? ऐसा नहीं है। देश में भंडारण की व्यवस्था असल में निजी हाथों में है, जो जमाखोरी एवं कालाबाजारी जैसी अनैतिक व्यवस्थाओं को जन्म देकर मुनाफा वसूली करते हैं, जिससे महंगाई बेलगाम हो जाती है। यानी सरकारी नीतियों की असफलता महंगाई के लिए न सिर्फ जिम्मेदार है, अपितु कृषि क्षेत्र को लेकर सरकार की उदासीनता और कृषि क्षेत्र को लेकर अदूरदर्शितापूर्णं नीतियां वर्तमान महंगाई की सबसे बड़ी वजह हैं।
महंगाई कैसे मापी जाती है?
आम आदमी के लिए हमेशा यह जानना एक बड़ा सवाल होता है कि आखिर सामान्य बोलचाल की भाषा में कही जाने वाली महंगाई, जिसे अकादमिक भाषा में मुद्रास्फीति कहा जाता है, मापी कैसे जाती है? भारत में महंगाई को दो तरह से आंकने या दिखाने का काम किया जाता है। एक रिटेल, यानी फुटकर या खुदरा और दूसरी होलसेल यानी थोक महंगाई दर। खुदरा यानी फुटकर महंगाई दर आम उपभोक्ताओं यानी ग्राहकों की तरफ से दी जाने वाली कीमतों पर आधारित होती है। इसको कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स (CPI) भी कहते हैं। वहीं, थोक महंगाई दर यानी होलसेल प्राइस इंडेक्स (WPI) का अर्थ उन कीमतों से होता है, जो थोक बाजार में एक व्यवसायी, कारोबारी दूसरे कारोबारी से वसूलता है। ये कीमतें थोक में किए गए व्यापार, कारोबार या सौदों से जुड़ी होती हैं।
खुदरा एवं थोक दोनों तरह की महंगाई को मापने के लिए अलग-अलग वस्तुओं के समूहों को शामिल किया जाता है। जैसे थोक महंगाई में निर्मित वुस्तुओं यानी मैन्युफैक्चर्ड प्रोडक्ट्स की हिस्सेदारी 63.75 फीसदी, खाद्य वस्तुओं की हिस्सेदारी यानी प्राइमरी आर्टिकल की 20.02 फीसदी और्र ईंधन एवं बिजली की हिस्सेदारी 14.23 फीसदी होती है। वहीं खुदरा महंगाई में खाद्य वस्तुओं की भागीदारी सर्वाधिक 45.86 फीसदी, हाउसिंग सेक्टर की 10.07 फीसदी, कपड़े की 6.53 फीसदी और ईंधन, बिजली सहित अन्य जरूरी वस्तुओं की भागीदारी होती है। एक और दिलचस्प बात कि भारत में महंगाई जानने के लिए थोक महंगाई दर का उपयोग किया जाता है, जबकि अमरीका में महंगाई का आकलन उत्पादक मूल्यों के संकेतकों यानी प्रोड्यूसर प्राइस इंडेक्स का इस्तेमाल किया जाता है।