सुमित चौधरी की पॉंच कविताएँ

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पेंटिंग- कौशलेश पांडेय
पेंटिंग- कौशलेश पांडेय

1. सबको हक़ है

सबको हक़ है
सब प्यार करें
दुख का दरिया पार करें

खिलें-मुरझाएँ
खाद बनें
सबको हक़ है
सब प्यार करें

दूर-दूर रहते हैं तो क्या
भाव बारहा याद करें
जीवन का मूल्य समझ कर
एक-दूजे का मान करें

जीवन न निरर्थक यूँ ही करें
नरम-गरम यूँ साथ रहें
सबको हक़ है
सब प्यार करें
दुख का दरिया पार करें।

2. तुम एक फूल हो

तुम एक फूल हो
और फूल को पसंद करती हो

मुझे पता है
तुम्हें फूल बहुत पसंद है
तुम बहुत करीब जाकर निहारती हो फूलों को
और खिल जाती हो

तुम कहती हो
मैंने फूलों के पौधे रोपे हैं
मुझे फूलों का रंग बहुत पसंद है
और उसके सुगंध भी

तुम मुझसे पूछ पड़ी
तुम्हें फूल पसंद है?

मैंने तपाक से कहा
हाँ ! मुझे भी फूल पसंद है।

तुम कही कौन सा?
मैंने कहा- जो फूलों को पसंद करती है।

3. उदासी भरे दिनों में

कितना कुछ कहना चाहता हूँ तुमसे
कि कोई रंग नहीं चढ़ता मेरे ऊपर
कोई मुलायम बात नहीं भाती मुझे
न ही अब मेरा चेहरा मुझे सुहाता है

कितने उदास हैं दिन
कि बुझ नहीं पाती है सच की लौ मेरे भीतर
मैं चाह कर भी नहीं बचा पाता अपने लोगों को
वे आहत हो जाते हैं, मेरे कटु वचनों से
और विमुख हो जाते हैं
इन उदासी भरे दिनों में

मैं सच कह रहा हूँ
“मैं किसी फिल्म का नायक नहीं
जो ढाई घंटे बाद खुश हो जाऊँ”
और कहूँ कि सब कुछ ठीक हो गया
जबकि ‘मैं ठीक नहीं हूँ’

कितनी आधी-अधूरी बातें तुमसे कहकर
पूरा करना चाहता हूँ
सच है यह
पर कह नहीं पाता

यह उदासी का आलम
कितना निर्जीव बना दिया है मुझे
कि तुम्हारे साथ होने के बाद भी
तुम पर खीज जाता हूँ
और तुम शांत-चुप होकर
पूरी शालीनता से सुनती जाती हो

‘मुझे माफ करना
इसमें तुम्हारा दोष नहीं
यह उदासी भरे दिनों का मामला है
जिसमें तुम्हारा प्रेम भी
मुझे ऊर्जा नहीं दे पाता’

4. इमोजी

इमोजी कितना
आहिस्ता-आहिस्ता
प्रवेश कर गया है
हमारे जीवन में
कि हर बात उसी से कहते हैं
हँसना-रोना, सोना-जगना, खाना-पीना
और न जाने क्या-क्या?

इक्कीसवीं सदी का यह सबसे बड़ा सच है
जब हम सब अवसाद की चपेट में आ रहे हैं तब हमें पहले की तरह करीब आकर
सुनना चाहिए, समझना चाहिए एक-दूसरे को

इमोजी,
जो हर बात पर निकल आता है हमारे सामने उसने बना दिया है हमारे जीवन को इमोजी की तरह
आमने-सामने बैठने के बाद भी।

5. हम घास हैं

हम घास हैं
बहुत ही विनम्र रहते हैं हर समय
और तुम मतुआए हुए विप्र लोग
चाहे जितना रौंदो
वैसे जैसे-
तुमने हमारे पुरखों को रौंदा
मसल-मसल कर छोड़ दिया
यह तक नहीं सोचा
कि उनकी पीठ भी उतनी ही कोमल है
जितनी कि हमारी

तुम्हारी लाख कोशिशों के बाद भी
हमारे पुरखों की कमर नहीं टूटी
वे अपना जीवन मरघट की तरह बिताए
तुम्हारे बूटों तले दबने के बाद भी
वे हरी घास की तरह कोमल बने रहे

और हम भी वैसे ही हैं
उनके उत्तराधिकारी
जो हर समय तुम्हारे रौंदने के बाद भी
हरा, मुलायम बने रहते है

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