धर्मेन्द्र गुप्त ‘साहिल’ की सात ग़ज़लें

1
पेंटिंग- कौशलेश पांडेय
पेंटिंग- कौशलेश पांडेय

1

जग से रखता आसरा है
मन भी कितना बावरा है

कॉंपता है सारा जंगल
सिर्फ़ इक पत्ता झरा है

दे रहा हूँ सबको हिम्मत
मन तो मेरा भी डरा है

दोस्ती ही है गनीमत
प्यार में अब क्या धरा है

ये सियासत है यहाँ तो
जो है खोटा वो खरा है

2

सुनहरा उसका पैकर हो गया है
मगर एहसास पत्थर हो गया है

नये रस्ते पे मैं तनहा चला था
मगर अब साथ लश्कर हो गया है

लिखा हर ईंट पर है नाम जिसका
वो कैसे घर से बेघर हो गया है

कहीं तो आग पानी हो गयी है
कहीं तो फूल पत्थर हो गया है

भटकता था जो आवारा-सा कल तक
समय का वो सिकन्दर हो गया है

तुम्हारी याद चादर हो गयी है
तुम्हारा दर्द बिस्तर हो गया है

अभी आयी थीं गुलशन में बहारें
तो कैसे ज़र्द मंज़र हो गया है

दिये हैं आज को दुख-दर्द तो क्या
हमारा कल तो बेहतर हो गया है

3

बिन कहे सब कह रहा हूँ
मैं नदी-सा बह रहा हूँ

एक कथा की भूमिका में
इतने क़िस्से कह रहा हूँ

जंगलों की आग मुझमें
जिससे हर पल दह रहा हूँ

तुम पे है, मानो न मानो
सुन तो लो जो कह रहा हूँ

तुम ही आए राह मेरी
मैं तो अपनी रह रहा हूँ

वो ही बोले जा रहा है
मैं कहाँ कुछ कह रहा हूँ

4

मिलाएगा कोई नज़र धीरे-धीरे
क़रीब आएगा वो मगर धीरे-धीरे

यकीं हो तो होगी हर इक चाह पूरी
दुआओं में होगा असर धीरे-धीरे

ख़ुदा ऐसे चारागरों से बचाए
दवा में जो देते ज़हर धीरे-धीरे

किसी को न चिंता कि अब गॉंव, जंगल
हुए जा रहे हैं शहर धीरे-धीरे

तुझे मैं भुला दूॅं मुझे तू भुला दे
ये होगा तो मुमकिन मगर धीरे-धीरे

हुए जा रहे गीत छंदों से बाहर
ग़ज़ल हो रही बेबहर धीरे-धीरे

समाता ही जाता है हर दिल में ‘साहिल’
हक़ीक़त बयानी का डर धीरे-धीरे

पेंटिंग - अमित विजय
पेंटिंग – अमित विजय

5

कोई सुलझा दे मेरी ये उलझन
दोस्त किसको कहूँ किसको दुश्मन

आज तक चुन रहा हूँ मैं टुकड़े
एक मुद्दत हुई टूटे दरपन

दुश्मनों से हुई जब से यारी
कितने ही दोस्त हो बैठे दुश्मन

वक़्त के हाथ में है वो पारस
जो बनाता है इन्सॉं को कुन्दन

दे रहा था हमें फूल माली
ख़ुद हमीं ने न फैलाया दामन

ज़िंदगी तू हमें यूँ न उलझा
नाम रख देंगे हम तेरा उलझन

6

रंग सारे उड़ गये हैं
सब नज़ारे उड़ गये हैं

वक़्त की ऑंधी चली यूँ
सब सहारे उड़ गये हैं

रह गये हैं सिर्फ़ बकुले
हंस सारे उड़ गये हैं

बाढ़ यूँ रिश्तों की आयी
सब किनारे उड़ गये हैं

शिल्प ही है पास उनके
कथ्य सारे उड़ गये हैं

7

चुभन जी रहा हूँ, जलन जी रहा हूँ
मैं रिश्तों में हर पल घुटन जी रहा हूँ

नहीं अब किसी से भी परहेज़ मुझको
ज़माने का हर इक चलन जी रहा हूँ

थका हूँ परायों से, अपनों से, ख़ुद से
मैं हॅंस-हॅंसके सारी थकन जी रहा हूँ

किसी फूल पर भी नहीं मेरा हक़ है
मैं कहने को सारा चमन जी रहा हूँ

नहीं कुछ ख़बर राम-वनवास की है
मैं दशरथ के जैसा वचन जी रहा हूँ

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