संविधान का अंत:करण

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— ध्रुव शुक्ल —

देश के सर्वोच्च न्यायाधीश ने अपने किसी लेख में एक विचारणीय पद गढ़ा है – संविधान का अंत:करण। इस पर विचार करते हुए मेरा ध्यान मानव अंत:करण पर चला गया। दार्शनिकों ने मनुष्य के अंत:करण की पहचान चार करणों के रूप में की है – मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त।

देश के संविधान की उद्देशिका भी उसके अंत:करण को चार करणों से पहचानती है – समानता, न्याय,स्वतंत्रता,  और बंधुता।

जिस तरह किसी देश के नागरिकों के अंत:करण में अपने-अपने मन, बुद्धि और अहंकार के अनुसार उनकी चित्तदशा एकाग्र और विचलित होती रहती है और उनकी ज्ञानेन्द्रियां-कर्मेन्द्रियां व्यक्तिगत और सार्वजनिक व्यवहार करती हैं, ठीक उसी तरह संविधान के अंत:करण में स्थापित बंधुता का मूल्य ही नागरिकों का चित्त है। समानता नागरिकों का मन है। न्याय ही नागरिकों की बुद्धि है और स्वतंत्रता ही अहंकार है। लोकतंत्र में बंधुता पर नागरिकों की एकाग्रता ही समानता, न्याय और स्वतंत्रता को सॅंभाले रख सकती है।

नागरिकों के द्वारा बंधुता के मूल्य पर एकाग्रचित्त हुए बिना समानता, न्याय और स्वतंत्रता के मूल्य को केवल तात्कालिक राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक प्रबंधन के बाहरी आश्वासन से सॅंभाला नहीं जा सकता। क्योंकि इतनी बड़ी आबादी वाले देश में समानता का व्यवस्थापन करते हुए भी जीवन में अभावों के कई रूप दिखायी पड़ते हैं। कितना भी करो, लोगों का मन नहीं भरता और बराबरी की कोई एक कसौटी नहीं बन पाती और लोगों के कामनाओं से भरे अभावग्रस्त मन दिन-रात विचलित होते रहते हैं। स्वतंत्रता भी अराजक स्वच्छंदता में बदलने लगती है और एक-दूसरे के अहंकार आपस में टकराने लगते हैं। ऐसी हालत में न्याय बुद्धि को किसी समुचित निर्णय पर पहुंचने में बड़ी देर लग जाती है।

संविधान में समूचे देश का चित्त बंधुता ही है और उसकी मर्यादा अलिखित है। समानता, न्याय और स्वतंत्रता को लिखित प्रारूपों में व्याख्यायित जरूर किया गया है पर संविधान के रचनाकारों को यह चिन्ता बनी रही कि भले ही हम देश के लोगों को समानता, न्याय और स्वतंत्रता के नाम पर राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक न्याय देने का आश्वासन दे रहे हैं पर जब तक बंधुता के आंतरिक मूल्य पर देश का चित्त एकाग्र नहीं होगा तब तक देश के लोकतांत्रिक अंत:करण में उस सन्मति को जगह कैसे मिलेगी जो धर्म, मज़हब, जाति, वर्ण, कुल, कौम, संप्रदाय आदि से निरपेक्ष होकर एक बड़ी बहुविश्वासी इंसानी बिरादरी को बंधुता की अलिखित मर्यादा की प्रतीति में ले आती है। सहज और शान्त जीवन बंधुता के बिना संभव नहीं।

जब देश के जीवन में विभेदकारी मतान्धता राजनीतिक दलों और सामाजिक कार्य-व्यवहार में परिलक्षित हो रही है और नागरिकों का मन स्वार्थपूर्ण अधिकारों की होड़ में विभाजित करके विचलित किया जा रहा है तब संविधान के अंत:करण में बसी बंधुता के मूल्य पर एकाग्र होने के लिए किसी बड़े देशव्यापी चित्तवृत्ति निरोध अभियान की जरूरत होगी। क्या लोकहित में हमारे वर्तमान धर्म पीठ, शिक्षा के संस्थान, राजनीतिक दल, सामाजिक संगठन और देश के परिवारजन इस सत्याग्रह के लिए मानसिक रूप से कोई तैयारी कर पा रहे हैं?

किसी कानूनविद ने संविधान की उसी उद्देशिका को पुनर्परिभाषित करने का प्रस्ताव किया है जिसमें समानता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुता के मूल्य उकेरे गये हैं। ये मूल्य संविधान में भली प्रकार परिभाषित हैं और संविधान के रचनाकार पहले ही चेता गये हैं कि केवल संविधान लिख देने से लोकतंत्र का फल तब तक नहीं आएगा जब तक लोगों द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि और खुद लोग देश के जीवन में उसके प्रति अपनी व्यावहारिक योग्यता प्रमाणित नहीं करेंगे। प्रश्न संविधान को फिर से परिभाषित करने का नहीं है। वास्तविक प्रश्न तो यह है कि हम भारत के लोग अपने मन, अहंकार, बुद्धि और चित्त को समानता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुता की  कसौटी पर कैसे प्रमाणित करें? विधि-विधान बदलने से किसी का जीवन नहीं बदलता, सब एक-दूसरे से दूर बने रहते हैं। देश के जीवन में साधन और साध्य के प्रति सद्भावपूर्ण कर्मकुशलता ही लोगों को परस्पर आश्रय का बोध करवाती है। यह बोध ही बंधुता का आधार है।

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