महॅंगाई से सिकुड़ता भारत का मध्यवर्ग

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— डॉ. लखन चौधरी —

आस्कर वाइल्ड ने बहुत सही कहा है कि ‘प्रजातंत्र का सीधा सादा अर्थ है कि प्रजा के डंडे को प्रजा के लिए, प्रजा की पीठ पर तोड़ना।’ इस समय सरकार के कामकाज से यही चरितार्थ होता दीखता है। सरकार राष्ट्र निर्माण का भार मध्यम वर्ग के कंधे पर डाल कर जहां अपनी जिम्मेवारी से बचना चाहती है, वहीं अपनी जायज, जरूरी एवं सार्थक भूमिका में भी नदारद दीखती है।
देश के पचास करोड़ से उपर मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए ’कोविड महामारी’ एक नई संकट, नई त्रासदी का सबब बनती जा रही है। ’महंगाई’ के रूप में एक नई मुसीबत बन कर मध्यमवर्गीय परिवारों के सामने जीवन-यापन की नई-नई चुनौतियां खड़ी कर चुकी है। कोरोना कालखण्ड की महंगाई न सिर्फ मध्यमवर्गीय परिवारों की आर्थिक स्थिति को खोखला कर रही है, बल्कि इन करोड़ों मध्यमवर्गीय परिवारों का ’मध्यमवर्गीय दर्जा’ ही खत्म कर चुकी है।
नये-नये अनुसंधान बता रहे हैं कि कोरोना कालखण्ड में उपजी महंगाई की मार से देश के एक-तिहाई मध्यमवर्गीय परिवार ’मध्यमवर्ग से निम्नवर्ग’ में शिफ्ट हो चुके हैं। इससे भी ताज्जुब की बात यह है कि कोविड कालखण्ड से निकलने के बावजूद महंगाई की समस्या कम होती नजर नहीं आ रही है।
यदि ऐसा है तो मध्यम वर्ग को सरकार से शिकवा-शिकायत नहीं करना चाहिए? आखिरकार सरकार ने राष्ट्र निर्माण जैसे महान कार्यों की जिम्मेदारी मध्यम वर्ग के कंधे पर डाला है, तो इसके पीछे कोई सोची-समझी वजह होगी? सरकार की इस सोची-समझी वजह को विपक्ष यदि मध्यम वर्ग की चुप्पी समझ रहा है तो शायद यह सही नहीं है?
मध्यमवर्ग की चेतना कोरोना महामारी के बाद भी यदि जाग नहीं पा रही है तो इसकी भी कोई वजह होगी। रोजी-रोटी की जद्दोजहद से जनता बाहर निकले, तभी कुछ सोच-समझ पाएगी। अभी तो स्थिति यह है कि जनता रोजी-रोटी, दवाई-इलाज एवं महंगाई जैसी रोजमर्रा की चुनौतियों से ही बाहर निकल नहीं पा रही है। फिर जनचेतना कहां से आएगी?
मजे की बात यह है कि सरकार यही तो चाहती है, जनता रोजमर्रा की इसी जद्दोजहद में फंसी रहे। सरकार ने 80-85 करोड़ लोगों को लाभार्थी बनाकर इस कुचक्र या दुश्चक्र को और गहरा बना दिया है।
विश्व की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी का दंभ भरने वाले दल की सरकार अब ‘जनहित’ जैसे सरोकारों से अपना वास्ता अलग कर चुकी है। अब पार्टी की प्राथमिकता राष्ट्रहित, देशहित से पहले पार्टी हित है, वरना रोज इस तरह के गैरजरूरी, अतार्किक एवं अनैतिक निर्णय नहीं लिये जाते। गांधी-नेहरू की तुलना एवं नेहरू-गांधी परिवार के नाम पर देश में निरर्थक बहसबाजी के बहाने जनमानस को गुमराह करने के प्रयास नहीं होते।
देश के जिस मध्यमवर्ग ने इस दल को इतना बड़ा विशाल जनादेश दिया उसे ही खत्म करके सरकार क्या करना चाहती है? आज शायद इस सरकार को ही मालूम नहीं है।
शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, बिजली, सड़क, पानी, सुरक्षा जैसे बुनियादी मसलों पर काम करने के लिए सरकार बनाई जाती है। मंदिर-मस्जिद, गाय, गोबर, गौमूत्र, तीन तलाक, स्वदेशी, चीन-पाक, सर्जिकल स्ट्राइक, धर्म-जाति जैसे मसलों को हवा देकर सियासत करते रहने के लिए नहीं। 
विकास की रोज नई-नई बेतुकी परिभाषा गढ़ कर विकास यात्राएं निकालने से तरक्की एवं प्रगति नहीं होती है। विकास के नाम पर तमाम तरह के दिखावे, प्रदर्शन किये जा रहे हैं। विकास को समझाने, दिखाने एवं बताने के लिए हजारों करोड़ के विज्ञापन दिये जा रहे हैं। जनता के खूनपसीने की कमाई आयकर के पैसे को फिजूलखर्ची में बर्बाद किया जा रहा है।
याद रहे, विकास के एजेंडे पर काम करने के लिए ठोस नीतियों, कार्यक्रमों, योजनाओं एवं सच्ची नियत की जरूरत होती है, जो इस वक्त इस सरकार के पास दिखती नहीं है।
आस्कर वाइल्ड ने बहुत सही कहा है कि ’प्रजातंत्र का सीधा सादा अर्थ है कि प्रजा के डंडे को प्रजा के लिए, प्रजा की पीठ पर तोड़ना।’ इस समय सरकार के कामकाज से यही चरितार्थ होता दीखता है। सरकार राष्ट्र निर्माण का भार मध्यमवर्ग के कंधे पर डालकर जहां अपनी जिम्मेवारी से बचना चाहती है, वहीं अपनी जायज, जरूरी एवं सार्थक भूमिका में भी नदारद दीखती है।

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