नियम वही जो सरकार चाहे

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पेंटिंग : बिमल दासगुप्त
पेंटिंग : बिमल दासगुप्त

— विवेक मेहता —

मेशा की तरह लाश राजा के कंधे पर थी और बैताल का किस्सा चालू हो गया –
“उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि राजधानी की ब्रांच संभालते ही ये दिन देखने पड़ेंगे! मेहनत, ईमानदारी, कर्तव्य पालन करते हुए छोटे से गांव से, गरीबी से लड़ते हुए उन्नति की सीढ़ियां चढ़ते-चढ़ते वे राजधानी के बैंक में चीफ मैनेजर की पोस्ट तक पहुंचे थे।

अभी कुछ दिन दिनों पहले ही ब्रांच का चार्ज संभाला था। आज उनके सामने लोन की एक फाइल आ गई। उन्होंने फाइल देखी। पेपर देखे। गड़बड़ लगी तो संबंधित अधिकारी से पुन: मामले को गहराई से देखने का निर्देश दिया। उसी शाम जिसकी फाइल पर उन्होंने पुनः विचार का आदेश दिया था उसका फोन आया। बातों में लिपटा रिश्वत का ऑफर साफ झलक रहा था। संतुलित शब्दों में उन्होंने उत्तर दिया- “यदि आपका काम नियमानुसार है तो आपका लोन कौन रोक सकता है?”

दूसरे दिन वह समय पर बैंक पहुंचे। अपने काम में व्यस्त हो गए। फोन की घंटी बजी। वित्त मंत्रालय से फोन था। ज्वाइंट सेक्रेटरी ने दोपहर में 12 बजे मिलने के लिए आदेश दिया था। घड़ी देखी। घंटाभर तो पहुंचने में लग जाएगा। उन्होंने सहयोगी को बुलाया। स्थिति समझाई और निकल पड़े। वित्त मंत्रालय की बिल्डिंग पहुंचकर घड़ी देखी। समय से कुछ ही मिनट पहले पहुंच गए थे। वॉशरूम में पहुंचे। बालों को संवारा। टाई की नाट ठीक की। पूछते हुए ज्वाइंट सेक्रेटरी के ऑफिस के बाहर बैठे चपरासी को अपना विजिटिंग कार्ड थमाकर फिर से नाट ठीक की। कुछ देर में चपरासी लौटा। बोला- “बैठिए, बुलाते हैं।”

घड़ी के कांटे दौड़ते रहे। कुछ देर बाद दरवाजा खुला। कुछ लोग हंसी-मजाक करते हुए बाहर निकल गए। वह इंतजार करते रहे। बुलावा नहीं आया तो चपरासी को ढूंढ़ कर साहब के बारे में पूछा। उसने बतलाया- “लंच पर गए हैं। घंटे भर में लौटेंगे। तब तक आप भी अपना कुछ देख लो।”

इस बीच ऑफिस से, हेड ऑफिस से काम के संबंध में मोबाइल बजता रहा। जरूरी काम था। परंतु करते क्या? परेशान होने के सिवा! घड़ी के कांटे अब धीरे-धीरे रेंग रहे थे। मुश्किल से समय बीत रहा था। फिर साहब किसी के साथ लौटे। उन्होंने चपरासी को याद दिलाने की बोला। लौटकर उसने सूचित किया- “बैठिए, बुलाते हैं।” क्षण भर के लिए खुले दरवाजे से आते ठहाकों को सुनकर वह मन मसोस कर बैठ गए। आधे घंटे के बाद उनका बुलावा आया। वह नाट ठीक करते हुए अंदर गए। साहब फाइलों पर झुके हुए थे। उनके विश का कोई जवाब नहीं दिया। ना बैठने की बोला। सीधा सवाल दाग दिया- “श्री…… को लोन के मामले में क्यों परेशान कर रहे हो? उनका काम क्यों नहीं हो रहा?”
“सर, लोन के पेपर बराबर……”
उनकी बात को बीच में काट कर ही वे बोले- “मैं नहीं जानता। ऊपर से आदेश है। काम निपटाओ। तुम्हारे चेयरमैन से बात करने की आवश्यकता नहीं पड़े।”
“सर, मगर पेपर…..”
“वह तुम जानो। नहीं तो घर पर बैठने की तैयारी कर लो। दो-तीन दिन में काम हो जाना चाहिए।” कह कर घंटी बजा दी।

इशारा था- निकल जाओ।”- राजा के कंधे पर लदी लाश में छिपे बेताल ने कहानी समाप्त कर प्रश्न दाग दिया – “नियमानुसार काम करने के बाद भी एक अधिकारी को दूसरा अधिकारी क्यों बेइज्जत कर रहा था? इस सवाल का जवाब जानते हुए भी नहीं दोगे तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जाएंगे।”

“कहने को तो लोकतंत्र, संविधान और नियमों के अनुसार चलता है। परंतु सत्ता पर बैठा व्यक्ति मानसिक तौर पर राजा ही होता है। यार-दोस्त, सहयोगियों का साथ देना उसकी मजबूरी होती है। नियमों को देखना और कब अपने नियमों को थोपना यही सत्ता का कार्य होता है। अगले चुनाव के लिए पैसों की व्यवस्था करना और अपने सात पीढ़ियों को तारना उसकी मजबूरी होती है। दूसरा अधिकारी भी नियमानुसार ही काम कर रहा था- अपने ऊपरवालों के नियमों के अनुसार! लोग, लोन लेकर डकार जाएं। बैंकों को नुकसान हो। जनता का पैसा डूबे इससे देश की खरबों रुपए की अर्थव्यवस्था को कोई फर्क नहीं पड़ता। मगर ऊपरवाले के नियम नहीं मानने पर उसकी नौकरी खतरे में पड़ जाती है। इसका ध्यान रखना उसकी मजबूरी होती है। नौकरी करने वाला नौकर ही होता है। और नौकर की इज्जत कौन करता है!”- कह कर राजा चुप हो गया।

बैताल लाश को लेकर हमेशा की तरह श्मशान के पेड़ पर जाकर लटक गया।

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