— श्रवण गर्ग —
देश का कामकाज हकीकत में कौन चला रहा है? क्या सवाल के एक से ज्यादा जवाब हो सकते हैं? एक सामान्य नागरिक का उत्तर यह हो सकता है कि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री हैं और देश वे ही चला रहे हैं। भाजपा का कोई अंदरूनी नेता गोलमाल जवाब भी दे सकता है कि प्रधानमंत्री की अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में भूमिका लगातार बढ़ रही हैं अतः चुनाव-प्रबंधन सहित ज्यादातर कामकाज अमित शाह निपटा रहे हैं। संघ का कोई भी जिम्मेदार व्यक्ति इस संवेदनशील मुद्दे पर शायद कुछ बोलना ही नहीं चाहे !
सवाल की जड़ में राहुल गांधी द्वारा लगाया गया एक गंभीर आरोप है। सरकार के खिलाफ पेश हुए अविश्वास प्रस्ताव पर बोलते हुए राहुल गांधी ने नौ अगस्त को लोकसभा में एक महत्त्वपूर्ण या चिंता करने जैसी बात कह दी थी। उन्होंने जो कहा उसे न तो मीडिया में प्रमुखता से जगह दी गई और न ही उस पर कोई ‘दंगल’ करवाए गए ! राहुल गांधी के हर कहे पर तीखी टिप्पणियाँ करने वाले सत्तारूढ़ दल के वाचाल प्रवक्ताओं ने भी उनके द्वारा लगाए गए आक्षेप का कोई संज्ञान नहीं लिया, उसे नजरअंदाज ही किया।
राहुल गांधी ने लोकसभा में आरोप लगाया था कि प्रधानमंत्री सिर्फ दो लोगों की बात सुनते हैं—एक अमित शाह और दूसरे गौतम अदाणी, जैसे रावण सिर्फ दो लोगों की सलाह लेता था – मेघनाद और कुंभकर्ण। भाषण के दौरान राहुल गांधी ने एक बड़ा फोटो भी दिखाया जिसमें प्रधानमंत्री कथित तौर पर अदाणी के साथ एक विमान में बैठे नजर आ रहे हैं।
उल्लेखनीय है कि राष्ट्रपति के अभिभाषण पर हुई बहस के दौरान सात फरवरी को दिए गए राहुल गांधी के बहु-चर्चित और विवादास्पद भाषण के केंद्र में सिर्फ अदाणी और उन्हें लेकर प्रधानमंत्री से पूछे गए सवाल ही थे। अमित शाह को लेकर राहुल गांधी ने तब न तो कोई चर्चा की थी और न ही आक्षेप लगाया था। कयास ही लगाया जा सकता है कि पिछले पाँच-छह महीनों के दौरान देश में घटी घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में ही राहुल गांधी ने अमित शाह की भूमिका को लेकर सवाल खड़ा किया होगा !
मुद्दा यहाँ अदाणी नहीं है। मुद्दा इस आक्षेप की सत्यता के विश्लेषण का है कि क्या प्रधानमंत्री सिर्फ अमित शाह की ही सुनते हैं या फिर अपने सभी मंत्रिमंडलीय सहयोगियों की सलाह पर महत्त्वपूर्ण फैसले लेते हैं? दो साल पहले संसद टीवी के साथ एक साक्षात्कार में अमित शाह ने इस तरह की चर्चाओं को निराधार बताते हुए कि प्रधानमंत्री निरंकुश या तानाशाह हैं दावा किया था कि : ‘मोदी सभी लोगों की बात धैर्यपूर्वक सुनने के बाद ही फैसले लेते हैं। दशकों के लंबे जुड़ाव के दौरान नरेंद्र मोदी जैसा कोई श्रोता उन्होंने नहीं देखा। एक छोटे से छोटे कार्यकर्ता की बात भी वे धैर्य से सुनते हैं, शाह ने दावा किया था।
सवाल यह है कि क्या राहुल गांधी के कहे पर गौर करने के कोई निश्चित कारण भी गिनाए जा सकते हैं? केंद्र के कामकाज पर नजर रखने वाले एक वर्ग का मानना है कि संसद में विधेयकों के सफल प्रस्तुतीकरण और चुनाव प्रबंधन सहित हाल के महीनों में जिस तरह की घटनाएँ हुईं हैं, अमित शाह एक नए और मुखर अवतार में प्रकट हुए हैं। सरकार और पार्टी के कामकाज में उनका प्रभाव और अधिकार-क्षेत्र लगातार बढ़ता हुआ नजर आता है। अविश्वास प्रस्ताव पर अत्यंत विश्वासपूर्वक दिया गया उनका दो घंटे का भाषण बिना किसी उत्तेजना या क्रोध के था। भाषण की तारीफ मीडिया के उस वर्ग द्वारा भी की गई जो घोषित तौर पर तो सत्ता प्रतिष्ठान के साथ खड़ा नहीं दीखता पर अघोषित तौर पर उसकी विश्वसनीयता भी पर्याप्त संदिग्ध है।
इस बात को नकारने का कोई कारण नजर नहीं आता कि नौ अगस्त के दिन सदन में अनुपस्थित होते हुए भी प्रधानमंत्री ने अपने अत्यंत विश्वसनीय गृहमंत्री के मुँह से डेढ़ घंटे तक की गई अपनी (मोदी की) उपलब्धियों का बखान अवश्य सुना होगा। इस गुणगान में यह भी शामिल था कि : नरेंद्र मोदी आजादी के बाद के सबसे लोकप्रिय प्रधानमंत्री हैं। एक भी छुट्टी लिये बगैर सत्रह घंटे काम करने वाले नरेंद्र मोदी ने पिछले नौ सालों में पचास से ज्यादा युगांतरकारी फैसले लिये हैं।
तिहत्तर-वर्षीय प्रधानमंत्री जब अपने उदबोधनों में 2027, 2028 और 2047 तक की योजनाओं की बात इतने आत्मविश्वास से करते हैं तो क्या मान लिया जाए कि 2014 जैसी सरकार-विरोधी लहर की देश में उपस्थिति के बावजूद ऐसे कोई अज्ञात कारण हैं कि 2024 में सत्ता विपक्ष के हाथों में नहीं जा पाएगी? क्या इन अज्ञात कारणों के चलते ही आने वाले समय को लेकर मोदी ने चार दशकों से अधिक समय के अपने विश्वसनीय सहयोगी अमित शाह को नई जिम्मेदारियों के लिए तैयार करना प्रारंभ कर दिया है? क्या देश किसी बड़े परिवर्तन के कगार पर पहुँच रहा है?
राहुल गांधी के आक्षेप के परिप्रेक्ष्य में समूचे घटनाक्रम का विश्लेषण करना हो तो अमित शाह के अचानक से मुख्य भूमिका में ‘दिखाई पड़ने’ के पीछे दूसरा कारण क्या यह माना जा सकता है कि आपातकाल-पूर्व की परिस्थितियों की तरह ही केंद्र में कोई संविधानेतर सत्ता आकार लेने जा रही है?
तीसरे और अंतिम कारण के तौर पर अमित शाह को लाइम लाइट में लाने की कवायद का संबंध 2024 के चुनावों में बहुमत प्राप्त नहीं हो पाने की स्थिति में पार्टी पर आधिकारिक नियंत्रण वर्तमान नेतृत्व के हाथों में ही सुनिश्चित करने के इरादों के साथ भी जोड़ा जा सकता है ! यानी ‘मोदी के बाद कौन?’ की अटकलों पर अभी से पूर्ण विराम लगा दिया जाए। लोकसभा चुनावों को लेकर प्राप्त हो रहे (निष्पक्ष) सर्वेक्षणों के रुझान यही दर्शाते हैं कि एनडीए को बहुमत प्राप्त नहीं होने वाला है। उस स्थिति में भाजपा के भीतर नेतृत्व के उत्तराधिकार को लेकर चलने वाले संघर्ष की आशंकाओं को भी खारिज नहीं किया जा सकता। कहा जाता है उसकी रिहर्सल प्रारंभ हो चुकी है !
अमित शाह के बढ़ते राजनीतिक वर्चस्व को लेकर राहुल गांधी के आक्षेप का निहितार्थ यही समझा जा सकता है कि प्रधानमंत्री और गृहमंत्री दो अलग-अलग सत्ताएँ नहीं हैं ! एक ही हैं। राहुल गांधी जान गए हैं कि आने वाले समय में INDIA की असली लड़ाई मोदी से नहीं बल्कि अमित शाह से होने वाली है!