— अभिनव कुमार —
31 अगस्त। केंद्र सरकार द्वारा महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के लिए जारी आधार-आधारित भुगतान प्रणाली के आदेश के बाद से मजदूरों में बेहद अफरातफरी के हालात बन गए हैं।
इसके साथ ही 1 सितंबर से आधार-आधारित भुगतान प्रणाली अनिवार्य होने के बाद मजदूरों को भुगतान कैसे किया जाएगा, इसको लेकर भी स्पष्टता का अभाव दीख रहा है।
सरकारी आकंड़ों के मुताबिक महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के तहत 14 करोड़ सक्रिय मजदूरों में से लगभग 20 फीसदी अभी तक आधार-आधारित भुगतान प्रणाली (एबीपीएस) के तहत मजदूरी पाने के लिए अयोग्य ठहरा दिए गए हैं।
योजना की वेबसाइट पर सोमवार (28 अगस्त) को प्राप्त आंकड़ों में कहा गया है कि वर्तमान में कुल 14,34,26,231 (14.3 करोड़) सक्रिय श्रमिकों में से 11,72,40,317 (11.7 करोड़) सक्रिय श्रमिक एबीपीएस के तहत भुगतान किए जाने के पात्र हैं।
सरकारी अधिकारियों का कहना है कि 1 सितम्बर से एबीपीएस लागू कर दिया जाएगा और आंकड़े बता रहे हैं कि इसके लागू होने के बाद करीब 2,61,85,914 (2.6 करोड़ या 18%) सक्रिय मजदूर ऐसे हैं जो एबीपीएस के तहत भुगतान पाने के लिए अयोग्य करार दिए गए हैं।
मनरेगा की वेबसाइट बताती हैं कि सक्रिय मजदूर उन मजदूरों को माना जाएगा जिनके परिवार का कोई भी व्यक्ति जिसने पिछले तीन वित्तीय वर्षों में या वर्तमान वित्तीय वर्ष में किसी भी एक दिन काम किया है।
इसके साथ ही ये भी जानकारी दी गई है कि इस योजना के तहत मजदूरों को 15 दिनों के भीतर उनकी मजदूरी का भुगतान कर दिया जाना चाहिए भले ही उन्होंने एक ही दिन काम क्यों न किया हो। सरकार अगर इसमें विफल होती है तो मजदूर अतिरिक्त मुआवजे के हकदार होंगे।
केंद्र सरकार के द्वारा आधार-आधारित भुगतान प्रणाली के अनिवार्य कर देने के आदेश के बाद यह स्पष्ट नहीं हुआ है कि आने वाले दिनों में भुगतान के लिए अयोग्य करार दिए गए मजदूरों को उनके काम के लिए कैसे मेहनताना दिया जाएगा।
जो भी व्यक्ति काम की मांग करता है, उसे काम मिलना चाहिए
मनरेगा संघर्ष मोर्चा के कार्यकर्ता निखिल डे ने मीडिया से बात करते हुए बताया कि “सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 14 करोड़ से अधिक मजदूरों में से 20 प्रतिशत अभी भी एबीपीएस के माध्यम से भुगतान के लिए पात्र नहीं हैं। यह एक बड़ी संख्या है। मनरेगा के अनुसार मजदूरी के भुगतान को रोकना अवैध है। 2005 का अधिनियम कहता है कि जो भी व्यक्ति काम की मांग करता है, उसे काम मिलना चाहिए।”
उन्होंने आगे बताया कि “जिन भी मजदूरों को अयोग्य ठहराया जा रहा है, इस पूरी प्रक्रिया में उनकी थोड़ी भी गलती नहीं है इसके बावजूद उनके काम के अधिकार का हनन किया जा रहा है। इस पूरी प्रक्रिया की एक सबसे बड़ी समस्या ये है, कि यदि एक व्यक्ति एबीपीएस भुगतान के लिए पात्र नहीं है, तो पूरे मस्टर रोल (जिसमें 10 लोग होते हैं) का भुगतान प्रभावित होगा। भुगतान एक लेन-देन में सभी 10 के लिए जारी किया जाता है।”
आंकड़े बताते हैं कि कई राज्यों में तो उनके सक्रिय मनरेगा मजदूरों में से एक चौथाई अभी भी एबीपीएस के तहत भुगतान प्राप्त करने के लिए अयोग्य हैं। उदाहरण के लिए असम राज्य सरकार के दिए आंकड़े बताते हैं कि सक्रिय मजदूरों का केवल 39% इस नए सिस्टम के तहत अपनी मजदूरी प्राप्त करने में सक्षम होंगे।
मनरेगा के तहत पंजीकृत गैर-सक्रिय श्रमिक भी इस योजना के तहत काम करने के हकदार हैं। ऐसे में जब ऐसे मजदूरों का हिसाब रखा जाता है, तो प्रत्येक राज्य में एबीपीएस के लिए पात्र श्रमिकों की कुल संख्या और कम हो जाती है।
सार्वजनिक सेवा वितरण कंपनी लिबटेक इंडिया के एक कर्मचारी लावण्या तमांग ने न्यू इंडियन एक्सप्रेस को बताया कि “गैर-सक्रिय मजदूरों की अनदेखी करके सरकार उनके काम करने के संवैधानिक अधिकार को कम कर रही है।”
किसी भी मनरेगा मजदूर को एबीपीएस के तहत पात्र होने के लिए, उनके जॉब कार्ड और बैंक खाते को उनके आधार के साथ जोड़ा जाना चाहिए। इसके साथ ही उनका बैंक खाता भारतीय राष्ट्रीय भुगतान निगम (एनपीसीआई) के मैपर से भी जुड़ा होना चाहिए।
जबकि अधिकांश राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में 28 अगस्त तक उनके 90% सक्रिय मजदूरों के आधार-विवरण उनके जॉब कार्ड के साथ जुड़े हुए हैं। असम, नागालैंड और मेघालय में क्रमशः केवल 75%, 45% और 33% सीडिंग हुई है।
एबीपीएस के आलोचकों का कहना है कि आधार-आधारित भुगतान प्रणाली की पूरी प्रक्रिया अत्यधिक बोझिल है और यह ग्रामीण लाभार्थियों को मनरेगा के तहत काम मांगने से रोक सकती है।
जानबूझ कर बनाया जा रहा है जटिल
मनरेगा मजदूरों के बीच काम करने वाले कई सामाजिक कार्यकर्ताओं ने बताया कि “बैंक खाते की सीडिंग और मैपिंग करना बहुत ही बोझिल काम है। इसमें कड़े केवाईसी आवश्यकताएं, बायोमेट्रिक या जनसांख्यिकीय प्रमाणीकरण और आधार डेटाबेस तथा बैंक खाते के बीच संभावित विसंगतियों को हल करना शामिल है। इनमें किसी भी तरह की गड़बड़ी के बाद मजदूरों के लिए उसमें सुधार करवा पाना बहुत ही मुश्किल काम हो जाता है,काम छोड़ कर उनके लिए इन सब को समय दे पाना संभव नहीं है।”
अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज ने ‘द वायर’ से बात करते हुए कहा कि “बैंक खाते की सीडिंग और मैपिंग, इन दोनों में से किसी एक और जॉब कार्ड के बीच विसंगतियां मनरेगा मजदूरी के आधार-आधारित भुगतान के लिए समस्याएं पैदा कर सकती हैं।”
मालूम हो कि केंद्र सरकार ने पहले कहा था कि एबीपीएस इस साल 1 फरवरी से अनिवार्य हो जाएगी, लेकिन तब से लगातार इसकी समय सीमा कई बार बढ़ाई गई है।
लिबटेक इंडिया के नीति विश्लेषक चक्रधर बुद्ध ने मीडिया से बात करते हुए कहा, “मजदूर अपने दस्तावेजों के बेमेल होने से तब तक वाकिफ नहीं होते जब तक कि वो अपने कार्य स्थल पर न पहुँच जाएँ। मजदूरों के नाम की वर्तनी में एक साधारण अंतर या गलत लिंग उनके जॉब कार्ड को उनके आधार कार्ड के साथ सफलतापूर्वक प्रमाणित नहीं कर पाता, जिसके बाद उनको अयोग्य करार दिया जाता है।”
इस साल फरवरी से कई समय सीमा विस्तार के बाद समाचार एजेंसी पीटीआई ने पिछले हफ्ते सरकारी सूत्रों के हवाले से बताया कि 1 सितंबर की समय सीमा को अब आगे नहीं बढ़ाया जाएगा।
नए श्रम कानून के नाम पर मजदूरों को पंगु बनाने से लेकर मनरेगा जैसी योजना को कमजोर किया जाना कहीं न कहीं ये इशारा देता है कि सरकार द्वारा कारपोरेट घरानों तक सस्ता श्रम पहुँचाने की पुरजोर कोशिश की जा रही है। योजना को सीधे-सीधे खत्म न कर के उसे जटिल बनाया जा रहा है।
(workersunity. com से साभार)