— नारायण देसाई —
आश्रम की चार सामुदायिक गतिविधियों में सर्वाधिक विधि-विधान से संपन्न होने वाली गतिविधि थी सामूहिक प्रार्थना। सुबह और शाम होने वाली नियमित प्रार्थना के अलावा हर बार भोजन से पहले ईश-वंदना होती थी। विशेष अवसरों पर विशेष प्रार्थना होती और हर सभा या समारोह की शुरुआत प्रार्थना से की जाती थी। सामुदायिक प्रार्थना में आश्रम के लोग रोज शामिल होते और जब-तब आगंतुक भी उसमें शरीक हो जाते। गांधी सबके संमुख बीच में बैठते और आश्रम के बाकी लोग स्त्रियों और पुरुषों के दो अलग-अलग समूह में। कोई एक व्यक्ति प्रार्थना को आगे-आगे गाता, जोकि संगीत में प्रशिक्षित होता। साबरमती आश्रम में पंडित नारायण मोरेश्वर खरे इस काम में अगुआ होते। वे एक दक्ष संगीतज्ञ थे और आश्रम के निष्ठावान वरिष्ठ सदस्य। आश्रम के लिए उनकी सेवाएं गांधी ने उनके गुरु पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर के जरिए प्राप्त की थीं, जोकि भारत में शास्त्रीय संगीत के पुनर्जागरण के दो अग्रणी संगीतज्ञों में एक थे। पंडित पलुस्कर ने खरे को सोच-समझ कर चुना था, क्योंकि वे निजी तौर पर जानते थे कि खरे चारित्रिक दृढ़ता और समर्पण से बने हैं, संगीत की अव्वल जर्दे की प्रतिभा तो उनमें थी ही। आश्रम बदले तो प्रार्थनाओं के कथ्य को भी बदले, अलबत्ता कुछ बातें स्थायी रहीं और कुछ समय की जरूरत के हिसाब से जुड़ गईं।
भगवद्गीता के दूसरे अध्याय के अंतिम अठारह श्लोक हमेशा शाम की प्रार्थना का हिस्सा बने रहे। ये श्लोक स्थितप्रज्ञ के लक्षण बताते हैं। गीता ने अपने पाठकों के समक्ष जो चार या पांच आदर्श रखे हैं, स्थितप्रज्ञता उनमें शामिल है। गांधी ने लंदन के अपने विद्यार्थी जीवन के दिनों में जब पहली बार गीता पढ़ी थी तभी से वे इसकी तरफ आकर्षित थे। गांधी ने अपने जीवन में स्थितप्रज्ञ के गुणों को उतारने के लिए घोर प्रयास किए। जवाहरलाल नेहरू हालांकि गांधी की तरह पक्के आस्तिक नहीं थे, पर आश्रम की प्रार्थना का यह अंश उन्हें पसंद आया था। विनोबा मानते थे कि नेतृत्व के लिए स्थितप्रज्ञ के गुण इतिहास के किसी भी अन्य दौर की अपेक्षा आज कही ज्यादा प्रासंगिक हैं, क्योंकि आज हथियारों का ऐसा अपूर्व विनाशकारी भंडार जमा हो गया है जो पूरी मानवता को समाप्त कर सकता है।
हालांकि साबरमती आश्रम में होने वाली प्रार्थनाओं के पद मुख्य रूप से हिंदू धर्मग्रंथों से लिए गए थे, पर सेवाग्राम में होने वाली प्रार्थनाओं के अंश भारत में प्रचलित सभी प्रमुख धर्मों से चुने गए। ‘रघुपति राघव राजाराम, पतित पावन सीताराम’ नमक सत्याग्रह के दौरान सार्वजनिक प्रार्थनाओं में गाया जाता था। मेरा ख्याल है कि उसके बाद ही यह देशभर में लोकप्रिय हुआ। बाद में इसमें दो पंक्तियां और जोड़ी गईं – ‘ईश्वर अल्ला तेरे नाम, सबको सन्मति दे भगवान।’ इन पंक्तियों ने अपना महत्व तब और पा लिया जब सांप्रदायिक सौहार्द के लिए गांधी बिहार और नोआखली के दौरे पर गए।
आश्रम-स्थल के चुनाव में जमीन की उपलब्धता के अलावा कुछ योजना भी थी। गांधी ने अपना पहला आश्रम अहमदाबाद के निकट स्थापित किया, गुजरात के केंद्र में, क्योंकि वे सोचते थे कि अपने लोगों की अच्छी से अच्छी सेवा वे अपनी भाषा के माध्यम से ही कर सकते हैं। साबरमती आश्रम के लिए चुनी गई जमीन बहुत उपजाऊ नहीं थी। यही नहीं, यह जमीन कंटीली झाड़ियों से पटी हुई थी, जहां काफी बिच्छू और सांप विचरते रहते थे, क्यों यह जगह लंबे समय से उजाड़ पड़ी थी। यह पूरी जमीन आश्रम की पहल करने वाले लोगों ने अपने श्रम से विकसित की, और इनमें गांधी भी सपत्नीक शामिल थे, जैसाकि दक्षिण अफ्रीका में वे कर चुके थे। गांधी अकसर इस तथ्य का उल्लेखकरते कि आश्रम के एक तरफ अहमदाबाद सेंट्रल जेल है और दूसरी तरफ अहमदाबाद का श्मशान घाट। गांधी की टिप्पणी होती कि ‘आश्रम का स्थान अपने आप में ऐसा है कि वह आश्रमवासियों के मन से जेल या मौत का भय भगा देगा!’
सेवाग्राम आश्रम की जगह इस खयाल से चुनी गई थी कि गांधी भारत के एक ठेठ गांव में बसना चाहते थे। सेगांव, जो कि वहां का मूल नाम था, अपनी गरीबी, निरक्षरता और साफ-सफाई के अभाव के चलते भारत के तमाम गांवों का प्रतिनिधित्व करता था। इस चयन में एक सुविधाजनक पहलू यह था कि सेगांव सेठ जमनालाल बजाज की मालगुजारी मिल्कियत में आता था, जोकि खुद को गांधी का पांचवां पुत्र मानते थे। लिहाजा, यहां कुछ बेकार पड़ी हुई जमीन पाने में कोई कठिनाई नहीं थी।
गांधी ने साबरमती आश्रम छोड़ दिया, इस प्रतिज्ञा के साथ कि स्वाधीनता-प्राप्ति से पहले वापस नहीं आएंगे। अलबत्ता आजादी मिलने के बाद भी, परिस्थितियों ने उन्हें साबरमती आश्रम लौटने नहीं दिया। यह मान लिया गया था कि आंदोलन जब परवान पर होगा, सरकार साबरमती आश्रम को सील कर देगी। पर सरकार ने वैसा न करना ही ठीक समझा, हालांकि आश्रम के सभी वयस्क लोग गिरफ्तार कर लिए गए थे। आश्रम की संपत्ति बेकार पड़े-पड़े जर्जर हो रही थी। सो, गांधी ने तय किया कि उसे हरिजन सेवक संघ को अछूतों की सेवा के लिए दे दिया जाए। तब से वह ‘हरिजन आश्रम’ कहा जाने लगा।
गांधी ने देश के राजनैतिक जीवन के अध्यात्मीकरण का संदेश गोपाल कृष्ण गोखले से ग्रहण किया था, जिन्हें वे अपना ‘राजनैतिक गुरु’ मानते थे। साबरमती आश्रम राजनीति के अध्यात्मीकरण का गांधी का प्रयोग था। यही कारण है कि जो आश्रम प्रकट रूप से आजादी के लिए संघर्ष की तैयारी का केंद्र था, और जिसे गांधी ने सत्याग्रह आश्रम कहा, उसके लिए उन्होंने आध्यात्मिक किस्म का आचार संहिता बनाई थी। कुछ वर्षों के अनुभव के बाद उन्होंने पाया कि अपनी सार्वजनिक जिम्मेदारियों के चलते उन्हें बराबर देशभऱ का दौरा करना पड़ता है, लिहाजा जितना ध्यान वे देना चाहते थे नहीं दे पा रहे हैं, तो उन्होंने आश्रम का नाम बदल कर ‘उद्योग मंदिर’ कर दिया और ‘सत्याग्रह आश्रम’ नाम केवल उस खाली स्थान के लिए रह गया जहां सुबह-शाम प्रार्थना होती थी। यह अपनी मर्यादा या सीमा को स्वीकार करने की ईमानदारी और विनम्रता भी थी और इस बात का संकेत भी कि सत्याग्रह शब्द को वे कैसा महत्व देते थे।
हालांकि राजनीतिक घटनाओं के बवंडर में उनके प्रयोग निरंतर जारी नहीं रह सके। फिर भी, पंद्रह बरसों का आश्रम-जीवन, आधुनिक भारत के इतिहास में, राजनीति को आध्यात्मिक बनाने का सबसे अनूठा सामाजिक प्रयोग था। आश्रम-प्रयोग का एक उद्देश्य इसके सदस्यों के बीच साथीपन की भावना का संवर्धन करना और किसी बाहरी दबाव के बगैर, नैतिक विकास को बढ़ाना देने के लिए समुदाय-निर्माण का प्रयास भी था। इसकी सीमाओं का भान होते हुए भी गांधी देश के प्रति इसकी अमूल्य सेवा को लेकर हमेशा सजग रहे।
विनोदी अंदाज में लिखे गए एक लेख में मेरे पिताजी ने सेवाग्राम आश्रम को नुमाइश के लिए लाए गए ‘गांधी के वन्यजीवों के झुंड’ के रूप में चित्रित किया था। इसमें आश्रम के कुछ मनमौजी सदस्यों की अजीब-अजीब आदतों का वर्णन था। जब सरदार पटेल उनके बारे में मजाक करते, तो पिता जी आश्रम के बचाव में कहते- ‘बापू आखिरकार डॉक्टर हैं। एक डॉक्टर के चारों तरफ आप मरीजों के सिवा और किसकी उम्मीद करते है? ’ लेकिन गंभीरता से बात करें, तो आश्रम के कुछ लोग असाधारण व्यक्ति थे। उन्नीस सौ बीस के दशक के शुरू के दौर में गांधी ने उनमें से कुछ के प्रति अगाध सम्मान जाहिर करते हुए कहा था कि वे नहीं, बल्कि आश्रम उनकी मौजूदगी से लाभान्वित हुआ। अगर कोई व्यक्ति अपनी संगत से पहचाना जाता है, तो निश्चित रूप से मगनलाल गांधी, इमाम साहब विनोबा, किशोर घनश्यामदास मशरूवाला, महादेव देसाई, गंगाबेन वैद्य, मीराबेन, काशीबेन गांधी, पंडित खरे, तोतारामजी, सुरेंद्रजी और अन्य लोगों की संगत भी गांधी के ऊंचे स्थान का एक पैमाना है।