— किशन पटनायक —
गांधीजी के बारे में बड़ी गलतियाँ होती हैं। लोग उनके विचारों से कोई फार्मूला या हल ढूँढ़ने की कोशिश करते हैं और फिर उसको गांधीवाद कहे बिना नहीं मानते। ये लोग वैसी ही गलती करते हैं जैसी कि कुछ लोग गांधी को सिर्फ कर्मवीर कहकर बरखास्त कर देने के वक्त। ऐसे लोग उन्हें सिर्फ कर्मवीर मानते हैं और कहते हैं कि गांधीजी की मार्क्स या मारक्यूज से तुलना नहीं की जा सकती क्योंकि वह बौद्धिक नहीं हैं; मार्क्स की तरह उन्होंने कोई प्रतिपादन नहीं किया।
बहरहाल, एक सिद्धांत के रूप में सत्याग्रह शायद समाजवाद से ज्यादा दिन टिकेगा और सत्याग्रह के इस सिद्धांत के प्रणेता गांधीजी थे। गांधीजी की तरीका अलग था, उन्होंने कभी समाज के विकास की ऐतिहासिक अवधारणा पेश करने की कोशिश नहीं की। उन्होंने दिशा- निर्देश के लिए सिद्धांतों की प्रतीक्षा किए बिना कर्म शुरू किया। उन्होंने मार्क्स की तरह समाज को पहले उसके ऐतिहासिक विकास के परिप्रेक्ष्य में समझकर वर्तमान में जो साधन अनुकूल हों सिर्फ उन्हीं को इस्तेमाल में लाने की बात नहीं कही।
गांधीजी ने ज्यादा शाश्वत दृष्टि अपनाई। समाज का मौजूदा स्वरूप और चरण कुछ भी क्यों न हो और उसके बारे में समझ कुछ भी क्यों न हो, सत्य और न्याय जैसे बुनियादी व सार्वभौम सिद्धांतों के आधार पर कर्म शुरू किया जा सकता है। सत्य जैसा बुनियादी व मूलाधार वाला सिद्धांत किसी को भी कर्म की ओर प्रवृत्त करने के लिए काफी है।
यदि आप सत्य से निर्देशित हो रहे हैं तो जैसे-जैसे आप बढ़ेंगे मौजूदा भौतिक स्थितियों के सापेक्ष और विकासशील गुणों के बारे में सचेत होकर सत्य को अपनाते जाएंगे और खुद में उन्हें खपाते जाएंगे। इसलिए सत्य के प्रयोगों से प्रेरित होकर वेग के साथ जैसे-जैसे गांधीजी बढ़ते गए वैसे-वैसे उन्हें हर कदम पर अवधारणाएँ बनानी पड़ीं जिन्हें वह सुधारते व विकसित करते रहे। दुनिया के किसी भी बड़े क्रांतिकारी से वह इस बात को ज्यादा अच्छी तरह जानते थे कि नई सभ्यता के निर्माण के लिए मौजूदा अवधारणाएं अनुपयुक्त हैं। इस ज्ञान को उन्होंने कुछ ज्यादा ही महत्त्व दिया।
आधुनिक सभ्यता और उसकी अवधारणाओं के बारे में उनकी शंका बहुत ज्यादा रही। इसका नतीजा यह हुआ कि उनका समाजवाद कुछ ज्यादा ही कल्पना जगत का हो गया। लगभग उसी तरह जिस तरह कि मौजूदा भौतिक परिस्थितियों के प्रति अत्यधिक रुझान के कारण मार्क्स का समाजवाद कुछ ज्यादा ही संकीर्ण हो गया। वर्तमान सभ्यता के नारे अपनाकर प्रभावशाली बनने वाले नेहरू जैसे आधुनिकतावादी गांधीजी को कभी भी समझ नहीं पाए और ऐसे आधुनिकतावादी गांधीजी को पुरातनपंथी और चिन्तनशून्य कहकर सतही तौर पर लोकप्रिय भी हो गए। गांधीजी ने चिन्तन-मनन करने के बजाय सोचा ज्यादा। शायद उनके जितना किसी भी आधुनिक कर्म पुरुष ने नहीं सोचा होगा। उन्होंने जितना लिखा और बोला वह शायद लेनिन से ज्यादा ही होगा।
एक ऐसे व्यक्ति को, जो अपने जीवन को सत्य का प्रयोग कहता हो, विचारों की दुनिया से हटाया नहीं जा सकता और खासकर ऐसे व्यक्ति के मामले में, भले ही इसके लिए अपवाद क्यों न करना पड़े, सोच को उसके जीवन के संदर्भ में ही समझा जाना चाहिए। तथाकथित गांधीवादी यही गलती करते हैं। वे गांधीजी के कुछ शब्दों को चुन लेते हैं, उनका उनके जीवन से रिश्ता नहीं जोड़ते और इन शब्दों की निवीर्य रूप से रटन्त लगाते रहते हैं।
यह सोचने पर हमें शायद कुछ हैरत हो कि गांधीजी ने अपने जीवन को ‘सत्य के प्रयोग’ क्यों कहा, अहिंसा के प्रयोग क्यों नहीं कहा। यह मानना बेहूदगी होगी कि वह अहिंसा को सत्य की अपेक्षा गौण मानते थे। यह कहना ज्यादा सही होगा कि वह यह मानते थे कि सत्य ज्यादा बुनियादी है और उसे कसौटी पर ज्यादा कसा जा सकता है।
उन्होंने कहीं कहा भी है कि समाज में अहिंसा का प्रयोग क्रमिक होता है। उन्होंने यह भी कहा है कि साहसपूर्ण हिंसा कायर-अहिंसा से बेहतर है। लोग गांधीजी की यह बात यह सिद्ध करने के लिए कहते हैं कि गांधीजी ने हिंसा की वकालत की, पर तथ्य यह है कि गांधीजी सिर्फ उन लोगों के मामले में ही, जो उनकी राय से सहमत नहीं थे, साहसपूर्ण हिंसा को बरदाश्त करने व उसका सम्मान करने को प्रस्तुत थे। इस तरह एक विभाजन पैदा होता है, जिसमें यदि आप गांधीवादी हैं तो आप अपनी कायरता भरी अहिंसा का औचित्य साबित नहीं कर सकते और यदि आप गांधीवादी नहीं हैं तो आप गांधीजी का हवाला अपनी हिंसा का औचित्य ठहराने के लिए नहीं दे सकते। गांधीजी के सोच की प्रक्रिया का यह एक उदाहरण माना जा सकता है।
इसी तरह आने वाली पीढ़ियों को इस बात से अचरज हो सकता है कि गांधीजी ने सरदार पटेल या राजेंद्र प्रसाद के बजाय जवाहरलाल नेहरू को अपना उत्तराधिकारी क्यों चुना। इसमें किसी को गांधीजी की स्थिति का दयनीय पक्ष नजर आ सकता है। गांधीजी ने यह निश्चय ही माना था कि नेहरू की समाजवाद में आस्था वास्तविक है। उनसे केवल तरीकों में फरक की बात थी। नेहरू को इस बात पर यकीन नहीं था कि अहिंसा, ट्रस्टीशिप और ग्रामोद्योग द्वारा समाजवाद लाया जा सकता है। साथ ही गांधीजी को यह लगा कि जो लोग उनके अहिंसा, ट्रस्टीशिप और ग्रामोद्योग के सिद्धांतों के हिमायती हैं, वे लगनवाले समाजवादी नहीं हैं। नेताओं में उन्हें ऐसा कोई नजर नहीं आया जिसमें दोनों बातें एकसाथ हों, लिहाजा उन्होंने एक ‘गांधीवादी’ के बजाय एक ‘समाजवादी’ को अपना उत्तराधिकारी चुना। यह भ्रम की स्थिति को करुणाजनक व दयनीय बनाता है।
जब ‘समाजवादियों’ ने गांधीजी को उनके मुँह पर लगभग यह कहने में कसर नहीं रखी कि वह पूँजीपतियों के सहयोगी हैं, तब उन्हें कितना दुख हुआ होगा। गांधीजी को बीच-बीच में कहना पड़ा कि वे पूँजीवाद को यदि बहुत ज्यादा नहीं तो लगभग उतना ही समाप्त करना चाहते हैं जितना कि कोई अति उग्र समाजवादी या कम्युनिस्ट चाह सकता है, ‘मेरे तरीके और मेरी भाषा अलग है। मैंने हिंदुस्तान के समाजवादियों से बहुत पहले समाजवादी होने का दावा किया है।’
नेहरू ने कभी गांधीजी की इस बात के मर्म को नहीं समझा और अत्यन्त अनुदारतापूर्वक कहा कि गांधीजी के ट्रस्टीशिप के विचार की गरीबों को दान देने जैसी धार्मिक भावना से तुलना की जा सकती है। (मेरी कहानी : जवाहरलाल नेहरू)
नई पीढ़ी की नजरों में कम्युनिस्टों ने गांधीजी को रूढ़िवादी और पूँजीपतियों का सहयोगी नहीं बनाया है, वरन नेहरू और उनके सलाहकारों ने, जिन्हें सारे बुद्धिजीवी लोग और जनता में प्रचार करने वाले लोग मिल गए। देश में उपलब्ध जन-प्रचार के साधनों द्वारा यह काम किया गया है। गांधीजी को अतीत के संग्रहालय में डाल दिया गया है। हमारी इस मौजूदा स्थिति में इससे ज्यादा दुख की और कोई बात नहीं हो सकती कि हमारी युवा पीढ़ी गांधीजी के विद्रोही और क्रांतिकारी रूप को नहीं जानती कि उन्होंने लगातार लड़ते हुए, प्रचार करते हुए और यातनाएँ सहते हुए हिंदुस्तान में ब्रितानी शासन की नींव हिला दी– जहाँ उदासीनता थी, चेतना नहीं थी वहाँ उन्होंने गुस्से का खम्भा गाड़ दिया; इसके बाद ब्रितानी शासन इस कदर हिल गया कि वह बना नहीं रह सकता था। पूँजीवाद के मामले में भी गांधीजी इसी तरह के रास्ते पर चल रहे थे।
गांधीजी अगर चाहते तब भी 1947 के पहले कारखानों और भूमि का राष्ट्रीयकरण नहीं कर सकते थे। इस बीच वह देशवासियों का हृदय परिवर्तन करते रहे ताकि पूँजीवाद के सभी आधार ढह जाएँ।
शायद इस बात की वह और कुछ सख्त कोशिश करते क्योंकि उन्होंने अँग्रेजों के चले जाने के बाद ज्यादा ठोस ढंग से और ज्यादा गुस्से से बोलना शुरू कर दिया था। वह ज्यादा जोर से पूँजीवाद के खात्मे की बात कहने लगे, उनके बोलने का ढंग बदल गया। उन्होंने कहा, “मैं न आरामकुर्सी के समाजवाद और न ही सशस्त्र समाजवाद में विश्वास करता हूँ। मेरा विश्वास है कि कुछ मुख्य उद्योग जरूरी हैं। मैं अपनी निष्ठा के आधार पर या उसके मुताबिक पूर्ण हृदय-परिवर्तन की प्रतीक्षा किए बिना कर्म में विश्वास करता हूँ।”
“मैं उन उद्योगों को राज्य की मिल्कियत के अंतर्गत करता जहाँ बहुत-से लोग एकसाथ काम करते हैं, वहाँ इन लोगों का श्रम दक्ष हो या अदक्ष, उत्पादन की मिल्कियत राज्य के माध्यम से इन लोगों के पास ही रहेगी। मैं पैसे वाले आदमियों को जबरन नहीं हटाऊँगा वरन राज्य की मिल्कियत में परिवर्तित करने की प्रक्रिया में उनका सहयोग आमंत्रित करूँगा। समाज से अलग व बहिष्कृत कोई नहीं है भले ही वह लखपति हो या कंगाल। लखपति और कंगाली एक ही बीमारी के घाव हैं।” (तेन्दुलकर : ‘महात्मा’)। यह एक स्पष्ट व निर्दोष दृष्टिकोण है, इसमें किसी प्रकार की अस्पष्टता नहीं।
नेहरू ने इस प्रकार की आरोपजनक बातें कही हैं जिनसे यह लगे कि गांधीजी गरीबों को गरिमामंडित करते थे और पूँजीपतियों के अस्तित्व को बरदाश्त करते थे। लखपतियों और कंगालियों को एक ही बीमारी के घाव बताना यह बताने से कि ‘दोनों अपनी ऐतिहासिक, आवश्यकताएँ पूरी कर चुके हैं, लिहाजा अनावश्यक हैं’, ज्यादा असहिष्णु हैं। यह व्यवस्था के प्रति गांधीजी का असहिष्णु रूप उजागर करता है। गांधीजी ने यह कहा था कि वह पूर्ण हृदय परिवर्तन की प्रतीक्षा नहीं कर सकते, जो लोग सिर्फ गांधीजी की सूक्तियों को ही नहीं जानते, उनके जीवन को भी जानते हैं, वे यह अनुमान लगाएँ कि वह कहाँ जाकर रुकते।
जो धनियों को गरीबों के प्रति दयालु होने को कहेगा, वह धनियों को समाज का कोढ़ नहीं कहेगा और न ही मिल्कियत के परिवर्तन के लिए सामाजिक विधान की वकालत करेगा। गांधीजी ने एकदम स्पष्ट व जोरदार ढंग से मालिकों को ट्रस्टियों में बदलने की बात कही, उन्होंने कहा कि लाखों-करोड़ों द्वारा सत्ता व संपत्ति में हिस्सा प्राप्त करने की इच्छा के कारण असमानता का बना रहना असम्भव हो जाएगा।
आजाद हिंदुस्तान में वह कानून द्वारा सत्याग्रह को पूरा करना चाहते थे-
“जब जनता के पास, जमीन जोतनेवाले के पास राजनैतिक ताकत न हो तब के लिए सविनय अवज्ञा और असहयोग के तरीके हैं पर जैसे ही उन्हें राजनैतिक सत्ता और ताकत हासिल होगी, यह स्वाभाविक होगा कि उनकी हालत कानूनी तरीकों से सुधारी जाए। लेकिन किसान को शायद इतनी राजनैतिक सत्ता न प्राप्त हो…यदि विधान मंडल किसानों के हितों का संरक्षण करने में अक्षम व असमर्थ रहा तो किसानों के पास हमेशा सविनय अवज्ञा का अमोघ अस्त्र है ही।”
“कोई भी व्यक्ति चाहे वह शाहजादा हो या व्यापारी, वंशगत या स्वअर्जित संपत्ति का स्वयं मालिक नहीं हो सकता और न ही इस संपत्ति के मामले में उसका स्वैच्छिक अधिकार हो सकता है। वर्तमान असमानताएँ निश्चय ही लोगों के अज्ञान के कारण हैं। लोगों का अपनी स्वाभाविक शक्ति का ज्ञान जैसे ही बढ़ेगा असमानताओं का खात्मा होना लाजमी है।” (तेंदुलकर : महात्मा)
इसके बाद भी क्या यह शंका रह जा सकती है कि किसानों और मजदूरों को अपनी स्वाभाविक शक्ति के बढ़ते हुए ज्ञान के बाद भी अपनी शक्ति का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। गांधीजी ने यह कहकर अपनी स्थिति बार-बार स्पष्ट की है कि हिंसा द्वारा संगठित क्रांति से सर्वहारा को उसके अधिकारों के ज्ञान के आधार पर मजबूत बनाने की प्रक्रिया में बाधा पड़ सकती है और इससे ऐसा परिवर्तन आएगा जिसमें राज्य उसको उसी तरह दबाएगा जैसा कि पूँजीपति दबाता था। अहिंसक क्रांति से विजयी होनेवाले लोग राज्य के आगे अपनी सत्ता व ताकत का समर्पण नहीं कर देंगे। इस तरह हिंसक तरीकों को त्यागने की उनकी बात के पीछे मानवीय सिद्धांत ही नहीं राजनैतिक उद्देश्य भी था।
संपत्ति जब्त किए जाने के पहले हृदय परिवर्तन हो, यह गांधीजी के सामाजिक सिद्धांत की विशेषता है। हृदय परिवर्तन का व्यावहारिक मतलब यही है कि संपत्ति जब्त किए जाने से पहले संपत्ति का मोह छोड़ दें।
गांधीजी ने यह स्पष्ट कर दिया है कि यह जरूरी नहीं कि पूरी तरह हृदय परिवर्तन हुआ हो। यह विभिन्न स्थितियों और कारणों पर निर्भर करेगा, उनके बीच संतुलन बनाने पर तय किया जा सकेगा। एक कारण व स्थिति ऐसी हो कि खुद गांधीवीदी कह उठें ‘बस बहुत हुआ, अब और इन्तजार की जरूरत नहीं’। लेकिन गांधीवादी की मनःस्थिति से ज्यादा महत्त्वपूर्ण कारक होगा जनता का आन्दोलन – वह कितनी व्यग्र है और सरकार का निश्चय कितना प्रबल है।
गांधीवादी रणनीति में विधान मंडल में ‘अभी नहीं’ या ‘हाँ, जल्दी करो’ कहने का अधिकार सिर्फ उनको है, जिन्होंने जनता को अहिंसक आन्दोलन के लिए संगठित किया हो। इस मामले में बाहर खड़े और स्थिति देखकर कूद पड़ने वाले लोगों को बोलने का कोई अधिकार नहीं, पर आज के सभी गांधीवादी इसी श्रेणी में आते हैं।
दूसरे चरण में यानी आजादी के बाद के पहले चरण में गांधीजी चाहते कि ट्रस्टीशिप बिल पास किया जाए क्योंकि उन्होंने कानून बनाने की बातें शुरू कर दी थीं।
एक ऐसा कानून जो बड़े नागरिकों से जबरन संपत्ति छीनने के बजाय उन्हें अपनी संपत्ति को ट्रस्ट में बदलने का अवसर प्रदान करता हो और एक तरफ मालिकों के सामाजिक दृष्टिकोण को चुनौती दे और दूसरी तरफ जनता को तमाम संपत्ति का समाजीकरण करने के लिए प्रेरित करे, उकसाए। गांधीजी इसके साथ ही वेतनों की और खर्च की सीमा बाँधने का भी अभियान छेड़ते। इन सारी बातों का समग्र प्रभाव बहुत ज्यादा होता और उस प्रभाव को नजरअंदाज कर पाना बहुत मुश्किल होता।
मैंने इस लेख में यह दिखाने की कोशिश की है कि गांधीजी के सामाजिक सिद्धांत और सामाजिक क्रांति के सिद्धांत को किस तरह समझा जाए। गांधीजी का अध्ययन कोई हल या फार्मूला ढूँढ़ निकालने के लिए नहीं वरन उनके लड़ाकू गुणों, हिंदुस्तानी जीवन की वास्तविकताओं के प्रति उनकी अन्तर्दृष्टि और क्रांतिकारिता को समझने के लिए किया जाना चाहिए। इसके साथ ही क्रांति अन्ततः किसी और दमन का रूप लेकर असफल न हो जाए, इसके प्रति गांधीजी की चिन्ता को भी हमें समझना चाहिए।