विकास विमर्श के पाँच दशक और मौजूदा चुनौतियाँ 

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development and sustainability

anand kumar

— आनंद कुमार —

मानव समाज में अपनी जरूरतों को पूरा करने कि क्षमता का विस्तार एक बुनियादी प्रवृति पाई जाती है। यूरोप में सोलहवी से उन्नीसवी शताब्दी के बीच सम्पन्न औद्योगिक और राजनैतिक क्रांतियों ने सामाजिक परिवर्तन की एक अनूठी लहर पैदा की, जिस से उत्पादन क्षमता से लेकर राजनैतिक अधिकारों और जीवन स्तर में अप्रत्याशित सुधार संभव हुए। इस से सामाजिक चिंतन में “विकास विमर्श” को एक महत्वपूर्ण स्थान मिला। लेकिन यूरोप के परिवर्तनों का बाकी दुनिया पर प्रतिकूल असर पड़ा। इसे समाज वैज्ञानिकों ने “पश्चिमीकरण”, “औद्योगिकरण” और “उपनिवेशिकरण” के सहअस्तित्व के रूप में पहचाना है। 20वी शताब्दी यूरोप के वर्चस्व से बाकी दुनिया के बाहर आने की शताब्दी कही जा सकती है।

इसमे स्वतंत्रता आंदोलनों और देशज अस्मिता के आधार पर राष्ट्र निर्माण का महत्व बढ़ा। इधर 21वी शताब्दी को वैश्वीकरण की शताब्दी के रूप में परिभाषित किया जाने लगा है। वैश्वीकरण का विकास विमर्श से सीधा संबंध है। इसे पहले “सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य” (Millennium Development Goals) के रूप में 2000 से 2015 के बीच मार्गदर्शक माना गया। इसके बाद “स्थाई विकास लक्ष्य” (Sustainable Development Goals) के रूप मे 2015 से 2030 के बीच हासिल करने की कोशिश की जा रही है। भारत इन वैश्विक रुझानों से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। पहले यह साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद के उदय का क्षेत्र रहा। अब यह “विउपनिवेशिकारण” (Decolonization) की लोकतान्त्रिक प्रक्रिया की प्रयोगशाला के रूप में अपनी पहचान बना रहा है। 

स्वाधीनता के बाद भारतीय समाज ने लोकतान्त्रिक राष्ट्रनिर्माण का रास्ता स्वीकारा। भारतीय संविधान में स्वतंत्रता, न्याय (राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक), समानता (अवसर और प्रतिष्ठा), बंधुत्व और एकता का लक्ष्य स्वीकारा गया। लेकिन ब्रिटिश राज से मुक्ति के मौके पर भारत औपनिवेशिक शोषण के कारण बेहद निर्धन, निरक्षर और पिछड़ा मुल्क था। इसलिए विकास का लक्ष्य राष्टीय सहमति का मुख्य आधार था। इसके लिए 1930 में पारित पूर्ण स्वाधीनता के लिए स्वीकारे गए प्रस्ताव में कुछ कार्यक्रमो को प्रमुखता दी गई थी।

26 जनवरी 1950 को हमने लोकतंत्र निर्माण कि दिशा मे पहला कदम उठाया। फिर 1952 से 1971 के बीच स्वदेशी-स्वावलंबन-सादगी को मार्गदर्शक मूल्य बना कर पंचवर्षीय योजनाओ का आयोजन किया गया, जिसमे गावों मे भूमि सुधार के जरिए जमींदारी उन्मूलन और औद्योगिक नगरों का निर्माण उल्लेखनीय उपलब्धियां थी। शिक्षा में विज्ञान, टेक्नॉलजी और चिकित्सा को प्राथमिकता मिली। यह विकास का नेहरू युग था। जिसे मिश्रित अर्थव्यवस्था का दौर भी बताया गया। लेकिन 1967 और 1971 के बीच हमने अपने विकास विमर्श की दिशा बदली और “गरीबी हटाओ” के उद्देश्य को एक नई राष्ट्रीय सहमति का आधार बनाया गया। इस अभियान को जनता के वोट का प्रबल समर्थन था। 

इसी समय समाज विज्ञान में “विकास के समाजशास्त्र” के अंतर्गत आत्म समीक्षा शुरू हुई। पश्चिमी यूरोप से ध्यान हटा कर लैटिन अमेरिका और अफ्रीका के अनुभवों को नई अवधारणाओ और सिद्धांतों का आधार बनाया गया। इसमे आन्द्रे गुंडर फ्रैंक, समीर अमीन, जिओवानी आरीघी और वालरस्टाइन की रचनाओ का महत्वपूर्ण योगदान रहा। भारत के नीति निर्माता और समाज वैज्ञानिक भी इस बदलाव से प्रभावित हुए।

एक तरफ बैंकों का राष्ट्रीयकरण और दूसरी तरफ वी वी गिरी विकास अध्ययन संस्थान और जवाहर लाल नेहरू विश्वविधालय जैसे संस्थानों की स्थापना इस प्रक्रिया के कुछ उदाहरण थे। यह भारतीय विकास विमर्श में वामपंथी रुझान का दौर था। श्रीमती इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री काल का अधिकांश समय “गरीबी हटाओ” के अभियान से जुड़ा रहा। इस दौर में आपातकाल (1975-1977) और जनता पार्टी की सरकार (1977-1979) का व्यवधान भी शामिल रहा। 

1969-1989 की अवधि में विकास को राज्य सत्ता की सक्रिय भूमिका के माध्यम से सम्पन्न करने को प्राथमिकता दी गई। इसे “राष्ट्रीयकरण” का युग माना गया। इसके आलोचकों ने इसे “सरकारीकरण” का काल बताया। इसकी उपलब्धियों से हरित क्रांति के जरिए खाद्य समस्या का समाधान संभव हुआ। शिक्षा और स्वास्थ्य में सुधार हुआ। लेकिन विकास की रफ्तार नहीं बढ़ी। इसे “हिन्दू विकास दर” के विशेषण से चिन्हित किया गया। प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने इस आलोचना को “अपेक्षाओ में क्रांति” (Revolution of rising expectation) बताया। 

इधर भारत अपना देशज विकास विमर्श विकसित करने में जुटा हुआ था लेकिन दूसरी तरफ यूरोप-अमेरिका से वैश्वीकरण की आंधी बाकी दुनिया में 1989 से फैली है। इसका सबसे उल्लेखनीय परिणाम 1917 से विकसित हो रहे “सोवियत संघ” के 1989-1990 में विघटन के रूप मे दर्ज किया गया है। इसके बाद चीन गणराज्य का वैश्विक पूंजी की शक्तियों के साथ समन्वय की चौकाने वाली सच्चाई सामने आई। भारत में भी विकास का एक नया विमर्श उभरा जिसे उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण का समन्वय बताया गया (LPG Paradigm). इस नए विमर्श में सरकारीकरण को बाजारीकरण से विस्थापित किया गया है।

पूंजी, टेक्नॉलजी, औधयोगिक उत्पादन और श्रम का विशव्यापी फैलाव हुआ है। राष्ट्रीयता को विश्वीकता और स्थानीयता के दोहरे दबाव ने महत्वहीन बनाने की प्रक्रिया को बल दिया है। लेकिन पूंजी केंद्रित वैश्वीकरण के अपने अंतर विरोध है। इनसे विकास के विमर्श में नई चुनौतिया उभरी है। इसी के समाधान में दुनिया भर के देशों का 2000 से 2030 के बीच विकास अभियान आयोजित करने की कोशिश करनी पड़ी है। 

आज के विकास विमर्श की क्या मुख्य चुनौतिया है जिसे समुदाय, बाज़ार और राज्य सत्ता के समन्वय से सुलझाने की कोशिश जरूरी हो गई है। अलग अलग दृष्टि से अलग अलग सूचिया सामने आई। विकास के समाजशास्त्र की दृष्टि से निम्नलिखित प्रश्नों को महत्वपूर्ण माना जा रहा है। 

1. निर्धनता 

2. स्वास्थ्य और स्वच्छता 

3. सार्थक शिक्षा 

4. महिला सशक्तिकरण 

5. सभी के लिए आजीविका की व्यवस्था 

6. आर्थिक विषमता पर नियंत्रण 

7. मवेशी सुधार 

8. शांति न्याय और मानव मर्यादा 

9. ऊर्जा समस्या 

10. उद्योगों का नवीकरण 

11. टिकाऊ समुदाय और नगर जीवन 

12. समुंदरों और महासागरों की सुव्यवस्था 

13. पर्यायरण सरंक्षण 

भारत के विकास विमर्श में इन सभी मुद्दों की प्रासंगिकता है। लेकिन भारत की अपनी विशेषताओ के कारण कुछ अन्य समस्याए भी है। जिनका समाधान भारत के लोगों के भरोसे ही संभव है। क्या है भारत के विकास की मौजूद चुनौतियां? 

1. असंतुलित विकास (Development Deficit) 

2. प्रशासन का संकट (Governance Deficit)

3. वैधानिकता की समस्या (Legitimacy Deficit)

4. कच्चा जनतंत्र (Democracy Deficit)

5. राष्ट्र निर्माण का अधूरापन (Nation Building Deficit)

6. नागरिकता का अभाव (Citizenship Deficit)

7. पर्यावरण प्रदूषण (Environmental Deficit)

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