— कुमार कृष्णन —
“बिहार सरकार कोई भी बराज बनाने से पहले फरक्का बराज के दुष्परिणामों से सीख ले।” गंगा मुक्ति आंदोलन के प्रमुख अनिल प्रकाश ने बिहार की नदियों पर इन बराजों के निमार्ण पर आपत्ति जतायी है और कहा है कि — “बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को सात नदियों पर बराज बनाने की हड़बडी करनें से पहले गंगा पर बने फरक्का बराज से उत्पन्न विनाशकारी बाढ़, कटाव,जल जमाव, भूमियों के उसर होने, मछलियों के अकाल आदि भीषण स्थितियों का वैज्ञानिक आंकलन अवश्य करा लेना चाहिए।” सरकार के बिहार की नदियों पर बराज बनाने फैसले से व्यापक आंदोलन की तैयारी आरंभ हो गयाी है। इस फैसले के विरोध में बिहार, बंगाल और उत्तरप्रदेश में प्रथम चरण में हस्ताक्षर अभियान चलाया जाएगा। इसके उपरांत साथी संगठनों की बैठक कर आंदोलन की अगली रणनीति तय की जाएगी।
नेपाल में होने वाली बारिश से बिहार में होने वाली तबाही को रोकने के लिए बिहार सरकार ने चार बराज बनाने का निर्णय लिया है। ऐसे में फरक्का बैराज के निर्माण में दिखाई गई अदूरदर्शिता को एक सीख की तरह देखा जाना चाहिए। बिहार के जल संसाधन विभाग के मंत्री विजय चौधरी के अनुसार नेपाल में हाई डैम बनने का प्रस्ताव कई सालों से है, लेकिन वहां फिलहाल हाई डैम बनने की उम्मीद नहीं दिख रही है।कारण नेपाल में हाई डैम का मामला इसलिए अटका पड़ा है। कोई भी जल संधि तभी लागू की जाएगी जबतक कि वहां की संसद दो तिहाई बहुमत से मामले के पारित न कर दे।
नेपाल के संसद के पेंच के कारण बिहार सरकार को बराज बनाने का फैसला लेना पड़ा। लिए गए फैसले के तहत नेपाल से आने वाली चार नदियों में चार जगह पर बराज बनाए जाएंगे।यह बराज कोसी नदी पर डगमारा में, गंडक नदी पर अरेराज में, महानंदा नदी पर मसान में और बागमती नदी पर डिंग में बराज बनाया जाएगा। डीपीआर तैयार किया जा रहा है। बाढ़ नियंत्रण को लेकर केंद्र सरकार ने बड़ी राशि दी है और हम लोग सोच रहे हैं कि नेपाल से आने वाले बाढ़ के पानी से जो नुकसान होता है उसे रोकने के लिए इन चार जगह पर बड़े बराज बनाया जाएं, जिससे कि बाढ़ के पानी को नियंत्रित किया जा सकता है। इसके लिए विश्व बैंक से 4400 करोड़ रुपये की सहायता ली जा रही है। यह डीपीआर मार्च 2025 तक पूरा हो जाएगा।
नेपाल सरकार से भारत सरकार की कई बार हाई डैम बनाने को लेकर बातचीत हुई है वर्ष 2004 में वहां संयुक्त रूप से विराटनगर में कार्यालय भी खोले गए हैं, लेकिन जहां भी सर्वे करने जाती है लोग हंगामा करने लगते हैं। यही कारण है कि नेपाल में हाई डैम बनाना मुश्किल हो रहा है। यही सोचकर बिहार सरकार ने अब बिहार में ही नेपाल से आने वाली चार नदियों पर बराज बनाने का निर्णय लिया है। केंद्र सरकार ने हाल ही में बिहार के लिए प्रत्येक वर्ष आने वाली बाढ़ से संबंधित आपदाओं से निपटने के लिए 11,500 करोड़ रुपये की वित्तीय सहायता की घोषणा की है।
केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार के कार्यकाल में भारत ने नेपाल में कोसी, बागमती और कमला नदी पर उच्च-स्तरीय बांध बनाने और संबंधित डीपीआर तैयार करने के लिए 2004 में विराटनगर (नेपाल) में एक संयुक्त परियोजना कार्यालय स्थापित करने पर सहमति व्यक्त की थी। विशेषज्ञों का मानना है कि बिहार के बाढ़ को लेकर एक वैज्ञानिक ढंग से व्यापक अघ्ययन की आवश्यकता है उसके बाद नदी जोड़ योजना का काम हो या फिर बराज बनाने का काम हो।
विकास योजनाएं बनाते समय उसके सामाजिक-आर्थिक और पर्यावरणीय दुष्परिणामों को नज़रअंदाज़ करने का क्या नतीजा हो सकता है, इसे समझने के लिए फरक्का बैराज को एक मॉडल के रूप में देखा जाना चाहिए।फरक्का बैराज 1975 में बनकर तैयार हुआ। मकसद था कि इसके जरिए 40 हजार क्यूसेक पानी का रुख बदल दिया जाये, ताकि कोलकोता बंदरगाह बाढ़ से बच सके। यह अनुमान करते नदी में आने वाले तलछट का अनुमान नहीं किया गया।परिणामस्वरूप,आवश्यकतानुरूप मात्रा में पानी का रुख नहीं बदला जा सका। दुष्परिणाम आज सामने है।
बैराज का जलाश्य तलछट से ऊपर तक भरा है। पीछे से आनी वाली विशाल जलराशि पलटकर साल में कई-कई बार विनाश लाती है। ऊंची भूमि भी डूब का शिकार होने को विवश है। हजारों वर्ग किलोमीटर की फसल इससे नष्ट हो जाती हैं। फरक्का बैराज के बनने के बाद से समुद्र से चलकर धारा के विपरीत ऊपर की ओर आने वाली ढाई हजार रुपये प्रति किलो मूल्य वाली कीमती हिल्सा मछली की बङी मात्रा से हम हर साल खो रहे हैं, सो अलग। नदी किनारे की गरीब-गुरबा आबादी फरक्का को अपना दुर्भाग्य मानकर हर रोज कोसती है। फरक्का बराज के बनने के बाद से बिहार में बाढ़ की आपदा बढ़ी है।
मगर जानकार यह भी मानते हैं कि बिहार में बाढ़ को नियंत्रित करने वाली तटबंध आधारित नीति ने भी बाढ़ के संकट को बढ़ाने का काम किया है। उत्तर बिहार की नदियों के जानकार दिनेश कुमार मिश्र के अनुसार आजादी के वक्त जब राज्य में तटबंधों की कुल लंबाई 160 किमी थी तब राज्य का सिर्फ 25 लाख हेक्टेयर क्षेत्र बाढ़ पीड़ित था। अब जब तटबंधों की लंबाई 3760 किमी हो गयी है तो राज्य की लगभग तीन चौथाई जमीन यानी 72.95 लाख हेक्टेयर भूमि बाढ़ प्रभावित है। यानी जैसे-जैसे तटबंध बढ़े बिहार में बाढ़ प्रभावित क्षेत्रफल भी बढ़ता चला गया।
सरकार का भी रवैया विचित्र है। एक ओर तो बिहार की बाढ़ के लिए फरक्का बराज को जिम्मेदार ठहराते हैं, तो दूसरी तरफ नए की वकालत भी करते हैं। अनिल प्रकाश के अनुसार फरक्का बराज के अनुभवों से ही समझ लेना चाहिए था कि नदियों को रोककर बाढ़ का मुकाबला नहीं किया जा सकता।”
“वैसे तो नदियों पर डैम मुख्यतः बिजली बनाने के लिए बनाये जाते हैं, बाढ़ रोकने के लिए नहीं। इसके बावजूद डैम बनाना एक पुराना तरीका साबित हो रहा है। आजकल कई वजहों से दुनिया भर में बांधों को तोड़ा जा रहा है। अमेरिका की मिसिसिपी नदी पर बने डैम को वहां की सरकार ही 30-40 साल से तोड़ रही है। चीन में ह्वांगहो नदी पर बने तटबंध को बम से उड़ा दिया गया।”
1870-75 से पहले बिहार में बाढ़ का जिक्र नहीं मिलता था। जबसे यहां रेलवे की शुरुआत हुई और नदियों के स्वतंत्र बहाव में बाधा उत्पन्न होने लगी बाढ़ की समस्या सामने आने लगी। इसके बावजूद उत्तर बिहार में नदियों का अपना बेहतरीन तंत्र विकसित था। बड़ी नदियां, छोटी नदियों और चौरों से जुड़ी थीं और पूरे इलाके में पोखरों का जाल बिछा था। जब बारिश के दिनों में बड़ी नदियों में अधिक पानी होता था तो वह अपना अतिरिक्त पानी छोटी नदियों, चौरों और तालाबों में बांट देती थीं। इससे बाढ़ की समस्या नहीं होती थी। फिर जब गर्मियों में बड़ी नदियों में पानी घटने लगता तो छोटी नदियां और चौर इन्हें अपना पानी वापस कर देतीं। इससे ये नदियां सदानीरा बनी रहतीं।
बिहार की 76% आबादी और राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 73% हिस्सा बाढ़ से प्रभावित है। वहीं आंकड़े यह भी बताते हैं कि देश के कुल बाढ़ पीड़ित क्षेत्र का 16.5% बिहार में पड़ता है और कुल बाढ़ पीड़ित आबादी का 22.1% इसी राज्य के लोग हैं।
ए एन सिन्हा इंस्टीच्यूट के विशेषज्ञ डॉ विद्यार्थी विकास का बिहार में तटबंध का निर्माण पिछले 50 सालों में लगातार बढ़ता जा रहा है और बाढ़ का इलाका भी उसी तरह से बढ़ता जा रहा है। पहले 25 लाख हेक्टेयर बाढ़ प्रभावित इलाका था लेकिन आज 70 लाख हेक्टेयर से अधिक इलाका बाढ़ प्रभावित है।
1960 और 70 के दशक में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सबसे अधिक बांधों का निर्माण हुआ। लेकिन हाल के वर्षों में बांधों के निर्माण की वैश्विक स्तर पर आलोचना हो रही है। क्योंकि बांध से होने वाले फायदों के लिए भारी पर्यावरणीय कीमत चुकानी पड़ रही है। एक रिर्पोट के अनुसार यूरोप में नदियों की अविरल धारा के लिए मुहिम चल रही है। साल 2016 से ही बांध तोड़े जा रहे हैं। 2022 में ही यूरोपीय नदियों पर बने 325 बांध तोड़ दिए गए, जो 2021 से 36% ज्यादा है।
खास बात यह है कि जिन नदियों पर बांध तोड़े गए वहां का जलीय जीवन बदलने लगा है। फिनलैंड हितोलांजोकी नदी में सोलोमन जैसी मछलियां नजर आने लगीं, जो साला पहले यहां खत्म हो चुकी थीं। मछलियों का लौटना इस बात की निशानी है कि नदी का इकोसिस्टम खुद को ठीक कर रहा है।वहीं दूसरी ओर भारत में बड़े बांधों, बराजों द्वारा उपजाऊ धरती, जंगल सहित जैव विविधता से भरी प्रकृति और नदी से जुड़ी संस्कृति स्वाहा कर विकास का यज्ञ चलाया जा रहा है।