विकल्प व सम्भावनाओं की तलाश करने वाला राजनेता : किशन पटनायक

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Kishan Patnaik
किशन पटनायक (30 जून 1930 - 27 सितंबर 2004)

ज भारत में समाजवादी आंदोलन की एक प्रखर आवाज़ रहे विचारक व राजनेता किशन पटनायक (1930-2004) का जन्मदिन है। आज के दौर में जब राजनीतिक बहसों के बीच गाहे-बगाहे ‘आख़िर विकल्प ही क्या है’ का जुमला उछाला जा रहा हो। ‘विकल्पहीन नहीं है दुनिया’ की वकालत करने वाले किशन पटनायक और उनके विचार और भी प्रासंगिक हो चले हैं। किशन जी की किताब ‘विकल्पहीन नहीं है दुनिया’ में संकलित लेख उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धताओं और सामाजिक सरोकारों की बानगी देते हैं। ये लेख पढ़ते हुए किशन पटनायक के चिंतन पर गांधी और लोहिया की गहरी छाप भी स्पष्ट दिखती है।

उल्लेखनीय है कि डॉक्टर लोहिया ने भी कभी समाजवादी युवाओं को सम्बोधित करते हुए उन्हें ‘निराशा के कर्तव्य’ बताए थे। निराशा के क्षण की तंद्रा को तोड़ने के उन्हीं कर्तव्यों को किशन पटनायक विकल्पों और सम्भावनाओं की तलाश के राजनीतिक-वैचारिक मुहिम में बदल देते हैं। ‘सामयिक वार्ता’ जैसी पत्रिकाओं के जरिए किशन जी ने समता और नैतिकता की कसौटियों के पुनरुद्धार की पैरवी की।

किशन जी के ये लेख पढ़ते हुए आपको आश्चर्य होगा कि अभी डेढ़ दो दशक पहले तक भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में ऐसे राजनेता सक्रिय रहे हैं, जिन्होंने समकालीन राजनीति के साथ-साथ उपनिवेशिवादी मानसिकता, अर्थनीति, किसान आंदोलन, कूटनीति, प्रतिरक्षा, विज्ञान और प्रौद्योगिकी, जाति प्रथा और सामाजिक-आर्थिक विषमता जैसे तमाम सवालों पर इतनी सुलझी हुई और स्पष्ट राय रखी है।

इस पुस्तक में शामिल एक विचारोत्तेजक लेख का शीर्षक ही है ‘ग़ुलाम दिमाग़ का छेद’। नगुगी वा थियोंगो जैसे विचारक मस्तिष्क के विऔपनिवेशीकरण की जिस प्रक्रिया की बात करते रहे, भारतीय संदर्भ में उसी प्रक्रिया के लिए ज़रूरी उपायों की बात किशन जी ने उठाई है। इसी लेख में किशन पटनायक ने लिखा है कि ‘अल्पकालीन ग़ुलामी में सिर्फ़ राजनीतिक ग़ुलामी होती है, जबकि दीर्घकालीन ग़ुलामी में मानसिक ग़ुलामी आ जाती है।’ कहना न होगा कि अनुकरण और बौद्धिक निर्भरता वाली यह मानसिक ग़ुलामी व्यक्ति को एक छद्म सुरक्षा और आश्वस्ति का भाव भी देती है। यही कारण था कि गांधी, लोहिया और किशन पटनायक सरीखे विचारकों ने मानसिक ग़ुलामी के इस छद्म को तोड़ने के अनवरत प्रयास किए।

भारतीय बुद्धिजीवियों की सीमाओं को भी किशन पटनायक ने अपने लेखों में बखूबी चिह्नित किया है। वे ठीक ही लिखते हैं कि ‘भारत का लगभग हरेक बुद्धिजीवी अपने जीवन में कई बार विभिन्न प्रसंगों में यह कहता हुआ पाया जाता है – ‘बात तो सही है, लेकिन इस पर अमल कठिन है।’ ‘लेकिन’ और ‘कठिन’ शब्दों का उच्चारण वह इस तरह करता है मानो कठिन और असम्भव का पर्यायवाची हो।’

किशन जी के लेखों का यह महत्त्वपूर्ण संकलन राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित किया गया। जिसे ज़रूर पढ़ा जाना चाहिए।

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