प्रजातंत्र में मोक्ष की प्रयोगशाला

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Dhruv Shukla

— ध्रुव शुक्ल —

देह ही मोक्ष की प्रयोगशाला है। अपने आपको भूलकर जीते रहने से किसी के होने और न होने का अहसास ही नहीं होता। अपने होने का भी नही। जीवन में यह संभावना विद्यमान है कि सब अपनी देह के खारे सागर में डुबकी लगाकर अपने हिस्से का नमक उठा सकते हैं — नमक ही अमृत है। जो किसी के हिस्से का नमक छीनकर उसका स्वराज्य हड़पना चाहते हैं, वे कभी अपने स्वराज्य का स्वाद भी नहीं चख पाते और सबका स्वराज्य छीनकर एक दिन निहत्थे हो जाते हैं — ग़ुलामी ही जीवन के लिए कालकूट विष है। सबका जीवन विविधता में स्वतंत्रता का प्रतिमान बनने की संभावना से परिपूर्ण है। जीते-जी स्वराज्य ही मोक्ष है।

अपने मन को जीत लेना ही वास्तविक विजय मानी जाती है। धर्मक्षेत्र और कुरुक्षेत्र देह से बाहर नहीं है। उनके परिणाम बाहर प्रकट होते हैं। जब संयम को त्यागकर अपार कामनाओं से भरे अपनी ही देह के आंदोलित जल में निर्लज्ज स्नान करने की आतुरता बढ़ती है तब अपने ही भीतर छिपे राग-द्वेष की पहचान कठिन हो जाती है जिनके कारण बाहर थका देने वाली प्रतियोगिता पैदा होती है और जीवन ऐसे युद्ध में फंसता चला जाता है जो किसी सूर्यास्त पर नहीं रुकता।

लुटेरे और परद्रोही बढ़ते जाते हैं और बेघर-व्याकुल जीवन की करुण पुकार टूटे हुए मोरपंख-सी कुछ देर आकाश में तैरती है और धरती पर गिरकर खो जाती है। एक कठिन प्रतियोगिता की रेलगाड़ी में बिठा दिये गये आदमी की बेख़ुदी न जाने उसे कहां लिये जा रही है — जो ख़ुद अपनी शरण में नहीं, वह स्वाधीन नहीं — नेता राजनीति की शरण में नहीं, वे मज़हबी संहिताओं में शरण खोज रहे हैं। अभिनेता अपनी कला की शरण में नहीं, वे बाज़ार में शरण खोज रहे हैं। व्यापारी शुभ-लाभ की शरण में नहीं, वे लोभ की पूंजी में शरण खोज रहे हैं। सब मिलकर किसी न किसी अराजक भीड़ में शरण खोज रहे हैं और भीड़ अपनी शरण में नहीं, वह भांति-भांति के बहुरूपियों में अपनी शरण खोज रही है।

अपने आपको भूलते चले जाने का यह रोग सदियों पुराना है। दुनिया में इस रोग के इलाज के लिए जितने राजनीतिक और सामाजिक स्वास्थ्य केन्द्र स्थापित हुए सब विफल हो गये हैं। तभी तो चंचल मन को लुभाता कामुक बाज़ार तृष्णा की दुंदुभी बजाता हुआ समूचे जीवन पर बेखटके टूट पड़ा है, कुसंगति की चाल ही जीवन की ताल बनती जा रही है। जब तक खुद अपने से अपनी पहचान की उत्सुकता न होगी तब तक परस्पर आश्रय का वह सामूहिक बोध न हो पायेगा जो सामुदायिक मुक्ति की राहों के अन्वेषण में मददगार हो सकता है।

महात्मा गांधी अपने तप से इसी गहरी प्रतीति में डूबा साधते रहे कि उनकी देह ही अपने जीवनकाल में मोक्ष की प्रयोगशाला है। बाहर की सब प्रयोगशालाएं संदिग्ध हैं। ऐसा कोई ईश्वर भी नहीं जो कर्म और उसके फल को तय करता हो। सबका जीवन ख़ुद अपने-अपने स्वभाव का प्रवर्तक है और मोक्ष निजी तजुर्बा है। जो जीते-जी अपने आप में मुक्त नहीं, उसे मृत्यु कोई मोक्ष प्रदान नहीं कर सकती। मृत्यु तो जीवन से ही टूटी हुई एक कड़ी जैसी है जो बार-बार उसी से जुड़ जाती है।

बीती सदियों में कर्म जिज्ञासा से उपजे प्रश्नों के उत्तर कर्म को साधने की कुशलता के रूप में प्रकट किये गये हैं। कर्म की निष्काम कुशलता सबकी निजता के अनुरूप ही होती है। यह अनेक प्रकार की निजता अहंकार के वशीभूत होकर कर्म कुशलता के किसी सुनिश्चित सामाजिक-राजनीतिक विधि-विधान को रचने में बांधा भी पहुॅंचाती है। ख़ुद से ख़ुद को मिली इस चुनौती का सामना करने के लिए आत्मसंयम के अलावा और कोई रीति-नीति नहीं हो सकती। अपनी देह के अलावा ऐसी कोई प्रयोगशाला नहीं जो यह सिद्ध कर सके कि — सब कुछ सब में बसा होने के बावजूद भी सब अकेले हैं और सब अकेले कैसे सब में हो सकते हैं । प्रजातंत्र सब अकेलों को सबके करीब ले आने की जगह ही तो है। उसी से सामुदायिक मुक्ति की राह निकलती है।

और अन्त में

खबर है कि भारत की राजधानी में महात्मा गांधी का जन्मदिन देश के सीमावर्ती सत्याग्रही नागरिकों को बापू की समाधि पर जाने से रोककर मनाया जा रहा है। लद्दाख के श्री सोनम वांगचुक बीते चार साल से पृथ्वी, प्रकृति और प्रजातंत्र की रक्षा के पक्ष में अहिंसक आंदोलन कर रहे हैं और वे सरकार से सविनय संवाद करने के लिए अपने साथियों को लेकर दिल्ली आये हैं। राज्य व्यवस्था ने उनकी राजघाट जाने की राह रोक दी है। गांधी जयंती पर अपने ही देश के लोगों को आवाज़ उठाने के अधिकार से वंचित होता देख मन ग्लानि से भर गया है।

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