— शिव दयाल —
जयप्रकाश नारायण सन् 1974 में छात्रों-युवाओं के साथ आमजन के पक्ष में, और एकाधिकारी, दमनकारी सत्ता के विरोध में खड़े हुए तो भारतीय लोक के प्रतिनिधि ही नहीं, लोकनायक बन गए। ऊपरी तौर पर यह आंदोलन महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और कुशिक्षा के खिलाफ खड़ा हुआ लेकिन इसके पीछे वास्तव में लोक की सिमटती परिधि, निष्ठुर तंत्र का फैलता जाल, लोक संस्थाओं का अवमूल्यन और क्षरण, पूंजीवाद के छद्म विरोध के नाम पर राज्यवादी निरंकुशता की ओर बढ़ता देश और नैतिक मूल्यों में लगातार आती गिरावट थी जिनके बिना लोकतंत्र खोखला और बेमानी हो जाता है। इसके लिए व्यापक बदलाव की जरूरत थी, लोक को संपूर्ण स्वायत्तता दिए बिना यह संभव नहीं था, और इसीलिए ‘संपूर्ण क्रांति’ का आह्वान! क्रांति और परिवर्तन का नितांत देसी, भारतीय पाठ!
आंदोलन के पूर्व देश में जो एक प्रच्छन्न निरंकुशता, नये लेकिन मजबूत होते दलाल वर्ग और चाटुकार संस्कृति के साथ-साथ विकसित हो रही थी, देश में
लोकतंत्र और व्यवस्था बचाने और ‘फासीवादी शक्तियों’ को रोकने के नाम पर आंदोलन के दमन के साथ ही प्रगट रूप में सामने आ गई। देश में 26 जून 1975 को आपातकाल लागू हो गया। व्यवस्था परिवर्तन के लिए चले आंदोलन का कारवां रुक गया। अब लोकतंत्र बचाने का तात्कालिक लक्ष्य सामने रह गया।
1977 की जनवरी में आम चुनाव की घोषणा होते ही आंदोलन में शामिल सभी शक्तियां ‘लोकशाही बनाम तानाशाही’ के चुनावी युद्ध में जुट गईं और विजयी हुईं। आंदोलन, उसके लक्ष्य, उसके मूल्य पृष्ठभूमि में चले गए। आंदोलन से निकली जनता पार्टी की सरकार अंतर्कलह का शिकार हो गिर गई। 1980 में हुए मध्यावधि चुनाव में इंदिरा गांधी वापस! फिर क्या जेपी आंदोलन और उसके प्रभाव को इन्हीं घटनाओं में समेटा जा सकता है?
उस आंदोलन को पचास साल बाद कैसे याद करें? एक विफल आंदोलन जिसकी उम्र बमुश्किल तीन
साल रही, जो देश पर आपातकाल थोपे जाने का कारण बना और इसके उद्देश्यों को स्वयं जनता ने नकार दिया इंदिरा गांधी को वापस लाकर? एक ऐसा जन-उबाल जिसने समाज की स्थिर संरचना में हलचल मचा सब कुछ उलट-पुलट दिया? क्या यह भी मान लिया जाए कि जेपी आंदोलन इतिहास का एक गैर-जरूरी घटनाक्रम था?
जेपी आंदोलन की अर्धशती पर यह पुस्तक ‘जेपी आंदोलन और भारतीय लोकतंत्र’ ऐसे ही प्रश्नों पर गंभीर विमर्श करती है. वास्तव में जेपी आंदोलन को याद करने, उस पर चर्चा करने का अर्थ है भारत में आजादी के बाद की लोकतांत्रिक राजनीति और सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक परिवर्तनों पर विमर्श। लोकतंत्र में विमर्शों से नए रास्ते खुलते हैं।
दिन में डूबे हुए तारे रात्रि काल के मार्गदर्शक बन जाते हैं। लोकतंत्र की जब भी बात होगी इस पर संकट की काली बदली छाएगी, एक जगमग ज्योति हमें रास्ता दिखाएगी। आधी सदी बाद हम भारतीय लोकतंत्र की
यात्रा के एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव जेपी आंदोलन को इसी रूप में याद करें!