— विनोद कोचर —
जिन दिनों पश्चिमी यूरोप के देश और निवासी अपनी मौलिक सूझबूझ और ज्ञान शक्ति के सहारे विश्व पर अपनी भौतिक और मानसिक प्रभुता स्थापित करने की ओर अग्रसर हो रहे थे, उन दिनों की दुखद विडंबना ये है कि हमारे देश में केवल पुराने धर्मग्रंथों को लेकर शुष्क और निरर्थक वादविवाद होता था कि पंचगव्य(पंचामृत) कैसे बनाया जाए? उसमें गोमूत्र जादा मात्रा में हो या गोबर? वह दो दफा पीने से पुण्य मिलेगा या चार दफा पीने से?
महामहोपाध्याय आज भी एक महान पंडित माने जाते हैं।उन्होंने हिन्दू धर्मशास्त्र के इतिहास पर एक विख्यात ग्रंथमाला छः खंडों में, अंग्रेजी में लिखी है।आज भी विद्वान इस ग्रंथमाला को धर्मशास्त्र का आधिकारिक वर्णन मानते हैं।इसके प्रथम खंड के अंत में उन्होंने हिन्दू धर्मशास्त्र संबंधी साहित्य का मूल्यांकन किया है।इसमें उन्हें भी स्वीकारना पड़ा है कि:
“धर्मशास्त्र पर लिखने वाले पंडित धार्मिक व्यवहार में फैली अराजकता को व्यवस्थित करने और प्राचीन ऋषियों के आदेशों के अनुसार जनता के प्रत्यक्ष आचार व्यवहार में मेल बिठाने के नाम पर बाल की खाल निकालते थे।वे धार्मिक रीति रिवाजों तथा मंत्र तंत्र को मानवीय जीवन का सर्वस्व समझ बैठने के अपराधी थे।वे उत्तरोत्तर तंग गलियों और भूलभुलैयों में भटकते रहे।उन्मुक्त और उल्लसित वातावरण में समाज जीवन को नई दिशा देने जैसी दूरदृष्टि उनके पास नहीं थी”
(धर्मशास्त्र का इतिहास, प्रथम खंड, पेज 980)
इससे स्पष्ट होता है कि विश्व के एक हिस्से में जिस समय वैज्ञानिक शोध और अविष्कार के नए स्फुल्लिंग प्रस्फुटित हो रहे थे उस समय भारतीय समाज किस मनोवृत्ति का शिकार था।दुर्भाग्य तो इस बात का है कि आज दो सौ से अधिक साल बाद भी जनसाधारण के मानसिक चिंतन में कोई मौलिक परिवर्तन नहीं आया है।कुछ साल पहले पूर्ण सूर्यग्रहण के समय राजधानी दिल्ली में कोई आदमी घर से बाहर नहीं निकला और लाखों लोग कुरुक्षेत्र आदि तीर्थस्थानों में स्नान की तैयारी कर रहे थे।विज्ञान ने भारतीय जनसाधारण के मन को छुआ तक नहीं है। वही पुरातन विशुध्द कर्मकांड हमारे ऊपर हावी है।
– मधु लिमये
(स्रोत:मधुलिमये की किताब-‘स्वतंत्रता आंदोलन की)
(विचारधारा,पेज 16-17)