— ध्रुव शुक्ल —
कोई कहता है कि मंदिर है यहाॅं
कोई कहता है कि मस्जिद है
ये कोई बावरी-सी जिद है
ये ख़ुदाई कहीं रहीम-सी लगती है
कहीं राम-सी है
किसी को ऐसी लगे
पानी पे लिखे नाम-सी है
सबके आंगन में वो उतरी है
आस्मां की तरह
वो कभी सुबह-सी लगती है
कभी शाम-सी है
वो अपने में गुम नाम-सी है
शाम ढलते ही मस्जिदों से अजां उठती है
घण्टियां मंदिरों की बजती हैं
जैसे संगीत की महफ़िल हो कोई
हवाओं में घुली
अपनी ही किसी साॅंस पे अंगुली रखकर
बता सकोगे कभी —
मंदिर है कहाॅं!
मस्जिद है कहाॅं!