— विनोद कोचर —
1952 तो क्या,1967 तक भी आरएसएस के असली चरित्र को लोहिया नहीं पहचान पाए थे। लोहिया कम्युनिस्टों और कांग्रेसियों पर ही हमलावर बने रहे।आरएसएस के अनुदार, कट्टर और संकीर्ण हिंदुत्व के प्रति अपने ‘हिन्दू बनाम हिन्दू‘ शीर्षक से प्रसिद्ध भाषण में भी उन्होंने आरएसएस की विचारधारा पर उस तरह का सीधा हमला नहीं किया जैसा सरदार पटेल और जवाहरलाल नेहरू ने गांधी हत्या के बाद आरएसएस और उसकी विचारधारा पर किया था।बाद की घटनाओं से लेकर अब तक, आरएसएस/भाजपा के बारे में पटेल और नेहरू ही लोहिया की बजाय सही साबित हुए।
1967 में तो लोहिया ने जब आरएसएस की राजनीतिक शाखा ‘जनसंघ'(अब भाजपा) से हाथ मिलाया तो उनके ही पटु शिष्य मधु लिमये ने उन्हें ऐसा न करने के लिए आगाह किया लेकिन लोहिया की निष्पाप और सद्भाविक नीयत के कायल होने के कारण, लोहिया की जिद के आगेउन्हें घुटने टेकने पड़ गए थे।लेकिन मधु लिमये आरएसएस के बारे में अपनी निजी राय पर मरते दम तक कायम रहे।
हालांकि डॉ राममनोहर लोहिया ने ये बात अगस्त 1952 में, हैदराबाद में दिए गए अपने भाषण में, कम्युनिस्टों के संदर्भ में कही थी लेकिन वर्तमान भारतीय राजनीतिक परिदृश्य के आईने में लोहिया का ये निष्कर्ष आरएसएस और भाजपा परिवार पर हूबहू लागू हो रहा मालूम पड़ता है! पढ़िये, ‘मार्क्सवाद और समाजवाद‘ शीर्षक से प्रकाशित उनके 1952 के सुप्रसिध्द भाषण का ये अंश:- “किसी कम्युनिस्ट से यह कहना कि वह झूठ न बोले, व्यर्थ है। उसे यह कहना भी व्यर्थ होगा कि वह छल कपट का आचरण न करे।वह अपने को उस व्यक्ति से श्रेष्ठ मानता है जो उसे अच्छे आचरण का उपदेश देता है क्योंकि उसने अपने को एक बड़े और महान आदर्श के लिए(उसकी अपनी कल्पना के अनुसार) समर्पित कर रखा है।
“इसी तरह का रवैय्या धार्मिक क्षेत्र में भी देखा जा सकता है जहां अपने पूज्य देव या ईश्वर की सेवा में आदमी हर प्रकार के गलत काम कर सकता है।वह तर्क करता है: क्या भगवान कृष्ण ने झूठ, छल कपट और हत्या आदि बुरे कामों का सहारा नहीं लिया और क्या भारत की जनता ने उन्हें महान प्रेमी और ऋषि नहीं माना क्योंकि उसने जो भी किया, सत्य और प्रेम की रक्षा के लिए किया?”
(स्रोत: 1952का ‘मार्क्सवाद और समाजवाद’शीर्षक से)
(प्रकाशित लोहिया का सुप्रसिद्ध भाषण)