दुर्गेश कुमार मिश्रा की तीन कविताएँ!

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— दुर्गेश कुमार मिश्रा —

आधुनिक महाभारत – डिजिटल युग का संग्राम

कुरुक्षेत्र अब स्क्रीन पर सिमट आया है,
युद्ध अब डिजिटल रण में छिड़ाया है।
तीर-तलवार नहीं, अब ट्वीट के बाण हैं,
शब्दों से घायल होते महान वीरगान हैं।

अर्जुन की जगह अब “इन्फ्लुएंसर” आए,
गांडीव छोड़, बस रील्स ही बनाए।
कृष्ण ने मैसेज किया, अर्जुन ने पढ़ा नहीं,
कॉल भी किया, पर “नेटवर्क” चला नहीं!

धृतराष्ट्र अब ‘फेक न्यूज़’ में उलझे,
गांधारी की आंखों पर ‘ब्लू टिक’ चिपके।
संजय के लाइव में सच्चाई का अंश नहीं,
क्योंकि ‘वायरल’ वही जो बिके सबसे सस्ते कहीं!

भीष्म अब “फॉलोवर्स” के मोह में अटके,
गुरु द्रोण भी इंस्टा पर “रीच” में लटके।
दुर्योधन ने “हैशटैग वार” छेड़ दिया,
पांडवों को “ट्रोल आर्मी” ने घेर लिया!

द्रौपदी का चीरहरण फिर से हुआ,
अबकी बार ‘डीपफेक’ ने सब कुछ छुआ।
कोई बचाने न आया, सब ‘स्क्रॉल’ कर गए,
कमेंट में न्याय ढूंढते, लाइक देकर चल दिए।

युद्धभूमि अब वर्चुअल बनी,
नफरत, अफवाहें सब तरफ तनी।
मेम्स के हथियार, ट्रोलिंग की ढाल,
धर्म भी अब हो गया डिजिटल सवाल!

कृष्ण सोचें— “इस युद्ध को रोकूं कैसे?”
“गीता का ज्ञान दूं, पर सुनाए कौन वैसे?”
“नेट की स्पीड कम, डाटा हुआ खत्म!”
“अब अधर्म रोकने का और कोई उपाय रखूं?”

जब सत्य और न्याय अब “एल्गोरिदम” से तय हो,
जब युद्ध का सार “ट्रेंडिंग” में गुम हो,
तब सोचो— किस युग में आ गए हैं हम?
क्या फिर भी बच पाएगा धर्म??

नारी

नारी हो तुम, सृष्टि का आधार,
तुमसे ही जीवन का होता है संचार।
कभी माँ बन ममता लुटाती हो,
कभी बहन बन प्यार बरसाती हो।
कभी पत्नी बन साथ निभाती हो,
कभी बेटी बन घर को सजाती हो।
हर रूप में तुम हो अनुपम,
हर किरदार में तुम हो सक्षम।
तुम हो शक्ति का प्रतीक,
तुम हो प्रेरणा का स्रोत।
तुम हो ज्ञान का भंडार,
तुम हो कला का आधार।
तुमने रचा इतिहास,
तुमने बनाया समाज।
तुमने दिखाई दिशा,
तुमने जगाई आशा।
तुम हो नारी, तुम हो महान,
तुम हो इस जग की शान।
तुम्हें शत-शत नमन,
तुम्हें कोटि-कोटि वंदन।

मृत्यु संवाद: शाश्वत अनुगूँज

मैं:
हे मृत्यु, तेरा स्वर कैसा है?
क्या यह किसी युद्धभूमि की अंतिम चीख है,
या किसी तपस्वी की समाधि में विलीन मौन?
क्या यह विलय है, या पुनर्जन्म की अदृश्य वीणा?

मृत्यु:
मैं अनाहत नाद हूँ, जिसे तू सुन नहीं सकता,
मैं चिरंतन सत्य हूँ, जिसे तू देख नहीं सकता।
मैं न तो ध्वंस हूँ, न सृजन,
मैं तो वह मध्यबिंदु हूँ, जहाँ समय रुक जाता है।

मैं:
पर मैं जीवित हूँ! मेरी साँसें धड़कती हैं,
मेरे रक्त में इच्छाएँ चक्रवात बन दौड़ती हैं।
क्या तू मेरी आग को बुझा सकती है?
क्या तू मेरे विचारों को शून्य में विलीन कर सकती है?

मृत्यु:
आग बुझती नहीं, केवल रूपांतरित होती है।
तेरी चेतना मिटती नहीं, केवल विस्तार पाती है।
तू जो सोचता है, वही तुझे बाँधता है,
तू जो त्यागता है, वही तुझे मुक्त करता है।

मैं:
तो क्या तू मुक्ति है?
क्या तू उस अंतिम सत्य का द्वार है,
जहाँ न सुख है, न पीड़ा,
जहाँ न रूप है, न परछाईं?

मृत्यु:
मैं न आरंभ, न अंत, केवल एक परिवर्तन।
मैं उस मार्ग की अंतिम संध्या हूँ,
जहाँ तेरा “मैं” मिटता है,
और केवल शाश्वत अस्तित्व बचता है।

मैं:
तो क्या मैं तुझसे भयभीत हूँ?
या मैं तुझमें विलीन होने को व्याकुल हूँ?
क्या मैं तुझे शत्रु मानूँ, या तुझे अपने भीतर स्वीकार कर लूँ?

मृत्यु:
जो मुझे शत्रु समझता है, वह अज्ञान में जलता है।
जो मुझे स्वीकार करता है, वह स्वयं से परिचित होता है।
मैं कोई अंत नहीं, मैं द्वार हूँ,
मैं कोई वियोग नहीं, मैं संपूर्णता हूँ।

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