संत शिरोमणि संत तुकाराम महाराज की 395वीं पुण्यतिथि

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— डॉ. सुरेश खैरनार —

तुकाराम महाराज का जन्म सत्रहवीं सदी की शुरुआत में पुणे से लगभग 25 किलोमीटर दूर देहू नामक छोटे से गाँव में हुआ था। उनकी जीवन यात्रा कुल बयालीस वर्षों की रही। शूद्र कुणबी समाज में जन्मे तुकाराम ने अत्यंत प्रतिकूल परिस्थितियों में अपना जीवन व्यतीत किया। उन्होंने अपनी अंतर्निहित प्रतिभा, कठोर आत्मनिरीक्षण और संघर्षशीलता के बल पर अपना मार्ग स्वयं निर्मित किया।

समस्त मानव जाति के प्रति उनकी असीम करुणा ने उन्हें हर संकट का सामना करने की शक्ति दी। बिना किसी गुरु या मार्गदर्शक के, बिना किसी अधिकारिक पद के, उन्होंने एक सशक्त बीज से विशाल वृक्ष का रूप लिया और हर विरोध व विपदा को अपनी सृजनात्मक व्यक्तित्व-वृद्धि के अवसर में बदला।

तुकाराम महाराज का जीवन (1608-1650) उस समय के महाराष्ट्र में व्याप्त ब्राह्मणवादी वर्ण-श्रेष्ठता के विरुद्ध संघर्षरत वारकरी, नाथ, महानुभाव तथा सूफी संप्रदायों के बीच व्यतीत हुआ। इस काल में उत्तर भारत में मुगल आक्रमणों और दक्षिण में आदिलशाही, कुतुबशाही तथा निज़ामशाही के बीच चल रहे संघर्षों ने समूचे दक्कन को युद्धभूमि बना दिया था।

तुकाराम का जन्म भिमा और नीरा नदियों के मध्य स्थित क्षेत्र में हुआ था, जो लगातार युद्धग्रस्त रहा। वे एक साधारण किसान की तरह शादी कर खेती-किसानी में लगे रहे। लेकिन 1629-30 के भीषण अकाल ने उनके परिवार को गंभीर संकट में डाल दिया। जीवन के विविध अनुभवों का प्रभाव उनकी कविताओं (अभंगों) में स्पष्ट झलकता है। चार सौ वर्षों के बाद भी तुकाराम के अभंग महाराष्ट्र तथा अन्य राज्यों में फैले मराठीभाषी समाज की स्मृति में जीवंत हैं।

रवींद्रनाथ ठाकुर और तुकाराम के अभंग नासिक के तत्कालीन कलेक्टर रवींद्रनाथ ठाकुर के बड़े भाई थे, जिनके कारण ठाकुर नासिक और मुंबई आते-जाते रहते थे। इसी दौरान उन्होंने तुकाराम के कुछ अभंगों का बांग्ला भाषा में अनुवाद किया। तुकाराम के अभंगों में सामाजिक चेतना अकाल और गरीबी के कारण किसान परिवारों को जीविका चलाने के लिए सेना में भर्ती होना पड़ा, जिसका उल्लेख तुकाराम ने अपने अभंगों में किया है। मुस्लिम शासन के बावजूद महाराष्ट्र में धार्मिक तनाव नगण्य था, क्योंकि मराठा सरदार वास्तविक शक्ति रखते थे। लेकिन तुकाराम के अभंगों को पढ़ने पर प्रतीत होता है कि उन्हें यवनों (मुसलमानों) से अधिक कष्ट सनातनी ब्राह्मणों ने दिया।

उनकी गुरु परंपरा में बाबाजी दीक्षित, केशव चैतन्य और आदि गुरु राघव चैतन्य शामिल थे, जिनके शिष्यों में हिंदू, मुसलमान, जैन, लिंगायत, महानुभाव, वारकरी, ब्राह्मण, मराठा, तेलुगु, कन्नड़ भाषी सभी समाजों के लोग थे। यहां तक कि कुछ मुसलमान भी उनके भक्त बने और सूफी अवलिया के रूप में पूजे गए।

तुकाराम: जातिवाद और धार्मिक कट्टरता के विरुद्ध आवाज़

तुकाराम के अभंगों का बड़ा भाग जाति और धार्मिक कट्टरता के विरुद्ध एक तीव्र शस्त्र के रूप में उभरता है। उन्होंने अपनी जान की बाजी लगाकर मराठी भाषा में नए मूल्यों की स्थापना की और शूद्र होते हुए भी सभी के सद्गुरु का स्थान प्राप्त किया। मराठी साहित्य में उनकी बराबरी का कवि आज तक जन्मा नहीं है।

अंग्रेज़ों द्वारा तुकाराम के अभंगों का संकलन

यह मराठी भाषा प्रेमियों के लिए अत्यंत पीड़ादायक तथ्य है कि तुकाराम के अभंगों का पहला संकलन 1869 में अंग्रेज़ अलेक्जेंडर ग्रांट ने किया, जिसमें लगभग 45,000 अभंग संकलित थे। यह गाथा 1973 में सरकारी रूप से प्रकाशित हुई। हालांकि, तुकाराम भक्त और वारकरी त्र्यंबक कासार ने संत के गुप्त समाधिस्थ होने के सौ साल बाद गांव-गांव घूमकर मौखिक परंपरा से उनके अभंगों को संकलित करने का प्रयास किया था।

तुकाराम के अभंगों का कुछ अंश ही आज उपलब्ध है, शेष काल की धारा में लुप्त हो चुका है। ब्राह्मणवादी षड्यंत्रों के कारण बहुजन समाज का प्रतिभाशाली साहित्य और ज्ञान का विशाल भंडार दबा दिया गया।

आज की परिस्थिति और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

आज भी सरकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कुछ प्रतिबंध लगा रही है, किंतु पांच हजार वर्षों से वर्ण-श्रेष्ठत्व के कारण अभिव्यक्ति के गला घोंटने के अनगिनत उदाहरण मिलते हैं। तुकाराम महाराज के साहित्य को ब्राह्मणों द्वारा नष्ट किए जाने का इतिहास और आज की सेंसरशिप एक ही मानसिकता का नया रूप प्रतीत होते हैं। कट्टरपंथी ब्राह्मणवादी वर्ण-श्रेष्ठता के विरुद्ध संघर्ष आज भी जारी है।

तुकाराम, ज्ञानेश्वर और मराठी भाषा का योगदान

मराठी भाषा के मूर्धन्य विद्वान अशोक शहाणे ने 60 वर्ष पूर्व लिखा था— “मराठी भाषा का दुर्भाग्य है कि तुकाराम और ज्ञानेश्वर के बाद कोई दूसरा साहित्यिक जन्मा नहीं।” सच तो यह है कि संत ज्ञानेश्वर और तुकाराम का योगदान मराठी भाषा के लिए इतना महत्वपूर्ण रहा है कि आज हजार वर्षों बाद भी ज्ञानेश्वर और चार सौ वर्षों बाद भी तुकाराम महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के आम लोगों के हृदयों पर राज कर रहे हैं। इन प्रदेशों में कितने ही राजा और बादशाह आए-गए, परंतु जनता के मानस पर वास्तविक सत्ता आज भी संत तुकाराम, संत ज्ञानेश्वर और बसव अण्णा जैसे क्रांतिकारी संतों की है।

डॉ. राम मनोहर लोहिया और कट्टरपंथ बनाम उदारवाद

डॉ. राम मनोहर लोहिया के अनुसार, पांच हजार वर्षों से कट्टरपंथी ब्राह्मणवादी वर्ण-श्रेष्ठता और उदारवाद के बीच संघर्ष चल रहा है। बीसवीं शताब्दी के अंत में धार्मिक सहिष्णुता के स्थान पर फिर से कट्टरपंथ ने जगह ले ली। हिंदू महासभा, आरएसएस, तबलीगी जमात, इस्लामी कट्टरपंथी संगठन, ईसाई ज़ायोनी समूह और अन्य धार्मिक अतिवादी संस्थाएं विज्ञान और कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) के युग में भी कट्टरता को बढ़ावा दे रही हैं।

आज का राजनीतिक परिदृश्य

लैटिन अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस, इटली और अमेरिका में कट्टरपंथी शक्तियों का उदय—डोनाल्ड ट्रंप का राष्ट्रपति बनना और भारत में भाजपा जैसी हिंदुत्ववादी पार्टी का तीसरी बार सत्ता में आना—इस बात के प्रमाण हैं कि यह संघर्ष अब वैश्विक हो चुका है।

हमारा कर्तव्य: तुकाराम के विचारों की ज्योति जलाए रखना महात्मा गांधी, पेरियार, महात्मा फुले, डॉ. अंबेडकर, रवींद्रनाथ ठाकुर जैसे विचारकों को सनातनी ब्राह्मणवादियों ने हाईजैक कर उनकी विचारधारा को तोड़-मरोड़कर अपने स्वार्थ के लिए उपयोग किया।
आज, जब वैज्ञानिक सोच वाले नरेंद्र दाभोलकर, कॉमरेड पानसरे, प्रोफेसर कलबुर्गी और गौरी लंकेश जैसे लोगों की हत्याएं हो रही हैं, तब तुकाराम महाराज की पुण्यतिथि हमें केवल भजन-पूजन तक सीमित नहीं रखनी चाहिए।

हमें उनके विचारों के अनुसार जीना चाहिए। “जो बोलता है, वैसा ही आचरण करता है”— यही उनका संदेश था। महात्मा गांधी की हत्या भी तुकाराम की तरह चरमपंथी ने की। इसलिए, हम संकल्प लें कि तुकाराम और महात्मा गांधी द्वारा प्रज्वलित ज्योति को कभी बुझने नहीं देंगे।

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