— कुमार प्रशांत —
इतिहास तीन ही काम करता है दर्ज करता है, भूलता है और आगे चलता है। जो लोग, समुदाय या देश ऐसा नहीं कर पाते हैं, वे खुद की तरह ही इतिहास को भी कूड़ाघर बना डालते हैं. हमारा देश आज ऐसा ही कूड़ाघर बनता जा रहा है. चरित्रतः इतिहास न सदय होता है, न क्रूर; न किसी के पक्ष में झुका होता है, न किसी की तरफ़ तना होता है. वह सिर्फ होता है ताकि हम उसके आईने में अपनी बीती सूरतें देख कर, अपनी आज की सूरत सजा व संवार सकें. हम यह कर्तव्य जितनी शिद्दत से निभा पाते हैं, इतिहास हमारे भविष्य को वैसा ही आकार देता है. मतलब, इतिहास भूत-वर्तमान-भविष्य के तिहरे धागे से हमें जोड़ने वाली वह जीवंत शक्ति है जिसे हम पहचानने में अक्सर चूक जाते हैं.
इतिहास की त्रासदी यह है कि यह बनता है कितनी ही जानी-अनजानी ताकतों के सम्मिलित प्रभाव व प्रवाह से लेकिन हमेशा लिखा जाता है किसी एक आदमी की समझ व आकलन से. यह अत्यंत खतरनाक बात है. इसलिए इतिहास कभी एक स्रोत से न तो पढ़ा जाना चाहिए, न समझा जाना चाहिए. इतिहास के हर अध्येता के लिए जरूरी है गंभीर तटस्थता, खोज करने की बालसुलभव्यापक उत्सुकता तथा उद्देश्य के बारे में साफ समझ. यह न हो तो आप इतिहास के अध्येता या जानकार न हो कर इतिहास के विदूषक बन कर रह जाते हैं. हमारे यहां पिछले दसेक वर्षों में कुकुरमुत्तों की तरह इतिहासकारों की जो फसल पैदा हुई है, वह विदूषकों को भी शर्माने की कूवत रखती है. इनमें से कई ऐसे हैं जो सत्ता की अनुकंपा से पैसा कमाने के लिए इतिहासकार बन गए हैं. इनमें से कई नया इतिहास लिख रहे हैं तो कई ऐतिहासिक फिल्में बना रहे हैं. सच यह है कि ये दोनों अपना व्यवसाय कर रहे हैं.
इतिहास के इस बाज़ार में सबसे ताजा व्यापारी बन कर उतरे हैं दिनेश विजयन। उनकी फिल्म ‘छावा’ बक़ौल प्रधानमंत्री छा गई है. ‘छावा’ के निर्देशक हैं लक्ष्मण उत्तेकर, मराठी कथा-लेखक शिवाजी सावंत की इसी नाम की किताब, इस फिल्म का आधार है, ऐसा निर्देशक का दावा है. बताया जा रहा है कि ‘छावा’ ने भी वैसी ही कमाई की है जैसी तरह-तरह की फाइलों के नाम से बनी फिल्मों ने की है. अभी तक यह खबर कहीं देखी तो नहीं है कि प्रधानमंत्री अपने पूरे मंत्रिमंडल के साथ ‘छावा’ देखने बैठे. वैसे यह जरूरी है, क्योंकि प्रधानमंत्री ऐसी फिल्मों से ही अपना इतिहास जान पाते हैं. उन्होंने ही तो देश को बताया था कि जब तक रिचर्ड एटनबरो ने ‘गांधी’ फिल्म नहीं बनाई थी, तब तक दुनिया गांधी को जानती नहीं थी. यह सच है या नहीं, इसकी बहस हम करते रहें लेकिन प्रधानमंत्री के लिए यह बिल्कुल सच है, यह हमें मान लेना चाहिए.
हम अब ‘छावा’ और औरंगजेब-विवाद की ओर आते हैं. 1526 में मुगल साम्राज्य बाबर के साथ शुरू होता है और अकबर, जहांगीर, शाहजहां से होता हुआ औरंगजेब के हाथ आता है. हम देखते हैं कि बाबर से शाहजहां तक मुगल साम्राज्य अपेक्षाकृत सहजता से पिता से पुत्र तक पहुंचता रहा है लेकिन शाहजहां के वक्त इसमें पहली बार बड़ा व्यवधान पड़ता है. जैसी राजतंत्र की रवायत थी, शाहजहां अपने बड़े बेटे दाराशिकोह को राजगद्दी सौंपना चाहते हैं. लेकिन दूसरे नंबर के बेटे औरंगजेब को यह गंवारा नहीं है. उसे लगता है कि वह गद्दी का असली व सबसे योग्य अधिकारी है. वह असहमत पिता से बगावत करता है, दाराशिकोह को युद्द के मैदान में परास्त करता है और फिर उसकी हत्या कर, पिता शाहजहां को मृत्यु तक के लिए जेल में डाल कर गद्दी पर कब्जा करता है. ‘छावा’ जैसी फिल्म व दूसरे माध्यमों से, सरकारी समर्थन व प्रोत्साहन से यह प्रचारित करने की घुआंधार कोशिश की जा रही है कि औरंगजेब मदांध, क्रूर, धर्मांध तथा कई दूसरे कुटैवों का सिरमौर था. मेरे लिए यह समझना असंभव की हद तक कठिन है कि यदि औरंगजेब ऐसा था तो उससे कौन-सा ऐसा रहस्योद्घाटन होता है जिससे हमें आज अपना जीवन जीने या अपना देश चलाने में मदद मिलेगी ? मैं ऐसा कहता हूं तो सामने से तपाक से एक असली इतिहासकार’ बोल उठता है: “तो आपको इतिहास की सच्चाई जानने-बताने में कोई दिलचस्पी नहीं है ? अगर ऐसा है तो आपसे क्या बात की जाए… आप इतिहासकार ही नहीं हैं.”
मैं पूरी विनम्रता व दृढ़ता से कहता हूं, कहना चाहता हूं कि मैं वैसा इतिहासकार नहीं हूं जिसकी रोजी-रोटी सत्ताधीशों की भृकुटि से मिलती या छिनती है. ऐसा इतिहास उन्हें ही मुबारक हो जिनका जीवन-व्यापार इसी से चलता है. मैं उस इतिहास को खोलता-पढ़ता-समझता व समझाता हूं जो बताता है कि मेरा देश व मेरी दुनिया की ऐसी शक्ल-ओ-सूरत बनाने वाले प्रवाह कौन-कौन-से रहे हैं, वे कब व कैसे बने और उनसे हम क्या सीखें कि आज से बेहतर देश व दुनिया बना सकें. समय की इस आंधी में सूखे पत्तों जैसे उड़ते-गिरते अनेक पात्र भी आते ही हैं. वे अपने वक्त के आका नहीं होते, अधिकांश: उसके शिकार होते हैं. इतिहास पर इससे ज्यादा उनका प्रभाव होता नहीं है. मैं जानना चाहता हूं, और अपने समाज को बताना चाहता हूं कि औरंगजेब से पहले जो मुगल राजा हुए वे सब भी उतनी ही मनमानी करने वाले दमनकारी थे. कोई भी सत्ता बगैर दमन व कठोरता के न चलती है, न टिकती है.
मैं उसे बताना चाहता हूं कि बाबर से अकबर (1526-1605) के बीच के 79 वर्षों में यदि भारत में एक ऐसा बड़ा साम्राज्य खड़ा हुआ जैसा देश ने इससे पहले कभी देखा नहीं था, तो वह वैसे ही खड़ा तो नहीं हुआ होगा. साम-दाम-दंड-भेद सबका का पूरा इस्तेमाल हुआ होगा, हत्याएं करवाई गई होंगी, षडयंत्र रचे गए होंगे, विभीषणों को पाला-पोसा गया होगा. नवरत्न बना कर उनकी वफादारी सुनिश्चित की गई होगी. राज्य के हित व विस्तार के लिए रोटी-बेटी के संबंध बनाए गए होंगे. तब कोई भी साम्राज्य बनाने-टिकाने के लिए यह सब करना जरूरी होता था, सहज माना जाता
था. आज अपनी सरकार बनाने-चलाने-टिकाने के लिए यही सारे मोहरे नहीं चले जाते हैं क्या ? फिर औरंगजेब का इतना जाप क्यों हो रहा है? यह क्यों नहीं बताते हैं कि आरंगजेब से पहले क जहांगीर भी था जिसने सिख गुरु अर्जनदेव को मरवाया था. यह भी तो याद रखें हम कि अकबर ने अपने ही बेटे को काबू में करने के लिए हर हिंसक उपाय किए थे. उसने बेटे के समर्थक सरदारों को मरवाया नहीं था ? अनारकली की कहानी फिल्मी है कि सच्ची, इस पर थोड़ा विवाद है लेकिन इस पर भी कोई विवाद कर सकता है क्या कि राजमहल के भीतर ऐसी कितनी की लड़कियों की जिंदगी दफ्न होती रही है ताकि साम्राज्य निष्कलंक चलता रहे ?
औरंगजेब ने ज्यादा क्रूरता व संकीर्णता से अपना राज चलाया, क्योंकि उसे राज आसानी से मिला नहीं था. शाहजहां से उसके सर पर साम्राज्य का मुकुट नहीं धरा था, उसने कितने ही सर काट कर, पिता को कारावास में धकेल कर मुकुट छीन लिया था. जो छीन कर मिलता है, वह ज्यादा असुरक्षित होता है. उस पर ज्यादा गिद्ध-दृष्टि लगी होती है. इसलिए औरंगजेब को हर वक्त चौकन्ना रहना पड़ता है, और कहीं से छाया भी उठे तो उसका सर कलम करने की तैयारी रखनी पड़ती है. वह छाया हिंदू की है कि मुसलमान की कि किसी दूसरे मतवाद वाले की, यह देखने का अवकाश भी उसके पास नहीं है. लेकिन दूसरे सम्राटों की तरह औरंगजेब को पता है सबको साथ भी रखना जरूरी है. इसलिए उसने भी मंदिरों को दान दिया है, विद्वानों का सम्मान किया है, हिंदू शासकों से समझौते किए हैं. उसके दरबार में बड़ी संख्या में हिंदू अधिकारी व सिपहसालार हैं. सवाई राजा जयसिंह को भूल जाएं आप तो इतिहास का क्या होगा भाई। और यही जयसिंह हैं जो संभाजी को शरण भी देते हैं. संभाजी को धोखे से कैदी बनवाने वाले कौन हिंदू सिपहसालार थे, यह भी याद कीजिए. संभाजी की हत्या के बाद संभाजी का अबोध बेटा साहूजी महाराज किसके यहां पला? औरंगजेब के यहां ! इस तरह उसकी परवरिश हुई कि औरंगजेब की मृत्यु के बाद वह नंगे पांव उनकी कब्र पर जाता रहा. यह सब भी तो इतिहास ही है न! इसे हम नहीं पढ़ें क्या? फिर इतिहास पढ़ें ही क्यों ?
औरंगजेब में जिनकी इतनी दिलचस्पी है, वे अशोक का अध्ययन क्यों नहीं करते? वह तो ‘चंडाशोक’ कहलाता था. कहते हैं कि कलिंग युद्ध से पहले तक उसे अपनी तलवार सूखी देखना बहुत नागवार होता था. वह अपने अनगिनत भाइयों को मरवा कर राजा बना था. राजशाही के इतिहास में भाई सबसे बड़ा खतरा होता था. वह हर तरह से बराबरी की हैसियत रखता था, राज्य में उसके अपने लोग हुआ करते थे. वह हमेशा राज्य के उत्तराधिकारी के सर पर तलवार की तरह लटकता होता था. इसलिए अधिकांश सम्राटों ने अपने भाइयों को साफ़ कर, अपना रास्ता साफ़ किया है. और आज ? प्रधानमंत्रियों ने प्रधानमंत्री पद हथियाने के लिए अपनी पार्टी के भीतर कितना ग़दर मचाया है, इसका देश-दुनिया का इतिहास भी पढ़िए, फिर क्रूरता आदि का फैसला कीजिए.
इतिहास ही हमें बताता है कि क्रूरता व वीरता के बीच रत्ती-मासे का फर्क होता है. यह भी होता है कि एक के लिए जो क्रूरता है, दूसरे के लिए वही वीरता है. इसलिए इतिहास तटस्थता की मांग भी करता है और विवेक की भी. उसकी नक़ल करना, उसके प्रेत से लड़ना, तब का बदला आज चुकाना जहरीली अभद्रता है, अश्लीलता है, सांप्रदायिकता है. यह आदमी को वहशी बनाती है, समाज को तोड़ती है, राष्ट्रों को धूल में मिला देती है. हम अपना 1947 याद रखें जब हमने अपना ही मुल्क धूल-धूल कर लिया था. उस इतिहास के खलनायकों को खोजिए व पढ़िए ।
इतिहास सावधान करता है: देखो, मुझे समझे बगैर पढ़ते-लिखते-आंकते हो, प्रचारित व प्रसारित करते हो तो तुम भी औरंगजेब हो, क्योंकि हम सबके भीतर औरंगजेब नाम का एक सांप पलता है. उसे दूध पिलाना अपने अंतर्मन को जहर से भरना है. इसलिए मैंने जो दर्ज किया है, उसे जरूरी हो तो पढ़ो; पढ़ो तो गहराई से समझो; और समझो तो यह समझो कि आज इससे आगे चलने में क्या मदद मिलती है. आज के भारत राष्ट्र को समेट-संभाल कर आगे ले चलने में ‘छावा’ मदद नहीं करती है, क्योंकि यह इतिहास का व्यापार करती है, इतिहास समझाती नहीं है.