प्रकृति को बचाने के लिए नया आर्थिक मॉडल

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— दीपक धोलकिया —

हात्मा गांधी ने जब कहा कि “The world has enough for everyone’s needs, but not enough for everyone’s greed” (दुनियामें सब की ज़रूरत को पूरा करने के लिए काफ़ी है, लेकिन लालच को संतुष्ट करने के लिए काफ़ी नहीं है) तब इस कथन की गहराई को किसीने नापा नहीं। अगर नापा होता और इसका अर्थ समझ में आया होता तो पर्यावरणीय संकट का आज सामना नहीं करना पड़ता। गांधीजी ने उपभोग की संस्कृति का पर्दाफाश कर दिया था लेकिन दुनिया ने इसे समझा नहीं। हमारे देश में तो त्याग का महिमा मंडन होता रहा है, इसलिए हमने भी इसे एक कान से सुना और  ‘संतवाणी’ मान कर दूसरे कान से निकाल दिया। लेकिन ये शब्द  एक आर्षदृष्टा अर्थनीतिकार के थे जिसे केवल अर्थशास्त्र से नहीं बल्कि जीवन के अर्थशास्त्र से संबंध था। यह अलग बात है कि गांधीजी को किसी अर्थशास्त्री ने अर्थशास्त्री नहीं माना। ज़ाहिर है, किसी शास्त्र को कभी मानवीय जीवन की वास्तविकताओं के साथ जोड़ा नहीं जाता। गांधी का अर्थशास्त्र मानव-सापेक्ष है।

गांधीजी की बात न सुनने की सज़ा आज हम भुगत रहे हैं। आज दुनिया में पर्यावरण के संकट के लिए हमारी सरकारों की उपभोक्तावादी, पूँजीवादी नीतियाँ ज़िम्मेदार हैं।  हमारी सरकार और सारी दुनिया की सरकारें, पूँजीवादी व्यवस्था के तहत चल रही हैं  जिससे प्रकृति का नुकसान हुआ है,आज यह विश्वव्यापी समस्या बन चुका है।

इन नीतियों का बुरा असर सब पर पड़ता है। ऋतुएं अनिश्चित हो जाती हैं, बारिश का पैटर्न बदल जाता है, जिसका असर खेती  पर होता है। दूसरी ओर पूँजीवादियों की माँग पर जंगल बर्बाद हो रहे हैं। जंगल से खनिज तो निकाला जाएगा जो राष्ट्र की संपत्ति है, लेकिन वन में न जाने कबसे बसे हुए आदिवासियों का उस पर अधिकार नहीं है। चरागाहों को उद्योग और खनन के लिए सौंप दिया जाता है। कभी सेंकड़ों की संख्या में भेड़-बकरियाँ, गाय-भैंस, ऊँट, याक रखने वाले पशुपालक आज कच्छ के रण से हिमालय तक के प्रदेश में चरागाहों की कमी के कारण अपना पशुधन बेचने के लिए मजबूर हो रहे हैं। अब  बड़ी मशीनें  वहाँ धुँआँ उगलती हैं। यह केवल धुँआँ नहीं हैं, जानलेवा बीमारियाँ हैं। आज गाँवों का जीवन, नदियों का बहना फ्लाईऍश, धूल, मिट्टी से सन गया है।  एक दिन  हमारे दुधारु पशु हमें चिडिय़ाघरों में  ही देखने को मिलेंगे या स्कूली किताबों में  छपी तसवीरों में क दिन आएगा कि हम दूध भी आयात कर के पिएंगे और  भेड़बकरियों से मिलने वाले कुदरती ऊन  की बातें किसी क़िस्सागो से ही सुनने को मिलेंगी।

नदियों में व्यापार की सुविधा के लिए जलमार्ग बनाए जा रहे हैं, व्यापारी मछुआरा जहाज़ आते हैं और मछलियाँ बटोर कर ले जाते हैं इससे मछलियों का वंशनाश होने लगा है क्योंकि छोटे मछुआरे शिशु मछलियों को प्रजनन की क्षमता की आयु तक पहुँचने देते हैं लेकिन बड़े जहाज़ों की जालों से किसी का बचना मुमकिन नही है। इतना ही नहीं, तटों के आरक्षित क्षेत्रों का विस्तार आधा कर दिया गया है और वहाँ होटल बनने लगे हैं। छोटे मछुआरे के लिए मछली पकड़ने के बाद उस पर संस्करण प्रक्रिया करने के लिए जगह भी नही बचती है। यह सब मुनाफे के लिए हो रहा है।

 आदिवासियों कि बात करें तो आज़ाद भारत की सरकारों ने अंग्रेज़ी शासन से मिली वन विभाग की विरासत को न केवल अच्छी तरह संभाला है बल्कि उसका संवर्धन कर के और पुख़्ता बनाया है। अब वन विभाग को इतनी सत्ता दी गई है कि फोरेस्ट गार्ड द्वारा किया गया ख़ून, ख़ून नहीं माना जाता। वन विभाग वन का मालिक है और वन में रहने वाले आदिवासी, अन्य निवासी और वन के बाहर, परंतु वन की संपत्ति पर गुजरबसर करने वाले, लोगों को चोर क़रार दिया जाता है। 

छोटे किसान, जो अपने परिवार का पेट पालने भर का उत्पादन करते हैं, आधुनिक मशीनरी, फर्टीलाइज़र का इस्तेमाल करना उनके बस में नहीं हैं उनकी ज़मीनें सड़कें बनाने में चली जाती हैं। औद्योगिक कोरीडोर की एक भयानक योजना तैयार है, जिसका नक़्शा देखेंगे तो केवल मालगाड़ियों के लिए बनी पटरियाँ ही दिखेंगी, खेत तो खेत, भारत ही कहीं ढूँढे नहीं मिलेगा। किसान बेहाल है।  94  प्रतिशत किसान खेती के अलावा और काम कर के आजीविका चलाते हैं,उसकी आमदनी में खेती का हिस्सा  केवल 15 फीसदी है। 

एक ओर से पर्यावरण का संकट गहराता जाता है और दूसरी ओर से  पूँजीवादी नीतियाँ थमने का नाम नहीं ले रहीं। किसान, मछुआरे, आदिवासी, पशुपालक प्राथमिक उत्पादक हैं, जो प्रकृतिजीवी हैं। प्रकृति के संकट के लिए ये समुदाय ज़िम्मेदार नहीं है, लेकिन इसका खामियाजा केवल ये ही लोग भुगतते हैं। सरकारी नीतियों का सबसे बुरा प्रभाव प्रकृतिजीवी समुदायों और  प्राकृतिक सामग्री का इस्तेमाल करने वाले, कुम्हार, बुनकर जैसे कई कारीगरों पर पड़ता है। कुल मिलाकर, वे 60 करोड़ से अधिक हैं, मतलब कि हमारी आधी से अधिक आबादी इन्हीं लोगों की है। देश  में 14.6 करोड़ छोटे और सीमांत किसान, 14.4 करोड़ खेतीहर मजदूर (उनमें बड़ी संख्या दलितों की है), 27.5 करोड़  आदिवासी, अन्य वननिवासी और वनोपजीवी लोग, 2.8 करोड़ मछुआरे, 1.3 करोड़ पशुपालक और 1.7 करोड़ कारीगर हैं जो सीधे तौर पर प्रकृति के साथ और प्रकृति के भरोसे काम कर रहे हैं लगभग 6 करोड़ मौसमी मजदूर हैं जो काम की खोज में  लगातार अपने गांव से बाहर जाते हैं और लौटते हैं वे अपनी आजीविका के लिए काम करते हैं, कि मुनाफ़ा कमाने के लिए। वे प्रकृति को बचाते हैं, उसकी पूजा करते हैं। प्रकृति के वे संरक्षक और सैनिक हैं, प्रकृति उनकी पालनहार है।  लेकिन वे  गाँव और  शहर के बीच भटकते रहने वाले प्रवासी मजदूर  बन गये हैं। इस आधी आबादी के लिए किसी भी पोलिटिकल पार्टी के पास कोई कार्यक्रम नहीं है। पार्टी पोलिटिक्स से ऊपर एक असली पोलिटिक्स है। जो इस पोलिटिक्स में विश्वास करता है उसके एजेंडा पर प्रकृतिजीवी समुदाय होना ही चाहिए।

अगर प्राकृतिक संकट से ऊबरना है तो प्रकृति के संकट को राजनीति के नज़रिए से देखना होगा हमें देखना होगा कि क्या हमारी आर्थिक व्यवस्था और उसके लिए चलने वाली राजनी तिक व्यवस्था प्रकृति को बचाने के लिए सक्षम या इच्छुक है? हमें अब प्रकृतिजीवी समुदायों को केन्द्र में रख कर नीतियाँ बनानी होगी। हम मध्यवर्गीय लोग मुख्य रूप से उपभोक्ता हैं। हम कैसे प्रकृति को बचाएंगे? प्रकृति को बचाना व्यक्तिगत मुद्दा नहीं है कि हमने एक पौधा लगा दिया और प्रकृति को बचा लिया। इतने से नहीं चलेगा। सरकार की नीतियों में बदलाव ज़रूरी है और इसलिए हमें आज के आर्थिक मॉडल की जगह नई तरह का मॉडल अपनाना होगा। 

अगर हम अपने बच्चों कोऔर उनके भी बच्चों को  बचाना चाहते हैं तो प्रकृतिजीवी समुदायों को केन्द्र में रख कर, हमारी वन नीति, जल नीति, व्यापार नीतिसब में बदलाव लाना होगा, यहाँ तक  कि मानव अधिकार की अवधारणा का भी पारिस्थितिकी के साथ मेल बिठाना होगा। मानव अधिकार भी इस तरह लागू नहीं किये जाने चाहिए  कि जिससे जैविक परिवेश का नुक़सान हो।  इसका मतलब है कि  अगर हमें काम का अधिकार है तो भी ऐसा काम नहीं कर सकते जिससे प्रकृति का नुक़सान हो रहा है।

प्रकृति को केन्द्रीकरण पसंद नहीं है। वह हर जगह एकसी नहीं होती। दो पहाड़, दो नदियाँ , दो जंगल एकसमान नहीं होते। उनके पेड़पौधे, जीवजंतु अलग होते हैं, इतना ही नहीं, वहाँ बसे हुए लोगों की संस्कृति भी अलग होती है। इस लिए प्राकृतिक संसाधनों की  कोई एक नीति या एक केन्द्रीकृत व्यवस्था नहीं  चल सकती है। पूँजीवादी अर्थव्यवस्था स्वभावतः एकाधिकारवादी है और वह असमानता की नींव पर ही खड़ी होती है इस व्यवस्था में ग़रीबी और बेरोज़गारी अनिवार्य है। इसलिए हमें विकेन्द्रित अर्थ व्यवस्था लागू करनी होगी। रास्ता तो जे. सी. कुमारप्पा, जिन्हेंगांधी का अर्थशास्त्री  होने की पहचान मिली है, ने बताया है कि कैसे हम प्रकृति से जुड़े रह कर विकास भी कर सकते हैं। या तो याद करें  शूमाकर को, जिन्होंने अपनी छोटी-सी पुस्तक Small is Beautiful लिख कर  बड़े पैमाने पर उत्पादन की अर्थव्यवस्था को चुनौती दी है।

इस नई आर्थिक प्रणाली को व्यवहार में लागू करने के लिए चाहे संविधान में संशोधन करना पड़े, नए कानून बनाने पड़े, मौजूदा कानूनों में सुधार करना पड़े, सब करना चाहिए। सरकारों को नागरिकों के प्रति जवाबदेह बनाए बिना प्रकृति को बचाया नहीं जा सकेगा। प्रकृतिजीवी समुदायों – किसानों, मछुआरे, आदिवासी और अन्य वन-निवासी तथा पशुपालकों – को एक मंच पर लाना हमारा फ़र्ज़ है। प्रकृतिजीवी समुदायके रूप में नई अस्मिता को स्थापित करना होगा।

 सही काम ग्रामसभाओं से शुरु होगा क्योंकि प्रकृतिजीवी लोग गाँवों में ही बसते हैं। इन समुदायों का सदस्य ग्राम सभा का भी सदस्य होता है। इसलिए, इनके लिए काम करना है तो  गांधी के बताये रास्ते पर चल कर ग्रामसभाओं को भी सशक्त बनाना होगा।  ग्लोबल वॉर्मिंग हमारी आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था की देन है। इसका मुक़ाबला भी नई आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था से ही किया जा सकता है। ऐसा नहीं होगा कि हम उपभोगवादी नीतियाँ चालू रखें और पर्यावरण के संकट का भी हल ढूँढने में कामयाब हो जाएं। इससे कम जो भी करेंगे वह केवल अपना दिल बहलाने का खेल होगा। 

यह समझ ही वैकल्पिक राजनीति है।

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