— ओम थानवी —
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्तिद्वय सुधांशु धूलिया और के. विनोदचंद्रन के पीठ ने उर्दू के हवाले से हिंदी-उर्दू और देश की गंगा-जमुनी तहज़ीब के बारे में जो कहा, वह बरसों याद रखा जाएगा। विद्वत्तापूर्ण और बड़े दिल का फ़ैसला। तार्किक स्थापनाओं से भरा।
महाराष्ट्र में किसी बोर्ड पर मराठी के साथ उर्दू प्रयोग के विवाद में फ़ैसला सुनाने की शुरुआत न्यायमूर्ति धूलिया ने अल्जीरियाई मूल के लेखक मूलूद बिनज़ैदी के एक कथन से की: “जब आप कोई भाषा सीखते हैं तो आप बोलना और लिखना ही नहीं सीखते। आप समूची मानवता के प्रति खुलापन, उदारता, सहिष्णुता, दयाभाव और सहानुभूति रखना भी सीखते हैं।”
न्यायपीठ के फ़ैसले के भावार्थ को हम कुछ इस तरह देख सकते हैं:
— हमें अपनी भ्रांत धारणाओं को, और शायद किसी भाषा के प्रति अपने पूर्वग्रहों को भी, साहस और ईमानदारी से उस सचाई की कसौटी पर परखना होगा, जो हमारे राष्ट्र की शानदार विविधता है: हमारी ताक़त, जो कभी हमारी कमजोरी नहीं हो सकती।
— यह एक ग़लतफ़हमी है कि उर्दू विदेशी भाषा है। वह इसी देश की धरती पर जन्मी। हमें उर्दू और अन्य हर भाषा से दोस्ती का रिश्ता बनाना चाहिए।
— पहले हम अपनी अवधारणाओं को स्पष्ट कर लें। भाषा मज़हब नहीं है। भाषा किसी मज़हब का प्रतिनिधित्व भी नहीं करती। भाषा समुदाय, क्षेत्र और लोगों से संबंध रखती है — किसी धर्म विशेष से नहीं।
— भाषा संस्कृति है। भाषा किसी समुदाय और उसके लोगों की सभ्यता के विकास को मापने की कसौटी है।
— इस तरह उर्दू गंगा-जमुनी तहज़ीब, या कहिए हिंदुस्तानी तहज़ीब, की बेहतरीन मिसाल है — जो उत्तर और मध्य भारत के मैदानों की समग्र सांस्कृतिक विरासत है।
— मगर इससे पहले कि भाषा शिक्षा का माध्यम बने, उसका आदिम और प्राथमिक उद्देश्य संचार है जो सदा क़ायम रहेगा।
— हमें अपनी विविधता का सम्मान करना चाहिए, उसमें आनंद लेना चाहिए। हमारी भाषिक विविधता भी इसमें सन्निहित है।
— भारत में सौ से ज़्यादा अहम भाषाएँ हैं। इनके अलावा ऐसी भाषाएँ भी हैं, जिन्हें बोलियों या माँ-बोली के रूप में जाना जाता है। उनकी तादाद भी सैकड़ों में है। देश में सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषाओं में उर्दू छठे स्थान पर है।
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