— रमाशंकर सिंह —
हमने पिछले पचास पचपन बरसों से इस संवैधानिक प्रावधान का सबसे अधिक इस्तेमाल करते जनसंघ भाजपा और उनके आनुषंगिक संगठनों को देखा है। ये सब राजनीतिक संगठन सक्रिय विपक्ष की भूमिका में रहते रहे हैं। किसी भी राजनेता की सांकेतिक अर्थी निकालना , उसे जलाना , छाती पीट पीट कर हाय हाय करना , जुलूस , रैली और विरोध में राजघाट पर नाचना आदि तरह तरह से अपना उग्र विरोध प्रकट करते थे । पुलिस जब तक लाठी चार्ज करने पर विवश न हो जाये तो विरोध प्रदर्शन का सार्थक होना नहीं माना जाता था। यह विरोध लगभग हर दूसरे तीसरे हफ़्ते होता ही रहता था।
समाजवादी भी जमकर विरोध करते थे , पुलिस से पीटे जाते थे , जेल भी जाते थे । कम्युनिस्ट प्रदर्शनकारी भी अपनी संख्या से ज़्यादा लाल झंडे लेकर कभी कभी खाना पूर्ति करते थे। किसी भी शहर की मात्र दीवारें तो लाल निशान से पटी रहती थीं जो काम बाद में बहुजन समाज ने किया – दीवारों पर राज ! लेकिन विरोध को कभी किसी सत्ता ने देशद्रोह नहीं कहा बाक़ी सब कुछ कहा जाता था।
यह इंदिरा गांधी कार्यकाल में शुरु हुआ कि जो भी विरोध करे तो चापलूसी मे ंकांग्रेसी देश द्रोही कहने लगते थे। तब प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी को ‘ indira is india ‘ कहा जाता था इसलिये भी । अब प्रधानमंत्री मोदी को भाजपा अध्यक्ष नड्ढा ने ‘ देवताओं के देवता ‘ कहा है बाक़ी नेता व अनुयायी और कुछ पत्रकार भी उन्हें दैवीय शक्ति वाला कहते ही रहते हैं। स्वयं मोदी खुद को ‘ नॉन बायोलॉजिकल ‘ जैसा कह ही चुके हैं। बार बार विष्णु का अवतार तक घोषित हो रहे हैं । यह सब यहीं नहीं रुक रहा , गृह मंत्री शाह को किसी ने हनुमान का अवतार कह दिया है ।
ऐसे में राजनीतिक ‘ प्रसाद ‘ के आकांक्षी लोग व प्रशासन वर्तमान सरकार की नीतियों की आलोचना को देशद्रोह कहने मानने लगते हैं और ‘ more loyal than the king ‘ लोग आलोचकों असहमतों के खिलाफ देशद्रोह का मुक़दमा करवाते रहते हैं। इसकी परवाह नहीं करनी चाहिये!
बोलना ज़रूरी है , आलोचना ज़रूरी है । नीतिगत असहमति जरूरी है और उसे व्यक्त करना भी। बस इतना ही देखना चाहिये कि हम कहीं सचमुच ही किसी राष्ट्र विरोधी योजना का हिस्सा तो नहीं बन रहे। सरकार की आलोचना राष्ट्र विरोधी नहीं होती । यदि ऐसा होता तो आज की सत्ताधारी पार्टी यह काम लंबे अरसे से कर रही है १९४७ से २०१४ तक , बीच की पांच साला अवधि वाजपेयी जी के प्रधानमंत्री काल की भी हटा दीजिये ।
यह कैसी विडम्बना है कि आलोचना करना बेहद कम हो गया है। समाज कायर भीरु डरपोक हो गया है। मीडिया सरकार की आरती कर रही है । अधिकांश विपक्षी कांग्रेसी कार्यकर्ता भी डरते हैं , उनका कुल राजनीतिक कर्म हैं अपने नेताओं की अगवानी और माला डालकर फोटो खिंचवाना । संघर्ष उन्हें कभी सिखाया ही नहीं गया जैसे कि विचार प्रशिक्षण शून्य है । अन्य नेता अभिमुख पार्टियों का भी ऐसा ही हाल है । यह लोकतंत्र के लिये चिंता का विषय है ।
मैं कभी भी मिला नहीं हूं पर लोकगायिका नेहा सिंह राठौर की तारीफ़ होनी चाहिये कि वे बोलतीं तो हैं और लगातार ! उनमें युवोचित साहस है और वह बडी चीज है । कोई उनसे सहमत हो या नहीं पर उनके विरोध के अधिकार को पूरी ताकत से बचाना चाहिये जैसे कि कभी जनसंघ या भाजपा के विरोध को तत्कालीन‘ राजनीतितंत्र ‘ ने बचाया था !
वर्तमान राजनीतिक सत्ता अनंतकाल तक नहीं चलेगी लेकिन लोकतंत्र चलना चाहिये , भारतवर्ष चलना चाहिये। भारत है तो हम हैं !