— रणधीर कुमार गौतम —
समाजवादी क्रांति की पृष्ठभूमि शायद विश्व की तमाम विचारधाराओं में सबसे अधिक वैश्विक रही है। दुनिया भर में विभिन्न क्रांतिकारी आंदोलनों के पश्चात जब समाज-निर्माण के अनेक सामूहिक लक्ष्य उभरे, तो उनमें समाजवादी विचारधारा का अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान रहा। विश्व में जहाँ भी असमानता, अत्याचार और शोषण के विरुद्ध आवाज़ उठी है, वहाँ समाजवादी आंदोलन ने निर्णायक हस्तक्षेप किया है। फ्रांस की क्रांति से लेकर रूस की क्रांति और बाद में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम तक, समाजवादी आंदोलन ने समाज-मुक्ति का एक नया प्रतिमान स्थापित किया। पेरिस कम्यून के घोषणापत्र में कहा गया है कि “कम्यून क्रांति ने प्रयोगात्मक, सकारात्मक और वैज्ञानिक राजनीति का एक नया युग आरंभ किया है।”
व्यक्ति, समाज और संस्कृति को सामाजिक न्याय की ओर उन्मुख करने में इस विचारधारा ने अनेक प्रतिमान स्थापित किए हैं अल्बर्ट आइंस्टीन ने Why I am a Socialist में और एनी बेसेंट ने Why I am a Socialist में यह विचार प्रस्तुत किया है कि समाजवादी होने का वास्तविक अर्थ क्या है। सामूहिक प्रयास से समतामूलक समाज निर्माण की प्रेरणा समाजवादी सिद्धांत की नियति रही है।
ब्रिटेन के समाजविज्ञानी सी.ई.एम. जोड ने कहा है, “समाजवाद एक ऐसी टोपी है, जिसे हर कोई अपने अनुसार पहन लेता है।” इसके साथ ही रूसो की Discourse on Inequality से प्रारंभ हुआ यह विमर्श यूरोपीय समाजवाद से होते हुए सेंट-सिमोनियन, रॉबर्ट ओवेन, लुई ब्लांक जैसे चिंतकों तक पहुँचा। जर्मन समाजवाद के प्रभाव में गॉटलिब फिश्टे, मोसेस हेस के विचार सामने आए। समाजवाद का यह चिंतन कार्ल मार्क्स और एंगेल्स की क्रांतिकारी विचारधारा से आगे बढ़ा। अनार्किज़्म की धारा में मिखाइल बकुनिन, पीटर क्रोपोटकिन, जॉर्ज सोरेल और जी.डी.एच. कोल के विचार प्रमुख रहे। फ़ेबियन समाजवाद की परंपरा में सिडनी वेब, जाँ जोरेस और कार्ल काउट्स्की उल्लेखनीय हैं। रूसी क्रांति के संदर्भ में जॉर्जी प्लेखानोव, व्लादिमीर लेनिन, लिओन ट्रॉट्स्की और अंतोनियो ग्राम्शी, सी.ए.आर. क्रॉसलैंड जैसे विचारकों ने समाजवाद को एक व्यापक वैश्विक आयाम प्रदान किया।
समाजवादी विचारधारा ने समूचे विश्व में विस्तार पाया और भारत में महात्मा गांधी के आंदोलन के माध्यम से इसे एक नई परिभाषा और दर्शन मिला।
सी. हेर्नशॉ (C. Hearnshaw) ने समाजवाद को Six E’s के माध्यम से परिभाषित किया है:
1. The exaltation of the community above the individual;
2. The equalization of human conditions;
3. The elimination of the capitalist;
4. The expropriation of the landlord;
5. The extinction of private enterprise; and
6. The eradication of competition.
नोबेल पुरस्कार विजेता जे. टिनबर्गन (J. Tinbergen) ने कहा है कि “समाजवाद का सार मनुष्यों के बीच एकजुटता के संस्थानीकरण और इस मान्यता में निहित है कि अंततः समुदाय अपने सभी सदस्यों की भलाई के लिए उत्तरदायी है।” भारत की धरती समाजवादी आंदोलन के लिए सबसे उपजाऊ (fertile) भूमि रही है। भारतीय समाजवाद का उद्भव भले ही अपेक्षाकृत नया हो, लेकिन इसका वैचारिक अतीत अत्यंत समृद्ध और पुरातन है। यह विचारधारा देशज आग्रहों और भारतीय समाज की सांस्कृतिक एवं दार्शनिक समझ के साथ विकसित हुई। 1885 में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई के लिए कांग्रेस की स्थापना की गई थी, किंतु यह संस्था मुख्यतः पढ़े-लिखे मध्यवर्गीय नेतृत्व के माध्यम से अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष कर रही थी। परंतु महात्मा गांधी के उदय के साथ ही समाजवादी विचारधारा से प्रेरित हजारों युवाओं ने स्वतंत्रता आंदोलन और समाजवादी आंदोलन के माध्यम से स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भागीदारी की। औपनिवेशिक वर्चस्व से मुक्ति के लिए राष्ट्रवाद की प्रेरणा के साथ समाजवाद ने भारतीय राजनीति को एक नया स्वरूप प्रदान किया। दादाभाई नौरोजी और पंडित सुंदरलाल की पुस्तकों से प्रेरणा लेकर समाजवादियों ने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए आर्थिक राष्ट्रवाद (economic nationalism) के प्रश्न को भारतीय जनमानस में फैलाने का कार्य किया।
भारतीय समाजवादी आंदोलन, एक ओर कार्ल मार्क्स और भगत सिंह के विचारों से प्रभावित रहा, वहीं दूसरी ओर उसने हमेशा महात्मा गांधी को अपना सबसे बड़ा मार्गदर्शक माना। चंद्रशेखर आज़ाद के नेतृत्व में हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी ने युवाओं को समाजवाद के करिश्मे से परिचित कराया। बाद में भगत सिंह के भाई कुलतर सिंह और कुलबीर सिंह भी समाजवादी बने और 1936 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य बने। जवाहरलाल नेहरू पर भी समाजवादी विचारधारा का स्पष्ट प्रभाव देखने को मिलता है।
आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण, डॉ. राममनोहर लोहिया, युसुफ मेहर अली, अच्युत पटवर्धन, मीनू मसानी, अरुणा आसफ़ अली, और कमला देवी चट्टोपाध्याय जैसे प्रमुख नेताओं ने इस आंदोलन को आगे बढ़ाया। भारतीय समाजवादी आंदोलन को परिभाषित करने में आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, अशोक मेहता, और डॉ. सम्पूर्णानंद जैसे नेताओं ने महत्वपूर्ण योगदान दिया। इसके साथ ही भगवानदास से लेकर राहुल सांकृत्यायन तक के बौद्धिकों का भी अहम योगदान रहा।
बाद में मधु लिमये, राजनारायण, चंद्रशेखर, और कर्पूरी ठाकुर जैसे राजनेताओं ने समाजवादी विचारधारा को आगे बढ़ाने का कार्य किया।
समाजवाद भारत में हर प्रकार के शोषण से मुक्ति का आंदोलन रहा है—चाहे वह राजशाही से मुक्ति हो, अंग्रेजों से मुक्ति हो, या किसी भी रूप में गुलामी से मुक्ति की बात हो। समाजवादी आंदोलन ने इन सभी संदर्भों में नए प्रतिमान स्थापित किए। इसीलिए इस आंदोलन ने युवाओं, मज़दूरों, किसानों, दलितों और महिलाओं के लिए एक नया आकर्षण उत्पन्न किया। समाजवाद हर प्रकार की सामाजिक न्याय-उन्मुख क्रांति में विश्वास करता है और किसी भी शोषणकारी सत्ता को अस्वीकार करता है, जो व्यक्ति को दोबारा किसी भी प्रकार की गुलामी की ओर ले जाने का प्रयास करे।
17 मई 1934 का दिन भारतीय समाजवादी आंदोलन के इतिहास में एक ऐतिहासिक दिवस के रूप में दर्ज है, क्योंकि इसी दिन ऑल इंडिया कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना हुई थी। यह पार्टी ऊर्जावान युवाओं का ऐसा संगठन बनी, जिसमें विभिन्न विचारधाराओं से आए लोग एक साझा उद्देश्य के साथ जुड़े—कांग्रेस के भीतर मौजूद दक्षिणपंथी प्रवृत्तियों को संतुलित करना और भारत में पूर्ण स्वराज की स्थापना का मार्ग प्रशस्त करना। इस संगठन ने केवल स्वतंत्रता प्राप्ति तक सीमित न रहकर, ब्रिटिश साम्राज्य से पूर्ण पृथक्करण और एक समाजवादी समाज की स्थापना को भी अपना लक्ष्य बनाया।
भारतीय समाजवादी आंदोलन ने हमेशा लोकतंत्र और अहिंसक वर्ग संघर्ष को अपने मूल उसूल माना है। यही नहीं, यह आंदोलन स्वतंत्रता संग्राम के प्रारंभ से ही स्वतंत्रता, सामाजिक न्याय, और राष्ट्र की अखंडता को सर्वोच्च प्राथमिकता देता रहा है। कांग्रेस सोशलिस्ट पाटीॅ द्वारा प्रस्तावित
कुछ प्रमख उपाय हैं –
1.” उत्पादन करने वाली जनता को सभी शक्ति का हस्तांतरण “- यह सुनिश्चित करता है कि निर्णय लेने की प्रक्रिया और संसाधनों का नियंत्रण उन्हीं लोगों के हाथ में हो, जो वास्तव में उनका उत्पादन और वितरण करते हैं, न कि पूंजीपतियों या अन्य शोषकों के।
2. ” देश की आर्थिक जीवन का राज्य द्वारा योजनाबद्ध और नियंत्रित विकास” यह कदम राज्य को जिम्मेदारी सौंपता है ताकि देश के सभी संसाधनों का सही और समग्र उपयोग हो सके, और यह सुनिश्चित हो कि देश की समृद्धि का लाभ सभी वर्गों तक पहुंचे।
3. ” मुख्य और प्रमुख उद्योगों का समाजीकरण” (जैसे स्टील, कपास, जूट, रेलवे, शिपिंग, बागान, खदानें, बैंक, बीमा और सार्वजनिक उपयोगिताएँ) यह उन सभी उद्योगों को सार्वजनिक नियंत्रण में लाने का प्रस्ताव है, जिनका समाज के हर वर्ग पर प्रभाव पड़ता है। इसके साथ ही, सभी उत्पादन, वितरण और विनिमय के साधनों का सामाजिकरण सुनिश्चित किया जाएगा।
4. “ विदेशी व्यापार का राज्य का एकाधिकार “- विदेशी व्यापार को राज्य के नियंत्रण में लाकर यह सुनिश्चित किया जाएगा कि देश की आर्थिक नीतियाँ और संसाधनों का उपयोग राष्ट्रीय हित में हो।
5. ” असमाजिक क्षेत्र में उत्पादन, वितरण और ऋण के लिए सहकारी संस्थाओं का संगठन ” – यह उन क्षेत्रों के लिए सहकारी प्रणालियों को बढ़ावा देगा, जिनमें निजी स्वामित्व और शोषण मौजूद हैं, ताकि समानता और सामूहिक विकास को बढ़ावा मिल सके।
6. ” राजाओं, जमींदारों और सभी अन्य शोषक वर्गों का बिना मुआवजे के उन्मूलन” – यह कदम समाज से उन वर्गों को समाप्त करने का है, जिन्होंने लंबे समय तक शोषण और अन्याय किया है, और समाज के लिए एक समान और न्यायपूर्ण व्यवस्था स्थापित करने का है।
7.” किसानों को भूमि का पुनर्वितरण यह कदम किसानों के लिए भूमि वितरण सुनिश्चित करता है, ताकि वे अपनी मेहनत के फल को खुद भोग सके और कृषि को एक स्वतंत्र और समृद्ध क्षेत्र बनाया जा सके।
8. ” राज्य द्वारा सहकारी और सामूहिक खेती को प्रोत्साहन और बढ़ावा देना – यह पहल कृषि क्षेत्र में सामूहिक कार्यप्रणाली को बढ़ावा देती है, ताकि भूमि और संसाधनों का समुचित उपयोग हो सके।
9. ” किसानों और श्रमिकों द्वारा बकाया कर्ज का निबटारा” यह कदम किसानों और श्रमिकों को उनकी वितीय मुसीबतों से मुक्त करने के लिए है, ताकि वे अपनी मेहनत से सच्ची समृद्धि की ओर बढ़ सके।
10. ” राज्य द्वारा कार्य या निर्वाह का अधिकार मान्यता देना – यह सुनिश्चित करेगा कि हर नागरिक को काम करने का अधिकार मिले, और अगर कोई काम नहीं कर सकता तो उसे न्यूनतम जीवन यापन के लिए सहायता मिले।
11. “प्रत्येक को उसकी आवश्यकता के अनुसार, और प्रत्येक से उसकी क्षमता के अनुसार” – यह समाजवाद के मूल सिद्धांत को व्यावहारिक रूप से लागू करने का आधार है, जिससे समाज में सभी की जरूरतों को पूरा करने के लिए उत्पादन और वितरण की प्रक्रियाएं आकार लेंगी।
12. वयस्क मताधिकार, एक कार्यात्मक आधार पर यह उपाय हर वयस्क नागरिक को वोट देने का अधिकार देने का प्रस्ताव करता है, लेकिन यह सुनिश्चित करता है कि यह अधिकार एक कार्यात्मक और जिम्मेदार तरीके से इस्तेमाल किया जाए। यह समाज में समानता को बढ़ावा देने और हर नागरिक को राजनीतिक प्रक्रिया में भागीदार बनाने के उद्देश्य से है।
13. राज्य द्वारा धर्म के प्रति किसी प्रकार का पक्षपाती रवैया नहीं और जाति या समुदाय आधारित किसी भेदभाव की कोई स्वीकृति नहीं- यह कदम धर्म, जाति या समुदाय के आधार पर भेदभाव को समाप्त करने के लिए है, और यह सुनिश्चित करता है कि राज्य का कार्य केवल और केवल जनहित को केंद्रित रखे, न कि किसी धार्मिक या जातिगत पहचान को प्राथमिकता दे।
14. राज्य द्वारा लिंग के आधार पर भेदभाव का अंत- यह प्रस्ताव महिलाओं और पुरुषों के बीच किसी भी प्रकार के भेदभाव को समाप्त करने के लिए है, ताकि प्रत्येक नागरिक को समान अधिकार और अवसर मिल सकें।
15. भारत के तथाकथित सार्वजनिक ऋण का खंडन यह कदम उस ऋण को नकारता है जिसे उपनिवेशी शासन ने भारतीय जनता पर थोप दिया था। इस ऋण का उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य के वित्तीय लाभ को ध्यान में रखते हुए जनता की गरीबी और शोषण को बढ़ावा देना था। अब, इन उपायों को देखकर ऐसा लग सकता है कि यह बहुत कठोर, अत्यधिक और विदेशी विचारधारा से संबंधित हैं। हालांकि, ये विचार वास्तव में बहुत ही साधारण, व्यावहारिक और न्यायसंगत हैं। ये विदेशीयत का भ्रम इसलिए उत्पन्न होता है क्योंकि ये समाज के लिए नए और दूरगामी परिणाम लाने वाले हैं। लेकिन इनकी अवधारणा इतनी विदेशी नहीं है, जितना हमें लगता है। इनसे जुड़ी प्रक्रिया और व्यवस्थाएं वर्तमान में हमारे समाज के अन्य पहलुओं में भी देखी जाती हैं, जैसे संविधान सभा, विधायिका, या सार्वजनिक प्रशासन के अन्य उपकरण।
भारत के स्वतंत्रता संग्राम की अंतिम निर्णायक लड़ाई 9 अगस्त 1942 को महात्मा गांधी के ‘करो या मरो’ आह्वान के साथ शुरू हुई थी। इस ऐतिहासिक क्षण में समाजवादी नेताओं की भूमिका और उनके योगदान को भारतीय इतिहास में सदा स्मरण किया जाएगा। जयप्रकाश नारायण और डॉ. राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में हजारों युवकों ने स्वतंत्रता संग्राम में निर्भय होकर अपनी सक्रिय भूमिका निभाई। समाजवादी विचारधारा एक अत्यंत लोकप्रिय विचारधारा रही है। यहाँ तक कि इंदिरा गांधी ने भी अपनी योजना-प्रणाली में समाजवादी विचारों को महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया। एनडीए सरकार के सत्ता में आने के बाद भी, गांधीवादी समाजवाद को नीति-निर्माण की आधारशिला बनाया गया।
भारत के विभिन्न क्षेत्रीय दल—विशेषकर उत्तर भारत में मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार जैसे नेता—जातीय प्रश्नों को केंद्रीय मानते हुए, समाजवादी मूल्यों को अपनी राजनीति और नीतियों में सम्मिलित करने का दावा करते हैं। इसका सार यह है कि चाहे कोई स्वयं को समाजवादी न कहे, परंतु भारतीय राजनीति में समाजवादी मूल्यों से पीछे हटना संभव नहीं है। यही कारण है कि जाति जनगणना जैसे विषय आज भी सामूहिकता के आधार पर भारतीय राजनीति में व्यापक स्वीकार्यता प्राप्त किए हुए हैं। समता का सिद्धांत हमेशा विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग (elite class) को असहज करता है।
जिस प्रकार पुरुषवादी मानसिकता रखने वाले लोग महिला आरक्षण देखकर बेचैन हो जाते हैं, उसी प्रकार ब्राह्मणवादी सोच रखने वाले लोग दलित न्याय की राजनीति से कुंठित हो उठते हैं। जैसे बहुसंख्यक राजनीति करने वाले लोग अल्पसंख्यकों की भागीदारी को देखकर परेशान होते हैं, वैसे ही अंग्रेज़ी वर्चस्व में विश्वास रखने वाले लोग देशज भाषाओं की राजनीति को देखकर असहज होते हैं। ठीक वैसे ही जैसे अमेरिका में गोरों को काले लोगों की राजनीतिक चेतना असहज करती है। न्याय का प्रश्न हमेशा असहजता पैदा करता है।
आज जिस दुनिया में हम रह रहे हैं, उसमें भी हम प्रकृति और संस्कृति, विकास और पर्यावरण, नेचर और कल्चर के बीच संघर्ष को स्पष्ट देख सकते हैं।
21वीं सदी में अंततः हमने यह स्वीकार करना शुरू किया है कि सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स और गांधी के मूल्य-आधारित विकास को आत्मसात करना ही अधिक न्यायसंगत मार्ग है। आज एनवायर्नमेंटल सोशलिज़्म से लेकर एनिमल राइट्स तक की चर्चा समाजवादी प्रेरणा के नए तत्व के रूप में हो रही है। 1977 की आपातकाल की घटना आज भी भारत को लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा की स्मृति कराती है। लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चला आंदोलन भारतीय राजनीति में जनविरोधी सत्ता के खिलाफ एक नए मूल्य की स्थापना का माध्यम बना। यह बगावत न केवल लोकतंत्र की रक्षा थी, बल्कि स्वतंत्रता संग्राम की विरासत के मूल्यों की पुनर्पुष्टि भी।
42वें संविधान संशोधन के बाद ‘समाजवाद’ शब्द को भारतीय संविधान के प्रास्तावना में जोड़ा गया। हालांकि, यह विडंबना है कि धीरे-धीरे सरकारें समाजवादी विचारों को दरकिनार कर पूंजीवाद के सपने के अनुरूप राज्य को बाजार के अधीन एक व्यवस्था बनाने में जुट गई हैं।
समाजवादी विचारधारा हमेशा आर्थिक शोषण के संरचनात्मक (structural) स्वरूप को पहचानती रही है। चाहे वह ग्रामीण समस्याएँ हों या किसानों के प्रश्न, समाजवाद ने इन मुद्दों को राजनीति के केंद्र में लाने का कार्य किया है। लेबर और कैपिटल के बीच की विषमता को समाप्त करने हेतु समाजवाद ने सदा शोषणमुक्त आर्थिक प्रणाली विकसित करने पर बल दिया है।
व्यक्ति-केन्द्रित व्यवस्था को समाज-केन्द्रित व्यवस्था में बदलने की माँग समाजवादी संघर्षों का सतत स्वर रही है। इसके साथ ही समाजवाद हमेशा सुरक्षा, गरिमा और शिक्षा व सब्सिडी को प्रोत्साहन देने की वकालत करता है। समाजवाद यह मानता है कि गरीबी और शोषण समाज में संरचनात्मक रूप से अंतर्निहित होते हैं, और इसीलिए सुधार की प्रक्रिया में केवल आरक्षण नहीं, बल्कि प्रेफरेंशियल ट्रीटमेंट की भावना के साथ सकारात्मक कार्रवाई (Affirmative Action) की आवश्यकता होती है। समाजवादी आंदोलन ने हमेशा बौद्धिक वर्गों को आकर्षित किया है—चाहे वह लेखक संघ हो, समाजवादी शिक्षक मंच हो, युवा आंदोलन हो या सांस्कृतिक मंच।
भारत की राजनीति में ‘समाजवाद’ के अनेक परिष्कृत रूप सामने आए हैं, जैसे:
लोहियावादी समाजवाद
नेहरूवादी समाजवाद
गांधीवादी समाजवाद
लोकतांत्रिक समाजवाद
मानवतावादी समाजवाद
मार्क्सवादी समाजवादी
इन सभी ने समय-समय पर भारतीय राजनीति और समाज को गहराई से प्रभावित किया है।—
समाजवाद का अर्थ (Meaning of Socialism):
1. Socialism gives every individual the fullest opportunity for self-expression.
2. समाजवादी राजनीति स्वार्थी व्यक्तिवादिता की संस्कृति को प्रोत्साहन नहीं देती।
3. समाजवादी राजनीति परिवारवाद में विश्वास नहीं करती।
4. समाजवादी राजनीति क्लास पॉलिटिक्स के बजाय मास पॉलिटिक्स में विश्वास रखती है।
5. समाजवादी राजनीति क्रांतिकारी परिवर्तनों के प्रयासों को समर्थन और सम्मान प्रदान करती है।
6. समाजवादी राजनीति पूर्ण स्वराज में विश्वास करती है।
7. समाजवाद भारतीय संदर्भ में पंचायती राज संस्थाएं, सहकारी समितियाँ, तथा स्वैच्छिक एजेंसियों को जन-सशक्तिकरण का माध्यम मानता है .
8. Socialist system eliminates the economic and social basis for the existence of social exploitation.
9. Socialism operates through trusteeship and state-oriented enforcement of social empowerment.
10. भूमि सुधार और कृषि व्यवस्था में परिवर्तन समाजवादी नीतियों के मूल तत्व हैं।
11. सार्वजनिक क्षेत्र का विकास न केवल मात्रा में, बल्कि गति में भी निजी क्षेत्र से अधिक होना चाहिए।
12. To critically evaluate the policy of globalization and to give primacy to sovereignty and local autonomy.
13. To give full scope to national planning—particularly for medium and small-scale enterprises, new entrepreneurs, and cooperative organizations.
14. To ensure intergenerational justice and safeguard the rights of indigenous communities.
महात्मा गांधी ने एक बार कहा था,
“Socialism is as pure as crystal,”
और इसलिए, इसे प्राप्त करने के लिए क्रिस्टल-जैसे ही शुद्ध साधनों की आवश्यकता है। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि सत्य और अहिंसा को समाजवाद में साकार होना चाहिए और निर्भीकता से यह विश्वास प्रकट किया:
“This I do say fearlessly and firmly, that every worthy object can be achieved by the use of Satyagraha. It is the highest and infallible means, the greatest force. Socialism will not be reached by any other means.”
बर्ट्रेंड रसेल ने लिखा था:
“Socialism, in any desirable form, must include democracy; if not, the union of political and economic power merely increases the opportunities for exploitation on the part of the governing class.”
आज भी भारत की सबसे बुनियादी समस्याएँ—गरीबी, असमानता और शोषण—का समाधान समाजवाद ही दे सकता है। समाजवाद न केवल आर्थिक विषमताओं को समाप्त करने की दिशा में कार्य करता है, बल्कि समग्र समाज के कल्याण को प्राथमिकता देता है। यही कारण है कि गांधी का सर्वोदय दर्शन समाजवादी दृष्टिकोण का नैतिक और आध्यात्मिक आधार बन जाता है। समाजवादी आंदोलन ने सदैव असमानता के प्रश्नों को राजनीतिक विमर्श के केंद्र में रखा है। इसलिए जब सोशलिस्ट एट्टीट्यूड की बात होती है, तो उसका आशय संपत्ति और सम्मान दोनों के न्यायपूर्ण वितरण से होता है डिग्निटी (गरिमा) का प्रश्न भी समाजवादी राजनीति की मूल बना रहता है।
थॉमस मोर का यह कथन आज भी उतना ही प्रासंगिक है:
“मैं यह मानता हूँ कि जब तक संपत्ति का समान वितरण नहीं होता, तब तक न्यायपूर्ण शासन या खुशहाल समाज की कल्पना नहीं की जा सकती।” आज की वैश्विक अर्थव्यवस्था में हम देख रहे हैं कि कैसे प्रथम विश्व के देशों की पूँजी, तृतीय विश्व के देशों के श्रमिकों के शोषण पर आधारित असमानता की नई संरचनाएँ रच रही है। यह एक नव-उपनिवेशवाद (neo-colonialism) जैसा ही रूप है, जहाँ तृतीय विश्व के देश WTO जैसी संस्थाओं की बाध्यताओं के अधीन हैं।
क्लाइमेट चेंज की राजनीति में भी यह विषमता दिखाई देती है—जहाँ प्रदूषण के लिए उत्तरदायी प्रथम विश्व के देश, तृतीय विश्व के देशों को जलवायु संकट का सबसे बड़ा भुक्तभोगी बना रहे हैं। भारत के संदर्भ में प्रकृति और पर्यावरण की रक्षा के आंदोलन—जैसे हिमालय बचाओ आंदोलन—समाजवादी चेतना के नए रूपों को जन्म दे रहे हैं। आज पर्यावरणीय समाजवाद (environmental socialism) से लेकर एनिमल राइट्स तक, अनेक संघर्ष समाजवाद के नैतिक विस्तार का हिस्सा बन चुके हैं।
समाजवाद सदैव निजी स्वामित्व की संपत्ति और सामाजिक संपत्ति के बीच एक न्याय-आधारित सामाजिक-आर्थिक संरचना स्थापित करने के लिए संघर्ष करता है। समाजवादी आंदोलन केवल एक विचारधारा नहीं, बल्कि मानव सभ्यता में अंतर्निहित नैतिक दर्शन को प्रस्तुत और आत्मसात करने की प्रक्रिया भी है।
“जब ‘मेरा’ (My) की जगह ‘हमारा’ (Our) आता है, तभी पूंजीवाद समाप्त होता है और समाजवाद की शुरुआत होती है।”
यदि समाजवादी दर्शन की विदेश नीति को गंभीरता से आत्मसात किया गया होता, तो आज भारत दक्षिण एशियाई भ्रातृत्व (South Asian Fraternity) के माध्यम से वैश्विक राजनीति में एक नया प्रतिमान स्थापित कर चुका होता।
समाजवादी आंदोलन के प्रभाव से नेपाल और भारत के बीच संबंध और सघन हो सकते थे, और बांग्लादेश के स्वतंत्रता संग्राम में जयप्रकाश नारायण की निर्णायक भूमिका को यदि औपचारिक रूप से स्वीकार कर सरकार ने नीति बनाई होती, तो आज बांग्लादेश भारत के कहीं अधिक समीप होता।
भारत-पाक महासंघ और विश्व पंचायत जैसे विचार भारतीय समाजवादी आंदोलन की अंतरराष्ट्रीय सोच के प्रमाण हैं—जो दुर्भाग्यवश राजनीतिक मुख्यधारा में साकार नहीं हो सके। समाजवाद हमेशा वैकल्पिक राजनीति (Alternative Politics) की संभावना को प्रस्तुत करता है। इसके मूल लक्षणों में आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक असमानताओं का उन्मूलन, सामाजिक न्याय, समानता और सहयोग को बढ़ावा देना शामिल है।
डॉ. राममनोहर लोहिया का यह विचार कि “मानव स्वभाव की दृष्टि से न्याय का प्रश्न, सत्य और सुंदरता के प्रश्नों से भी बड़ा है”, समाजवादी राजनीति की नैतिक दिशा को स्पष्ट करता है।
इसीलिए समाजवाद को “भविष्य की राजनीति” और “भविष्य का राजनीतिक दर्शन” कहा जाता है, क्योंकि इसमें एक ओर आशा (hope) होती है और दूसरी ओर उस आशा को प्राप्त करने की रणनीति भी। यह संभव इसलिए भी है क्योंकि महात्मा गांधी इस विचारधारा के नैतिक रहनुमा हैं।
अंततः, समाजवाद संभावनाओं की राजनीति का एक साहसिक दृष्टिकोण है, जिसमें निम्नलिखित पाँच ‘D’ बुनियादी स्तंभ के रूप में सामने आते हैं:
Democracy (लोकतंत्र)
Development (विकास)
Decentralization (विकेंद्रीकरण)
Decolonization (उपनिवेश-मुक्ति)
Dignity (गरिमा)
जारी है…..