— अरुण कुमार गोंड —
बचपन में खेले जाने वाले खेल न केवल शारीरिक विकास को प्रोत्साहित करते है, बल्कि मानसिक और सामाजिक कौशल को भी मजबूत बनाते हैं। परंपरागत रूप से, भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों में कबड्डी, गिल्ली-डंडा, छुपन-छुपाई, खो-खो, बरफ-पानी और चोर-सिपाही जैसे खेल बच्चों की दिनचर्या का अभिन्न हिस्सा रहे हैं। ये खेल न केवल शारीरिक फिटनेस को बढ़ावा देते, बल्कि समूह में खेलने से सामूहिकता, नेतृत्व क्षमता और सामाजिक संबंधों का भी विकास होता। खेल के इन प्रारूपों में बच्चों को खुले मैदान, चौपाल और गलियों में सामूहिक रूप से खेलते देखा जाता था, जहाँ न केवल शारीरिक श्रम की महत्ता समझाई जाती थी, बल्कि एक-दूसरे के साथ संवाद. सहनशीलता और सहयोग भी विकसित होता था। पिछले दो दशकों में डिजिटल तकनीक के प्रभाव ने बच्चों के खेल के तरीके को अभूतपूर्व रूप से बदल दिया है। राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR) की एक रिपोर्ट 2024 के अनुसार, छः से शोलह वर्ष के बच्चों में डिजिटल गेम्स के प्रति रुचि में तेज़ी आई है।
रिपोर्ट में यह भी स्पष्ट किया गया है कि ग्रामीण क्षेत्रों में भी स्मार्टफोन के बढ़ते उपयोग ने पारंपरिक खेलों को पीछे छोड़ दिया है। बच्चे अब खेत-खलिहानों की जगह मोबाइल स्क्रीन पर PUBG, Free Fire, Ludo, और Candy Crush जैसे गेम्स खेलते नज़र आते हैं। वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार, डिजिटल गेम्स में अत्यधिक समय बिताने से बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने 2023 की अपनी रिपोर्ट में बताया कि डिजिटल स्क्रीन पर अधिक समय बिताने से मोटापा, दृष्टिदोष, एकाग्रता में कमी और सामाजिक अलगाव, अवसाद जैसी समस्याएँ बढ़ रही हैं।
परंपरागत खेलों का मैदान केवल खेल का स्थान नहीं होता था, बल्कि वह संवाद, सहयोग, और सामूहिक निर्णय लेने की कला सीखने का एक जीवंत माध्यम भी था। बच्चे जब कबड्डी, गिल्ली-डंडा खेलते थे, तो उनके बीच आपसी समझ, नेतृत्व क्षमता और सामाजिक संबंध प्रगाढ़ होते थे। अब डिजिटल गेम्स ने इस सामूहिकता को व्यक्तिगत अनुभव में बदल दिया है। NCPCR (2024) की एक रिपोर्ट के अनुसार, 60 प्रतिशत से अधिक बच्चों ने स्वीकार किया कि वे अब अपने दोस्तों के साथ बाहर कम खेलते हैं। स्मार्टफ़ोन की स्क्रीन पर सीमित खेल, वास्तविक दुनिया के संवाद को आभासी अनुभव में बदल रहे हैं। नतीजतन, बच्चों का सामाजिक जुड़ाव कम होता जा रहा है, जिससे उनके संवाद कौशल और सामूहिकता में भी कमी देखी जा रही है।
पारंपरिक खेलों में हार और जीत का अनुभव प्रत्यक्ष और वास्तविक होता था। खेल के मैदान में गिरना, उठना, हारना, और फिर से प्रयास करना- ये सभी अनुभव बच्चों में आत्मविश्वास का संचार करते थे। दूसरी ओर, डिजिटल गेम्स में यह प्रक्रिया पूरी तरह आभासी (Virtual) होती है। स्क्रीन पर होने वाली जीत और हार का कोई वास्तविक प्रभाव नहीं होता। इसके परिणामस्वरूप, बच्चों में आत्मविश्वास का स्तर घटने लगा है। निर्णय लेने की क्षमता, जो वास्तविक खेलों के दौरान सहजता से विकसित होती थी, अब स्क्रीन की आभासी दुनिया में सीमित होकर रह गई है। परिणामस्वरूप, डिजिटल गेम्स के अत्यधिक उपयोग से बच्चों में आत्म-निर्भरता और नेतृत्व क्षमता की कमी साफ़ देखी जा सकती है। डिजिटल गेम्स की एक और महत्वपूर्ण सामाजिक चुनौती है- अकेलापन। बच्चे अब आभासी दुनिया में अजनबियों के साथ खेलते हैं, जहाँ बातचीत तो होती है, पर वास्तविक मानवीय संवेदनाओं का अभाव रहता है। परिवार और दोस्तों के साथ बिताया जाने वाला समय धीरे-धीरे ऑनलाइन मल्टीप्लेयर गेम्स में खोता जा रहा है। Child Development Journal (2023) में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, डिजिटल गेम्स के आदी बच्चों में अकेलेपन की भावना 40% अधिक पाई गई है। यह आभासी संबंध वास्तविक मानवीय संबंधों का स्थान नहीं ले सकते। पारिवारिक संवाद, सामुदायिक मेल-मिलाप और दोस्तों के साथ साझा की जाने वाली हंसी अब डिजिटल संदेशों और आभासी अवतारों में सीमित हो गई है।
डिजिटल युग ने बच्चों के खेल के पारंपरिक ढांचे को नई दिशा दी है। जहाँ पहले गाँवों की चौपालों और गलियों में कबड्डी, गिल्ली-डंडा, पिट्ठू, और छुपन-छुपाई जैसे सामूहिक खेलों की गूंज सुनाई देती थी, वहीं अब इनकी जगह मोबाइल स्क्रीन पर चलने वाले गेम्स ने ले ली है। PUBG, Free Fire, Minecraft जैसे ऑनलाइन गेम्स न केवल बच्चों का मनोरंजन करते हैं, बल्कि उनके सोचने और खेलने के तरीकों को भी बदल रहे हैं। हालांकि, इस बदलाव ने बच्चों को तकनीकी रूप से सक्षम बनाया है, लेकिन इसके सामाजिक और शारीरिक प्रभाव भी उतने ही गहरे हैं। सामूहिक खेलों से मिलने वाली सामाजिकता, सहयोग की भावना और नेतृत्व कौशल अब आभासी (Virtual) दुनिया में सीमित हो गए हैं। इसके परिणामस्वरूप, बच्चे वास्तविक संवाद और सामुदायिक अनुभवों से दूर होते जा रहे हैं। पारंपरिक खेलों में जो शारीरिक सक्रियता और सामाजिक मेलजोल होता था, वह डिजिटल गेम्स में खो गया है।
सामाजिक सहभागिता में कमी, आत्मविश्वास का ह्रास और अकेलेपन की भावना इन बदलावों के प्रमुख परिणाम हैं। बच्चों का अधिकतर समय ऑनलाइन गेम्स में व्यतीत होने से उनका शारीरिक विकास बाधित हो रहा है, साथ ही वास्तविक दुनिया में दोस्तों और परिवार के साथ बिताया जाने वाला समय भी घटता जा रहा है। इससे न केवल उनके मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, बल्कि पारिवारिक और सामाजिक संबंध भी कमजोर होते जा रहे हैं। इसके अलावा, पारंपरिक खेलों का लुप्त होना हमारी सांस्कृतिक धरोहर के ह्रास का संकेत है। ये खेल न केवल मनोरंजन का साधन थे, बल्कि गाँव की सामूहिकता और सहयोग की भावना को भी मजबूती प्रदान करते थे। डिजिटल क्रांति ने इन खेलों को धीरे-धीरे हाशिये पर धकेल दिया है।
आवश्यकता है कि इस बदलते परिदृश्य में सामंजस्य स्थापित किया जाए। तकनीक का उपयोग जरूरी है, लेकिन इसके साथ-साथ पारंपरिक खेलों का संरक्षण और उन्हें प्रोत्साहन देना भी आवश्यक है। विद्यालयों में पारंपरिक खेलों को पुनर्जीवित करना, सामुदायिक खेल प्रतियोगिताएँ आयोजित करना और माता-पिता द्वारा बच्चों को डिजिटल स्क्रीन से दूर वास्तविक खेलों की ओर प्रोत्साहित करना- ये कुछ ऐसे कदम हैं जो बच्चों के समग्र विकास में सहायक हो सकते हैं। संतुलन के बिना विकास अधूरा है, और खेल केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि सामाजिक शिक्षा का एक महत्वपूर्ण माध्यम भी हैं। यदि हमें आने वाली पीढ़ी को स्वस्थ, आत्मविश्वासी और सामाजिक रूप से जागरूक बनाना है, तो पारंपरिक और डिजिटल खेलों के बीच संतुलन स्थापित करना अनिवार्य है।