लोहिया को समझने की कोशिश

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मौलिक, प्रखर लेकिन विवादग्रस्त ?

(1) बीसवीं सदी के भारत का इतिहास सबसे ज़्यादा घटना प्रधान हुआ है। इसी सदी में नवोदय या नवजागरण काल परवान चढ़ा और इसी सदी ने स्वाधीन भारत को जन्म दिया। इसी सदी में निर्वाचित करीब तीन सौ प्रतिनिधियों द्वारा विदेशों, मुख्यतः यूरो-अमेरिकी देशों से प्रभावित सामूहिक लेखन के जरिए संविधान रचा गया। नए बौद्धिक आयामों के प्रतिमानों से लकदक संसद, योजना आयोग, हरित क्रांति, श्वेत क्रांति, चुनाव, आणविक ऊर्जा, विदेश नीति, औद्योगीकरण वगैरह के जरिए भारत धीरे धीरे इक्कीसवीं सदी में वैश्वीकरण के युग में ला ही दिया गया है। विवेकानन्द, तिलक, गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सुभाष बोस, सरदार पटेल, जिन्ना, मौलाना आज़ाद, जयप्रकाश नारायण, इंदिरा गांधी, राजेन्द्र प्रसाद और डाॅ. राममनोहर लोहिया जैसे शीर्ष स्वतंत्रता संग्राम के नेता भारत के भविष्य का जन-चरित्र लिखने की कोशिशें करते रहे हैं। इनमें लोहिया और गांधी ने भारत के सत्ताधीश रहे इंग्लैंड से सीधी मुठभेड़ करते न केवल अपने सवालों के उत्तर खुद ढूंढ़े, बल्कि पश्चिमी नस्ल की शैतानियत का मुखौटा नोचकर फेंक दिया। लोहिया ने भी यूरो-अमेरिकी कई प्रजातांत्रिक देशों से जो उम्मीदें बांध रखी होंगी, वे गहरी निराशा में तब्दील हुईं।

(2) लोहिया की शख्सियत कई नेताओं से जुदा और उनके समानान्तर बहुआयामी रही है। तिलक, गांधी, नेहरू और मौलाना आजा़द जैसे शीर्ष नेता भी बहुमुखी प्रतिभा के हैं। तिलक में पुरातन संस्कारों और आदर्शों के महिमामंडन के साथ ही उनके पुनर्मूल्यांकन का लगातार आग्रह है। गांधी को तिलक के बनिस्बत अतीत के युग-मूल्यों की अप्रासंगिकता पर भी विचार करने से परहेज नहीं है। उन्होंने अपने विचारों में इस्लाम तथा ईसाइयत के भी कई मूल्य अपनाए। नेहरू मोटे तौर पर आधुनिक पश्चिमी सभ्यता के नज़रिए से भी सरोकार रखते अपनी नायाब अतीत दृष्टि से नया भारत-बोध तराशने के शिल्पकार थे। उम्र के लिहाज से लोहिया इन सबके कनिष्ठ रहने के बावजूद उनके प्रभामंडल से बार बार छिटककर मौलिक अवधारणाएं और रास्ते गढ़ते रहे। वे ज़्यादातर अपनी बनाई समानान्तर वैचारिक पगडंडी पर ‘एकला चलो‘ कहते चलते रहे। उस जनपथ पर अवाम चल नहीं पाया अन्यथा लोकतांत्रिक मंज़िल तक जा सकता था। लोहिया पर इतिहास ने भी अपनी नज़र संतुलित और आनुपातिक आधार पर नहीं डाली है। कई बौद्धिकों का उत्तर-गांधी युग में असाधारण प्रभाव अनदेखा हो गया है। उनकी इंद्रधनुषी शख्सियत का वस्तुपरक, तटस्थ और उर्वर आलोचनात्मक मूल्यांकन होना अब भी अधूरा है। उनमें लोहिया को समझने की जुगत करना बीसवीं सदी में इतिहास और देशज परंपराओं सहित अधुनातन पश्चिमी विचार को खंगालने के संयुक्त साहसिक उपक्रम का एडवेंचर हो सकता है।

(3) राममनोहर लोहिया ने जनक्रांतिधर्मी जीवन जिया, लेकिन शायद डाॅक्टरी लापरवाही के कारण सत्तावनवें वर्ष में अकाल मौत पाई। उनका संक्षिप्त जीवन इतिहास का धधकता दस्तावेज हुआ। गांधी तथा मार्क्स चिंतन से दीक्षित क्रांतिकारियों जैसा ओजमय साहस, संस्कृति के आयामों की खोजी लेकिन बौद्धिक मौलिकता सहेजे लोहिया आज़ादी के लिए जद्दोजहद करते देश के अवाम के लिए सिद्धांतों और कर्म के अग्निमय नायक हुए। वे शोषितों के प्रवक्ता, अन्यायी, विदेशी तथा भारतीय हुकूमतशाही के विरोधी और गांधी की तरह निहायत मामूली और गरीब आदमी के प्रतिनिधि-प्रतीक हो गए। मौलिक अवधारणाएं लिए मुक्त मानव के मसीहा लोहिया अंतरराष्ट्रीय समस्याओं की बारीकियों और सांख्यिकी की शोधपूर्ण जानकारियों से लैस होकर सामाजिक-राजनीतिक मंच पर जीवन्त रहे। उनकी गैरमौजू़दगी में राजनीतिक चिंतन समाजविमुख और समाजवादी आंदोलन स्पंदनहीन हो गया दीखता है। स्वतंत्र होने जा रहे भारत में साधारण नागरिक का उदासीन अजनबीपन खत्म कर उसकी आत्मा को देश के अस्तित्व के साथ तादात्म्य करने की जोरदार कोशिश ने लोहिया को राजनीति में सबसे ज्यादा नई राहें तोड़ने मजबूर किया। उनका जीवन गूढ़ और गोपनीय बना दिए जाते सियासी मसलों को भी अवाम की बहस मुबाहिसे के चौपाल में डाल देने की लगातार कोशिशों का सबूत है। लोहिया के लिए राजनीति का खुला आसमान था। फिर भी संस्कृति, साहित्य, धर्म, दर्शन, इतिहास, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान अर्थात मनुष्य का बहुविध अस्तित्व ही उनके दायरे में था। प्रख्यात अंग्रेज दार्शनिक, लेखक, विधिवेत्ता बेकन की तरह लोहिया घोषणा करते थे-। All Knowledge is my province यह कि पूरा ज्ञान लोक मेरी चिन्तन परिधि में है। मौलिक चिंतक होने के साथ साथ लोहिया ताजिन्दगी अतुलनीय लगन के साथ अपने आश्वस्त आदर्शों को साकार करने की दिशा में लगातार परेशानदिमाग भी रहे। आज़ाद हिन्दुस्तान में उनसे बड़ा सेनापति लगता जनसैनिक ढूंढ़ने से भी नहीं मिलता। उनके जाते जाते देश ने संघर्षधर्मी जनचेतना के सबसे जानदार सिपहसालार के रूप में उन्हें स्वीकारा भी।

(4) मौलिकता के प्रति लोहिया का आग्रह और चिंतन मूलतः आज़ाद होते भारत में औसत नागरिक का देश के साथ तादात्म्य खोजने की कशिश के कारण था। यही कारण है जयप्रकाश नारायण की तरह लोहिया गांधी जी की ओर आकर्षित हुए। इसके बरक्स उनमें कम्युनिस्टों और किताबी गालबजाऊ समाजवादियों से एक तरह का अलगाव बढ़ता गया। उनकी अवधारणाओं से अलग हटकर लोहिया ने नए किस्म के मैदानी प्रयोग भारत की सामाजिक और सड़क आन्दोलनों की संरचना को लेकर किए थे। यही कारण है बाद के वर्षों में सभी प्रमुख उद्योगों के राष्ट्रीयकरण की मांग को तरजीह नहीं देते लोहिया ने एक नया वैचारिक मोड़ देते मांग की जिसका नाम था ‘‘दाम बांधो।‘‘ प्रत्येक व्यक्ति को उत्पादन के दाम से ज्यादा से ज्यादा डेढ़ गुना दरों पर वस्तु उपभोक्ता के रूप में पाने का अधिकार होना चाहिए। लोहिया ने इसी दलील के भी चलते इतिहास प्रसिद्ध अपना भाषण लोकसभा में दिया था। जब उन्होंने कहा था कि 27 करोड़ भारतीयों की औसत दैनिक आमदनी केवल 3 आना है। पूरे का पूरा सरकारी सरंजाम सकते में आ गया था। जवाहरलाल नेहरू ने भी बहुत कोशिश की होगी लेकिन प्रधानमंत्री की उंगलियां इस विवाद में उलझने के कारण जल सकती थीं। उन्होंने इस विवाद में पड़कर इसे आगे तूल देना मुनासिब नहीं समझा। लोहिया ने आश्वस्त होकर समझ लिया था कि राष्ट्रीयकरण कर दिए जाने से भी देश के सभी प्राकृतिक स्त्रोतों पर तिकड़मबाज अंगरेजियत हांकते ‘एलीट‘ क्लास का ही कब्जा हो जाएगा। उससे आम लोगों का कोई भला नहीं हो सकेगा।

(5) मसलन एक ओर गांधी ने खादी, दांडी मार्च, चरखा और चंपारण सत्याग्रह वगैरह की युक्तियों की वजह से अपने आपको योद्धा संत राजनीतिज्ञ की श्रेणी में ऊर्ध्व गति से लाकर खड़ा कर दिया था। उसके बरक्स लोहिया ब्रिटिश मूर्तियों को तोड़ो या अंगरेजी हटाओ या दाम बांधो में तरह तरह के कई राजनीतिक नारों को देते स्थायित्व हासिल नहीं कर पाए। लोगों को उनके आह्वान में भी कुछ न कुछ शगल, मनोरंजन या विध्वंस भी नजर आता रहा। फिर भी लोहिया पढ़े लिखे शीर्ष राजनीतिज्ञ से कहीं ऊपर मौलिकता के मनुष्य प्रतिष्ठान की तरह थे। उनसे मिलने से अखबारों को अगले दिन की सुबह के लिए हेडलाइन मिल जाती थी, क्योंकि लोहिया हर बार अनोखा, नया, अप्रत्याशित और मौलिक कह सकने की रणनीति बनाने की रचना की क्षमता और विश्वास रखते थे। उनकी असफलता का एक कारण और भी था। भारत जैसे बड़े देश में ढीले ढाले लोकतंत्र में मायूस और पस्तहिम्मत फितरत के लोगों का बहुमत है। वहां मौखिक रूप से अहिंसक कहलाती क्रांति को लोहिया कुछ ऐसे उग्र तरीकों से लाना चाहते थे जो ऊपरी तौर पर लोगों को हिंसक दिखाई देते थे। छात्रों को सीधी मुठभेड़ के लिए कहना, चुनाव के समय शक्ति प्रदर्शन करना और कई मुद्दों पर पिकेटिंग करना वगैरह झटपट गतिविधियों, हरकतों या लाक्षणिकताओं के चलते लोहिया कोई सुव्यवस्थित तरीके या ऑर्गेनिक विकास के जरिए परिणामयुक्त रणनीति का प्रदर्शन नहीं कर सके। अपने जीवनकाल में पूरे विपक्षी दलों में लोहिया ही सबसे मुख्य और आकर्षक चेहरा थे जिनसे भविष्य के इतिहास को उम्मीदें बंधती थीं।(जारी रहेगा)!

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