— पंकज मोहन —
प्रगतिशील आलोचक रामविलास शर्मा ने लिखा कि प्रेमचंद गरीबी में पैदा हुए, गरीबी में जिन्दा रहे और गरीबी में ही मर गये हरिशंकर परसाई को प्रेमचंद का एक चित्र मिला। उनकी आंखें पांवों पर अटक गई — “पांवों में केनवस के जूते हैं, जिनके बंद बेतरतीब बंधे हैं। दाहिने पांव का जूता ठीक है, मगर बाएं जूते में बड़ा छेद हो गया है जिसमें से अंगुली बाहर निकल आई है। सोचता हूं-फ़ोटो खिंचवाने की अगर यह पोशाक है, तो पहनने की कैसी होगी?”
प्रेमचन्द के पहनने की पोशाक या घर की वेश-भूषा का वर्णन श्री चन्द्रहासन ने अपने संस्मरण मे किया है। वे मुंशी प्रेमचन्द से मिलने उनके घर पहुंचे। दरवाज़ा खुला था। उन्होंने देखा, एक आदमी बनियान और मैली-सी धोती पहने कुछ लिख रहा है। उन्होंने समझा, प्रेमचन्द के कातिब या लिपिक होंगे।
केशरी किशोर शरण जो चौथे दशक मे मुंगेर के आरडी एंड डीजे कालेज के प्रिंसिपल बने और बाद मे बिहार प्रशासनिक सेवा मे चले गये, के नेतृत्व में 1929 मे पटना के साहित्यिकों ने हिन्दी साहित्य परिषद् की स्थापना की। कुछ समय बाद अपनी एक साहित्यिक गोष्ठी मे प्रेमचन्द को आमंत्रित किया। गोष्ठी रविवार के अपराह्न मे आयोजित थी और प्रेमचन्द लखनऊ से चलकर शनिवार की शाम को पटना पहुंचने वाले थे। शरण जी पटना जंक्शन आये। उतरने वाले लोगों मे जो भी पचास की उम्र के दिखते थे, सबका मुआयना किया। प्रेमचन्द की अवस्था का एक आदमी उतरा तो था, लेकिन उसकी वेशभूषा को देखकर शरण जी ने समझा, आस पास के गाँव का कोई किसान होगा। “शरीर से दुर्बल, अत्यन्त साधारण वेशभूषा जिसमे उनका संघर्षशील स्वभाव और निराडम्बर व्यक्तित्व झलकता था।” शरण जी निराश होकर घर लौट आये। वे रात बारह बजे फिर स्टेशन गये। लखनऊ से ट्रेन आई जरूर, लेकिन उतरने वाले बीस-पच्चीस यात्रियों मे प्रेमचंद जी नहीं दिखे। अब तो सुबह छह बजे की गाडी ही आशा दीप की अन्तिम रोशनी है। सुबह की गाडी से उतरने वाले यात्रियों के हुजूम मे भी प्रेमचंद का नामो-निशान नहीं। इसी बीच शरण जी की नजर मुसाफिरखाने के कोने मे बैठे उस व्यक्ति पर पडी जिसे उन्होंने कल शाम गाडी से उतरते देखा था। उन्होंने पूछा, क्या आप प्रेमचन्द जी हैं। उन्होंने उत्तर दिया, मै तो कल शाम की गाडी से आ गया था। मैने दोनो तरफ का टिकट ले लिया था, इसलिए देर रात जब लखनऊ जाने वाली गाडी प्लैटफार्म पर पाई, मेरे मन मे लौट जाने का विचार आया, लेकिन फिर मैने सोचा, लगता है कहीं कुछ कन्फ्यूजन हो गया है या आपके सामने कोई बडी समस्या खडी हो गई होगी। मुझे इन्तजार करना चाहिए नहीं तो आपको तकलीफ होगी। यही सोचकर सारी रात यहीं पडा रहा।’
3 जून, 1930 के एक पत्र में प्रेमचन्द ने ‘विशाल भारत’ के यशस्वी सम्पादक बनारसीदास चतुर्वेदी को लिखा, ‘मेरी आकांक्षाएँ कुछ नहीं हैं। इस समय तो सब से बड़ी आकांक्षा यही है कि हम स्वराज्य-संग्राम में विजयी हों। धन या यश की लालसा मुझे नहीं रही। खाने भर को मिल जाता है। मोटर और बँगले की मुझे हविस नहीं। हाँ, यह ज़रूर चाहता हूँ कि ऊँची कोटि की दो-चार पुस्तकें लिखूँ। मुझे अपने दोनों लड़कों के विषय में कोई बड़ी लालसा नहीं है। यही चाहता हूँ कि वह ईमानदार और पक्के इरादे के हों। विलासी, धनी, खुशामदी सन्तान से मुझे घृणा है। मैं शान्ति से बैठना भी नहीं चाहता। साहित्य और स्वदेश के लिए कुछ-न-कुछ करते रहना चाहता हूँ। हाँ, रोटी-दाल और तोला भर घी और मामूली कपड़े मयस्सर होते रहें।’
अपनी मृत्यु के एक साल पहले सन् 1935 में उन्होंने इस भाव को थोड़ा विस्तार दिया, ‘किसी भी बड़े आदमी का नाम, जो लक्ष्मी का कृपापात्र भी हो, वह मुझे आकर्षित नहीं करता। बहुत मुमकिन है कि मेरे मन के इन भावों का कारण जीवन में मेरी निजी असफलता ही हो। बैंक में अपने नाम में मोटी रकम जमा देखकर शायद मैं भी वैसा ही होता जैसे दूसरे हैं। मैं भी प्रलोभन का सामना न कर सकता। लेकिन मुझे प्रसन्नता है कि स्वभाव और किस्मत ने मेरी मदद की है और मेरा भाग्य दरिद्रों के साथ सम्बद्ध है। इससे मुझे आध्यात्मिक सान्त्वना मिलती है।’
हिन्दुत्ववादी विद्वान कमलकिशोर गोयनका ने उपरोक्त तथ्य का खंडन करने का प्रयास किया। उन्होंने अपने अनेक साक्षात्कार और लेखों में अधोलिखित प्रमाण प्रस्तुत किए।
1. उनका पहला वेतन 20 रुपये मासिक था वर्ष 1900 में जब 4-5 रुपये में लोग परिवार चलाते थे, और फरवरी, 1921 में जब उन्होंने सरकारी नौकरी से इस्तीफा दिया था, उनका वेतन था 150 रुपये मासिक।
2. 1929 में प्रेमचंद ने अपनी एकमात्र पुत्री कमलादेवी के विवाह में लगभग सात हजार रूपये खर्च किये थे और उसी वर्ष लमही गाँव में प्रेमचंद ने 6-7 हजार रुपये लगाकर मकान बनवाया था।
3. ‘माधुरी’ पत्रिका के सम्पादक बने तो वेतन था 150 रुपये मासिक।
4. बम्बई की फिल्म कम्पनी में नौकरी की वर्ष 1934-35 में तब वेतन था 800 रुपये मासिक। लौटने पर बेटी के लिए हीरे की लौंग लेकर आये थे।
5. प्रेमचंद के पास दो बीमा पालिसी थीं। उस समय यह बहुत बडी बात थी।
5. प्रेमचंद ने वर्ष 1936 में रेडियो दिल्ली से दो कहानियों का पाठ किया और उन्हें 100 रुपये पारिश्रमिक मिला। आज उस समय के 100 रुपये लगभग एक लाख के बराबर होंगे।
6. प्रेमचंद की मृत्यु के 14 दिन पहले उनके दो बैंक खातों में लगभग 4500 रुपये थे।”
गोयनका जी ने इन सामग्रियो को जुटाने में मिहनत तो काफी की, लेकिन वे यह सिद्ध नही कर पाये कि प्रेमचंद गरीबी मे जिन्दा नहीं रहे या विलासिता या धन के आडम्बर से कोसों दूर नहीं रहे। अगर प्रेमचंद के मन मे लेशमात्र भी धनलिप्सा होती तो 1921 में जब गांधीजी ने असहयोग आन्दोलन का बिगुल बजाया और गोरखपुर की सभा में सरकारी स्कूल-कालेज और नौकरी के वहिष्कार का आह्वान किया, उस सभा में उपस्थित प्रेमचन्द सुख-सुविधा की चिंता करते, 150 रुपये मासिक तनख्वाह वाली स्कूल-सब इंस्पेक्टर की नौकरी पर लात नहीं मारते। जब उन्हें माहवारी वेतन मिलता था या 1921 के बाद जब मसिजीवी हो गये, उनका खान-पान या वेशभूषा गरीबों जैसा था। ऐसा नही है कि उनके पास एक जोडा नया जूता खरीदने की औकात नही थी। फटे जूते के रहस्य पर प्रेमचंद के अनन्य मित्र दया नारायण निगम ने उर्दू पत्रिका “जमाना” के अक्तूबर 1936 मे प्रकाशित अपने लेख मे किया है।
“एक बार प्रेमचंद ने अपने लिए एक नया कोट और एक जोड़ी जूते खरीदे। लेकिन उनके एक गरीब प्रियजन, जो उनके साथ उनके बचपन के दिनों में रहते थे, ने अनजाने में उन दोनों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। प्रेमचंद ने इस पर कुछ नहीं सोचा और खुशी-खुशी उन्हें दोनो सामान दे दिये। ” स्पष्ट है, कुछ दिनो तक उन्हे अपने फटे-पुराने कोट और जूते ही पहनने पडे।
उन्हे नून- तेल- लकड़ी जुटाने के लिये संघर्ष नहीं करना पडा, लेकिन वे प्रगतिकामी थै और जनजागृति का शंखनाद फूंकने के उद्देश्य से उन्होंने “जागरण” साप्ताहिक और “हंस” मासिक का दायित्व कंधे पर लिया। उन्होने 1933 में “जागरण” के प्रकाशन की जिम्मेदारी संभाली, लेकिन एक वर्ष के भीतर ही उन पर आठ-दस हजार का कर्ज हो गया, जिसके कारण उन्हें इसे बंद करना पड़ा। इसी बीच कुछ कर्मचारियों ने भी उनके साथ धोखाधड़ी की और उन पर कर्ज का बोझ बढ़ता गया, जिसे चुकाने के लिए उन्हें बम्बई जाकर फिल्म इन्डस्ट्री मे पटकथा लेखक के रूप में साढ़े सात सौ रुपये मासिक वेतन पर काम करना पडा। उनका स्वास्थ्य बिगडता गया, लेकिन उन्हें अपनी पत्नी की चिता थी, अपने छोटे बच्चो की चिंता थी और ‘हंस’ पत्रिका के भविष्य की चिता थी। अगर अपनी मृत्यु के समय वे जलोदर की भीषण बीमारी के इलाज पर पैसे खर्च न कर अपनी पत्नी, अपने दो छोटे बच्चों और हंस के लिये बैक बैलेंस 4,500 रूपये छोडकर गये, तो इस साक्ष्य के आधार पर हम उन्हें धनी कैसे कह सकते है? 1936 के 4,500 रुपये का मूल्य 2025 में 18,37,733.32 रुपया होगा। मुद्रा के भावी मूल्य का आकलन Future Value (of currency) =Present Value (1+inflation)^number of years के फॉर्मूला के आधार पर किया जाता है। 4500 रुपये पर 89 वर्षो तक प्रति वर्ष औसतन 7.5% मुद्रास्फीति के प्रभाव की गणना करने पर [FV=4500(1+0.075)^89 years] आपको Rs. 18,37,733.32 की संख्या ही प्राप्त होगी जो आज सामान्य आर्थिक स्थिति के लोगों के पास भी उपलब्ध है।