परिवारवादी पार्टियों के संकट

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Parichay Das

— परिचय दास —

भारतीय राजनीति में परिवारवादी पार्टियों का प्रभाव गहराई से जुड़ा हुआ है। इन दलों की संरचना सत्ता के उत्तराधिकार को एक परिवार के भीतर सुरक्षित रखने की मंशा पर आधारित होती है, जिसमें नेतृत्व का स्थान वंशानुगत होता है। यह प्रवृत्ति भारतीय लोकतंत्र की आत्मा के विरुद्ध एक अंतर्विरोध खड़ा करती है, जहाँ जन-निर्वाचित नेतृत्व की अवधारणा का स्थान पारिवारिक वफादारी, नाम और जातिगत विरासत ले लेते हैं। इस व्यवस्था में पार्टी के भीतर लोकतांत्रिक संवाद और आत्मालोचना के लिए बहुत कम जगह रह जाती है, जिससे आंतरिक असहमति अक्सर सार्वजनिक अपमान, निष्कासन या आत्मवंचना में बदल जाती है।

हालिया घटनाएँ जैसे आकाश आनंद का बसपा से दूरी बना लेना या तेज प्रताप यादव का राजद से निष्कासन, इस बात की मिसाल हैं कि परिवारवादी दलों में सत्ता की ‘धुरी’ व्यक्ति विशेष या उसके द्वारा नियुक्त उत्तराधिकारी के इर्द-गिर्द घूमती है या भिन्न स्वभाव के नेताओं को असहजता से देखा जाता है, भले ही वे परिवार के ही सदस्य क्यों न हों। इन झगड़ों के पीछे अक्सर सत्ता की निकटता, उत्तराधिकार की महत्त्वाकांक्षा और स्वयं को ‘वैकल्पिक केंद्र’ के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश होती है। उदाहरण के तौर पर, तेज प्रताप यादव ने स्वयं को बार-बार राजनीतिक रूप से तेजस्वी यादव से अलग दिखाने की कोशिश की लेकिन पार्टी के भीतर उन्हें न तो कोई स्वतंत्र स्थान मिला और न ही कोई निर्णायक भूमिका।

इन झगड़ों में जो सबसे दिलचस्प बात होती है, वह यह कि वे सार्वजनिक मंचों पर चतुराई से ‘लीक’ या ‘वायरल’ किए जाते हैं, ताकि जनता को यह आभास हो कि कोई पारदर्शिता है या कोई ‘सच्चाई’ सामने आ रही है। यह राजनीतिक चतुराई उस शैली से जुड़ जाती है जो अक्सर इन नेताओं के भाषा, व्यवहार और आचरण में दिखती है—चिल्ला-चिल्ली, टी.वी. इंटरव्यू में आरोप-प्रत्यारोप और सोशल मीडिया पर अनर्गल बातें करना। इससे न सिर्फ़ जनता के बीच राजनीति का मज़ाक बनता है बल्कि लोकतंत्र की गंभीरता भी हल्की पड़ जाती है। आकाश आनंद का अचानक उभरना और फिर मायावती द्वारा उसे किनारे कर देना, दिखाता है कि पार्टी संरचना में असली सत्ता किसके पास है और किस तरह उसका हस्तांतरण केवल उसी व्यक्ति की मर्जी से संभव है।

यह केवल शैली तक सीमित नहीं है बल्कि विचार और नीति के स्तर पर भी है। जब आंतरिक लोकतंत्र नहीं होता तो विचारधारा पीछे छूट जाती है और परिवार या व्यक्ति की छवि ही पार्टी की पहचान बन जाती है। समाज में भी यह धारणा बनती है कि राजनीति अब सेवा नहीं बल्कि पारिवारिक पेशा बन चुकी है—जैसे वकालत, डॉक्टरी या व्यापार।

इन झगड़ों के सामाजिक असर भी गहरे हैं। एक ओर, ये घटनाएँ युवाओं में राजनीति के प्रति वितृष्णा पैदा करती हैं; दूसरी ओर, जातीय और क्षेत्रीय वफादारियाँ इन परिवारों के साथ इस हद तक जुड़ी होती हैं कि आम जनता इन झगड़ों को भी निजी भावना से जोड़ लेती है। पार्टी की जगह व्यक्ति के साथ जुड़ाव बनता है—मायावती के साथ दलित, अखिलेश/तेजस्वी के साथ यादव, उद्धव ठाकरे के साथ मराठी अस्मिता—और इस तरह लोकतांत्रिक संवाद की बजाय व्यक्तिगत ‘भक्ति’ हावी हो जाती है लेकिन यहाँ भी जाति नहीं, खुद को, खुद के परिवार को ही आगे बढ़ाया जाता है।

सबसे खतरनाक पहलू यह है कि इन झगड़ों को विपक्षी दल एक ‘तमाशे’ की तरह पेश करते हैं, जिससे राजनीतिक विमर्श का स्तर और गिरता है। इसे ‘गठबंधन की अक्षमता’, ‘परिवारवाद की सड़ांध’ या ‘असंयमित नेतृत्व’ के उदाहरण के तौर पर चित्रित किया जाता है। लोकतांत्रिक बहुलता धराशायी हो जाती है और जनता के विकल्पों की क्षति होती है।

भारतीय राजनीति के इन पारिवारिक झगड़ों को महज़ व्यक्तिगत या भावनात्मक संघर्ष मानना सही नहीं है। ये दरअसल राजनीतिक संस्कृति, दलों की आंतरिक संरचना, विचारधारात्मक दरिद्रता और लोकतांत्रिक मूल्यों की गिरावट का प्रतिबिंब हैं। यह विमर्श केवल आलोचना का विषय नहीं बल्कि लोकतंत्र के भविष्य के लिए एक गंभीर चेतावनी है।

भारतीय लोकतंत्र की मूल आत्मा—लोक-निर्वाचित, पारदर्शी और विचारशील नेतृत्व—के विरुद्ध परिवारवादी पार्टियां एक गहराते वंशवादी संकट को उजागर करती हैं। परिवारवादी पार्टियां लोकतांत्रिक मूल्यों का बाह्य प्रदर्शन तो करती हैं लेकिन उनकी भीतरी संरचना राजशाही की तरह उत्तराधिकार और वफादारी पर आधारित होती है। यह लोकतंत्र की आत्मा—जनप्रतिनिधित्व और विचारधारा—के साथ एक विडंबना रचता है। इस विमर्श में यह बिंदु उभरता है कि वंशवाद केवल सत्ता-हस्तांतरण का माध्यम नहीं है बल्कि यह दलों की आंतरिक लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं, आत्मालोचना और संवाद की हत्या करता है तथा भिन्न को अपराध की तरह देखा जाता है।

आम मतदाता भी इन परिवारों से जातीय, क्षेत्रीय या भावनात्मक निष्ठा के कारण जुड़ा होता है। इससे पार्टी की वैचारिकता गौण हो जाती है और राजनीति व्यक्तिपूजा या परिवारभक्ति में बदल जाती है।

राजनीतिक विमर्श में यह उल्लेखनीय है कि मीडिया और विपक्षी दल इन पारिवारिक झगड़ों को तमाशे की तरह परोसते हैं, जिससे राजनीति का गंभीर विमर्श हास्यास्पद बनता है और जनता का लोकतंत्र पर भरोसा कमजोर होता है।

वंशवादी दलों की गिरती साख और आंतरिक संघर्षों के चलते सत्ता पक्ष (विशेषकर केंद्र की सत्तारूढ़ पार्टी) स्वयं को अनुशासित और विचारप्रधान दिखाकर एकमात्र विकल्प के रूप में प्रस्तुत करती है। इससे बहुदलीय लोकतंत्र की विविधता का ह्रास होता है।

लेख यह विमर्श भी खड़ा करता है कि राजनीति अब सेवा नहीं रही बल्कि एक पारिवारिक पेशा बन गई है—जैसे कोई पारंपरिक व्यवसाय। इससे आम युवाओं में राजनीति के प्रति निराशा और वितृष्णा बढ़ती है।

यदि वंशवाद और आंतरिक लोकतंत्रहीनता का यह सिलसिला चलता रहा तो भारतीय लोकतंत्र मात्र चुनावी तंत्र बनकर रह जाएगा, जहाँ जनता के पास असली वैकल्पिक विचारधाराएँ और नेतृत्व नहीं बचेंगे। यह विमर्श केवल आलोचना नहीं, बल्कि राजनीतिक पुनर्रचना की मांग है—ऐसे दलों और नेतृत्व की जो विचार आधारित हों न कि खून के रिश्तों पर टिकी हुई विरासत।
वंशवादी राजनीति का व्यावहारिक (प्रायोगिक) और विकृत (विकृत रूप में प्रकट) स्वरूप भारतीय राजनीति में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। यह वह स्थिति है जहाँ वंशवाद और परिवारवाद राजनीति में सामान्यीकृत व्यवहार बन चुका है।

पार्टियों में नेतृत्व परिवर्तन चुनाव या विचार-विमर्श से नहीं, बल्कि परिवार के भीतर तय होता है। शरद पवार से अजित पवार/सुप्रिया सुले, मुलायम से अखिलेश, लालू से तेजस्वी, करुणानिधि से स्टालिन।

अधिकांश निर्णय एक परिवार या व्यक्ति विशेष के इर्द-गिर्द लिए जाते हैं। पार्टी कार्यकर्ता केवल अनुयायी या सभा भरने वाले बनकर रह जाते हैं। युवाओं को राजनीतिक प्रशिक्षण के नाम पर बिना अनुभव और संघर्ष के पार्टी में ऊँचे पद मिल जाते हैं। यह राजनीति को नौकरी के स्थानांतरण जैसा बना देता है। जनता का काम सिर्फ वोट देना रह गया है। नेतृत्व तय करने का कोई प्रभावी मंच या प्रक्रिया उसके पास नहीं है।

जब यह परिवारवाद एक रुग्ण स्थिति में बदल जाता है तो राजनीति में कई प्रकार की विकृतियाँ पैदा होती हैं। परिवारवादी नेता खुद को अभिजात वर्ग का सदस्य समझते हैं, और जनता या कार्यकर्ताओं को निम्नतर वर्ग। सत्ता के लाभ परिवार, रिश्तेदारों और करीबी व्यापारिक समूहों तक सीमित हो जाते हैं।
अवैध संपत्ति, ठेकों में पक्षपात, और नौकरियों में सिफ़ारिश। जो पार्टी के भीतर सवाल उठाते हैं या विकल्प बनना चाहते हैं, उन्हें पद से हटाना, अपमानित करना या निष्कासित करना आम हो गया है। शिवसेना में एकनाथ शिंदे के उभार को अलग ढंग से देखा गया या बीजेपी ने जैसा उनका पोषण किया या बसपा में आकाश आनंद को ‘सद्बुद्धि’ की उम्मीद जताते हुए हटाया गया।

सोशल मीडिया और टीवी पर सार्वजनिक विवाद, आरोप-प्रत्यारोप जैसी घटनाएँ इस विकृति को और बढ़ा देती हैं। कई बार जानबूझकर झगड़े लीक किए जाते हैं ताकि सहानुभूति या वैधता पाई जा सके। इससे राजनीति तमाशा बन जाती है।

व्यावहारिक रूप में परिवारवाद राजनीति का अंग बन चुका है, लेकिन जब यह बुनियादी लोकतांत्रिक मूल्यों को नष्ट कर देता है, तो उसका विकृत रूप उभरता है—जहाँ विचारधारा, नीति, संवाद, और जनता की भागीदारी गौण हो जाती है, और परिवार, छवि, जाति और प्रचार ही राजनीति के मुख्य उपकरण बन जाते हैं।

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