
— प्रोफेसर राजकुमार जैन —
1978 मैं दिल्ली सरकार की कला, साहित्य, संगीत परिषद की सलाहकार समिति का मैं सदस्य था। साहित्य कला परिषद् के सचिव श्री दयाप्रकाश सिन्हा ने एक दिन कहा कि आइआइटी दिल्ली का एक प्रोफेसर कॉलेजों में शास्त्रीय संगीत के प्रचार-प्रसार के लिए मतवाला हुआ फिर रहा है। आप उनसे मिल लें। सोशलिस्ट नेता मधु लिमए की संगत तथा मेरे मोहल्ले के एक मंदिर में गोसाई जी द्वारा हर शनिवार को संगीत सभा में सुनने जाने के कारण मेरी भी शास्त्रीय संगीत में रुचि पैदा हो गई थी, सचिव दया शंकर जी इस बात से वाकिफ थे। कुछ दिन बाद प्रोफेसर किरण सेठ से मेरी मुलाकात हो गई। थोड़े समय पहले ही उनके द्वारा स्पिक-मैके, ,(society for promotion of Indian classical music andculture Amongst youth),(spic,- MacAY) की स्थापना हो चुकी थी। दस-पंद्रह मिनट की इस मुलाकात में भारतीय संस्कृति, साहित्य , शास्त्रीय संगीत में डॉक्टर सेठ की गहन रुचि को देखकर मैं बहुत प्रभावित हुआ। उस समय शिक्षित युवाओं विशेष कर कॉलेज के छात्रों में शास्त्रीय संगीत के प्रति अरुचि और पाश्चात्य भोड़ी नकल को लेकर उनके मन की पीड़ा को देखकर मेरे मन में उनके प्रति आदर का भाव उमड़ आया। दिल्ली यूनिवर्सिटी के विभिन्न कॉलेजों में संगीत के नाम पर फिल्मी अथवा अंग्रेजी गानों के बैंड पर थिरकने के ही अधिकतर प्रोग्राम आयोजित होते थे। शास्त्रीय संगीत के कभी कभार किसी कार्यक्रम की शुरुआत अगर की भी जाती थी वह असफल सा ही हो जाता था।
आरंभ में उसकी तैयारी मीटिंग दिल्ली आईआईटी के प्रोफेसर सी,पी, अरोड़ा के घर हुआ करती थीं। जहाँ पर आइआइटी के कुछ छात्र, शिक्षक तथा तीन-चार बाहर के लोग इकट्ठा होते थे। यह स्पिक-मैके का शैशव-काल था। कुछ शास्त्रीय संगीत-नृत्य के आयोजन हो चुके थे।। स्पीक मैके के संचालन के लिए एक समिति भी बनाई गई, जिसकी कार्यकारिणी के एक सदस्य के रूप में मुझे भी शामिल किया गया।
किसी भी संगठन को आरंभ में जिन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। उन सभी मुश्किलों में स्पिक-मैके को भी गुजरना पड़ रहा था, व था आर्थिक संकट। 1978 में धन की पहली किश्त के रूप में डॉ किरण सेठ के विद्यार्थियों ने छह हजार रुपए एक स्मारिका के माध्यम से एकत्र किए थे। फिर उसके बाद अगले साल फिर आइआइटी के छात्रों द्वारा एक अन्य स्मारिका के माध्यम से लगभग 26 हजार रुपया एकत्रित किया गया। उसके बाद डॉ किरण सेठ एवं उनके मित्रों द्वारा अमेरिका में स्थापित एक ट्रस्ट,”ट्रस्ट फॉर एजुकेशन टू प्रमोट प्रोग्रेस” से कुछ रूपयों का बंदोबस्त किया गया।
शुरू में आईआईटी के कुछ उत्साही प्रोफेसर और छात्र आईआईटी अथा दिल्ली में ही कुछ अन्य जगहों तक सीमित प्रोग्राम करने में ही इच्छुक थे। जब डॉ सेठ ने इसकी व्यापक प्रचार-प्रसार की रूपरेखा को मीटिंग में रखा, तब उस समय के कई साथियों को न केवल यह अव्यावहारिक्त लगा, बल्कि उन्होंने इसकी सफलता पर भी संदेह व्यक्त किया और एक हद तक वे निष्क्रिय भी हो गए ।
परन्तु स्पिक-मैके का कारवां चल पड़ा था । राह में कुछ मुसीबतें आई, किन्तु वह दिनों-दिन तेज़ी से बढ़ने लगा और आज उसने निश्चित रूप से एक मंज़िल हासिल कर ली है । शास्त्रीय संगीत- जगत् में स्पिक मैके सबसे चर्चित नाम है । इसके पीछे निःस्वार्थ निष्ठा, लगन, तन्मयता की एक अनवरत परिपाटी है, जिसके कारण यह संस्था आगे बढ़ रही है। ‘टाइम्स ऑफ इण्डिया ने 86 में लिखा कि संसार में अब तक आयोजित सभी शास्त्रीय संगीत सम्मेलनों में स्पिक-मैके – द्वारा आयोजित “उत्सव – 86 * सबसे बड़ा तथा भव्य है। हिन्दुस्तानी और कर्नाटक शैली के सभी चोटी के कलाकार इसमें भाग ले रहे हैं । उन्का मंतव्य था कि स्पिक-मैके को पुरस्कृत किया जाना चाहिए ।
स्पिक मैके के कार्य करने की अपनी एक विशेष पद्धति रही है। शुरू में इसकी स्थापना मे यह धारणा रही कि इसका कार्यक्षेत्र विश्व- विद्यालय, कालेज एवं स्कूली छात्रों तक रहेगा। इसमें मुख्य रूप से छात्र तथा शिक्षक भाग लेगे । इस संस्था की स्थापना से पूर्व के दिल्ली विश्वविद्यालय एवं कालेजों के गत बीस वर्ष के इतिहास की और जब मैं नज़र दौड़ाता हूं और फिर स्पिक मैके द्वारा पिछले छह-सात सालों से आयोजित संगीत कार्यक्रमों की ओर देखता हूँ, तो लगता है कि जैसे कोई संगीत- क्रान्ति हो गई है ।
दिल्ली यूनिवर्सिटी में 1966 से लेकर 1979-80 तक यदा-कदा ही संगीत की महफिल होतो थीं । संगीत के नाम पर एक दिल्ली यूनीवर्सिटी म्यूजिक लवर्स सोसाइटी हुआ करती थी, जिसको देखरेख बाटनी – विभाग के प्रो०राव और उनके कुछ मित्र किया करते थे। ‘नाद’ नामक एक अन्य संगीत – सभा का नाम भी एकाध बार सुनने में आया । इसके अतिरिक्त अन्य किसी संगीत-सभा का कम-से-कम मुझे तो ज्ञान नहीं है । हालांकि कहने को दिल्ली यूनीवर्सिटी में संगीत का एक बड़ा विभाग भी है, परन्तु उनकी तरफ से विश्वविद्यालय के आम विद्यार्थियों में संगीत के लिए अभिरुचि उत्पन्न करने तथा संगीत-रसिकों को रसास्वादन करवाने का कोई उल्लेखनीय प्रयास नहीं किया गया । मुझे यह कहते हुए दुःख होता है कि स्पोक मैके के प्रथम चरण के प्रयास में सहयोग देना तो दरकिनार, बल्कि एक तरह से इसकी खिल्ली भी उड़ाई गई । सहयोग के स्थान पर तिरस्कार की भावना देखी गई।
स्पीक-मैके के मूल में यदि हम जाएं तो देखेंगे कि इसकी स्थापना में एक सांस्कृतिक जन-जागरण के रूप में इसको विकसित करने का व्रत लिया गया था और सांस्कृतिक जनजागरण अथवा पुनरुत्थान के लिए उसकी पवित्रता, मौलिकता एवं ऐतिहासिकता से बंधना पड़ता है मिलावट या चालूंपन से उसका उद्देश्य ही चौपट हो जाता है । इसी बात को ध्यान में रख कर संस्था में अपने नियम, रीति-रिवाज तथा परम्परा अपनाई ।
1978 में डागर – बंधु के दिल्ली आई०आई०टी० के प्रोग्राम से इसका शुभारंभ हुआ । इसके बाद 1979 में यहीं पर दो-दिवसीय संगीतोत्सव मनाया गया और 1980 से तो स्पीक-मैके निरंतर आगे बढ़ता गया।
शास्त्रीय संगीत जगत् की आदिकाल से एक परंपरा रही है, वह है गुरु-शिष्य परम्परा । परन्तु इस परंपरा का निर्वाह केवल संगीत को सिखाने वाले उस्तादों, गुणोजनों, विद्वानों और उनसेसीखने वाले विद्यार्थियों तक ही होता रहा है । परन्तु जब कलाकार को अपनी कला का प्रदर्शन करना होता है तो सामने बैठे रसिकजन अथवा आयोजक : विद्यार्थी के रूप में नहीं होते बल्कि कभी-कभी तो ‘मालिक और’ खरीददार’ जैसी मनोवृत्ति से भी भरे रहते हैं । स्पीक- मैके के कार्यकर्त्ता यद्यपि स्वयं संगीत सीखने के भाव से तो नहीं परन्तु हर कलाकार को गुरु का दर्जा दे कर उसके प्रति भक्तिभाव का हृदय से पालन करते रहे हैं, यही एक कारण था जिसकी वजह से हिन्दुस्तान का कोई भी कलाकार चाहे वह किसी भी विधा का हो, स्पीक-मैके को अपनत्व एवं प्रेम की दृष्टि से देखता है । संगीत- जगत् के उन नामी कलाकारों को, जिनके प्रोग्राम की टिकटें सैकड़ों रुपयों में बिकती हैं, उन्हें हिन्दुस्तान के किसी भी दूर देहात के स्कूल-कालेज में प्रोग्राम देने में आनंद आता है । इसका एक ही कारण है कलाकार के प्रति भक्ति भाव । आज के इस व्यावसायिक युग में, जब कलाकार भारी फीस आयोजकों से वसूलता है, आयोजक भी इसे महज़ एक औपचारिक रूप में पैसे दे कर आनंद लेने तक के सिद्धांत में ही यकीन करते हैं । परन्तु स्पिक-मैके ठीक इसके विपरीत गुरु और पिता का सम्मान इन कलाकारों को देता है । संस्था का प्रयास रहता है कि कलाकार और विद्यार्थियों में अनौपचारिकता का माहौल बना रहे। इसलिए जिस महाविद्यालय अथवा कालेज में प्रोग्राम हो रहा है, वहीं पर कलाकार को ठहराया जाए, ताकि एक तो वहाँ के छात्र पूरी तरह उनकी देख- भाल स्वयं कर सकें, बतिया सकै तथा इस प्रकार एक आत्मीयता आपस में आ जाती है। कलाकार कितना भी गुणी हो, परन्तु जिस जगह उसका प्रोग्राम होना है, वहाँ का माहौल अगर सुरुचिपूर्ण नहीं होगा तो कलाकार का मूड बिगड़ सकता है । इसके लिए संस्था विशेष ध्यान रखती है ।
संगीत की महफिल के कुछ अपने नियम हैं । जिस समय कलाकार राग,अलाप आरंभ कर देता है और जब तक उसको ख़त्म नहीं करता, उस समय कलाकार और श्रोताओं के मध्य में तन्मयता से संबंध स्थापित हो जाता है। श्रोता और कलाकार दोनों रसमय आराधना में लीन हो रहे होते हैं।
उस बीच में किसी भी तरह का यदि विघ्न पड़ता है तो न केवल रसभंग होता है बल्कि यह एक बेअदबी भी है । स्पोक मैके का प्रयास रहता है कि राग के आरंभ और समाप्ति तक किसी तरह का आर-जार न रहे । बैठक की समाप्ति के बाद कलाकार और उनको संगत करने वाले अन्य कलाकारों तथा उनके अतिथियों के भोजन की व्यवस्था स्थानीय कालेज अथवा विश्वविद्यालय के कार्य- कर्ताओं की ओर से होती है । उस समय का दृश्य देखने लायक होता । कलाकारों और अतिथियों की आवभगत अनौपचारिक रूप से होती है । मानों घर में कोई बहुत ही करीब का प्रियजन आया है । प्रेम से अपने हाथों से खाना परोसते हुए छात्र कुछ और, कम से कम एक पूरी तो और लेनी हो पड़ेगी जैसे मिठास से भरे बोल सुनने को मिलते रहेगे । भोजनोपरांत उनको भावभीनी विदाई देने का समा ऐसे बंध जाता है जैसे घर का कोई सदस्य बहुत दिन के लिए बाहर जा रहा हो, यह कार्य भी आदरपूर्वक संपन्न होता है। कलाकार छात्रों के इस आत्मिक प्रेम और अदब तथा व्यावसायिक आयोजकों के ओपचारिक व्यवहार के अंतर को समझ लेता है और इसी कारण से उनमें एक अटूट श्रृंखला बनी रहती है।
27 जनवरी, 1986 को मिरांडा हाउस कॉलेज दिल्ली यूनिवर्सिटी में शहनाई के विश्व विख्यात, बिस्मिल्ला खां साहब ने खाने के वक्त जो बात कही थी, वह आज तक मुझे याद है। उन्होंने कहा था कि मैंने अपनी जिन्दगी में हजारों प्रोग्राम दिए हैं । बड़े-बड़े रईसों-नवाबों के यहां भी । पैसा भी अच्छा मिलता था । परन्तु उनके लड़के-लड़कियां, घर वाले कभी-कभी बड़े बेअदबी से पेश आते थे । मगर कालेज के तालिमइत्मों में जो खुलूस, मोहब्बत और फन के लिए अदब है, माशाअल्लाह मुझे बहुत खुशी होती है । मैं कह सकता हूं कि अब क्लासिकल मौशिको को चार चांद दिन-ब-दिन लगते जाएंगे । आप लोगों के बीच में आकर तबीयत खुश हो जाती है ।पाठकों के मन में एक सवाल जरूर उठ रहा होगा कि आज के इस खर्चीले युग में जहाँ कलाकार एक प्रोग्राम के लिए भारी फीस वसूलते हैं, उनको देने के लिए धन कहा से स्पीक मैके के पास आता है,? पहली बात तो यह स्पष्ट कर दूं कि संगीतकार और स्पिक-मेके का संबंध विक्रेता और ग्राहक का संबंध नहीं है। स्पिक मैके एक नान कामर्शियल संस्था है। इसके किसी भी प्रोग्राम के लिए कोई फीस या टिकट इत्यादि नहीं लगता । दूसरे इस संस्था का उद्देश्य भारतीय संगीत को उसके अक्षुण्य रूप में अधिक से अधिक युवकों, छात्रों में प्रचार करने तथा उनमें इसके प्रति अभिरुचि उत्पन्न करना है। कलाकार उपरोक्त तथ्यों से भलीभांति परिचित होते हैं । कलाकार को संस्था बहुत ही कम नाममात्र के रूप में कुछ दक्षिणा दे पाती है । और कलाकार भी इसे सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं । फिर भी अखिल भारतीय स्तर पर कार्य करने के लिए धन की आवश्यकता पड़ती है और वह भी लाखों में । इसके लिए संस्था सरकारी, अर्धसरकारी, व्यापारिक संस्थानों, प्रादेशिक सरकारों, संस्कृति, कला, साहित्य में रुचि रखने वाले व्यक्तियों तथा संस्थाओं से, विज्ञापनों, ब्रोशरों तथा प्रायोजन आदि के रूप में धन एकत्रित करती है । इस कार्य की सबसे अनुकरणीय चीज यह है कि संस्था के कार्यकर्ताओं द्वारा सार्वजनिता धन का उपयोग इस प्रकार किया जाता है, मानों कम पैसों में घर का खर्च चलाना हो।
कलाकार को किसी प्रोग्राम के लिए अनुबंध करने की इसकी अपनी एक विशिष्ट परिपाटी है । साधारणतया स्पिक-मैके के पास इतना धन नहीं रहता कि वह विशेष रूप से कलाकार को प्रोग्राम के लिए बुलवाए । स्पिक मैके सदेव इस बात का पता करता रहता है कि कौन कलाकार किस प्रांत शहर- कस्बे में अन्य किसी आयोजन के लिए जा रहा है और घात लगाने की तरह से फट कलाकार से विनम्र प्रार्थना कर देता है कि आप एक-दो बैठकें हमारे लिए भी आसपास के शहर के किसी कालेज में कर दें। इससे एक तो कलाकार के आने-जाने के खर्चे से छूट मिलती है, दूसरे कलाकारों को भी इसमें सुविधा बनी रहती है।कई बार युद्ध स्तर पर भी प्रोग्राम आयोजित करने का कार्य संस्था करती है। मान लीजिए कि किसी कलाकार के आगमन की सूचना एकदम ही मिली तथा एक या दो दिन में ही उसे वापिस जाना है तो स्पिक मैके के कार्यकर्ता आपातकालीन समय मान कर उनका प्रोग्राम आयोजित करवा देंगे। उदाहरणार्थ इसी तरह का एक प्रोग्राम भारत सरकार द्वारा फ्रांस में आयोजित भारत महोत्सव के अवसर पर केरल की प्रसिद्ध कोडियट्टम मंडली दिल्ली से हवाई जहाज पकड़ने वाली थी । ऐन वक्त पर दिल्ली के एक कालेज में इस अद्भुत कला का प्रदर्शन करवाया दिया गया।
संस्था का राष्ट्रीय स्तर पर विस्तार भी एक रोचक पहलू है। क्योंकि छात्र ही इसमें मुख्य रूप से भाग लेते हैं। स्पिक-मेके कार्यक्षेत्र आरंभ में मुख्य रूप से दिल्ली ही रहा है। छात्र जीवन समाप्त करके जब युवक अपने घरों, प्रदेशों और नौकरी इत्यादि पर विभिन्न स्थानों पर जाते हैं, तो वे स्वयं पत्रव्यवहार करके स्थानीय स्तर पर स्कूलों कालेजों से संपर्क स्थापित करके नए चैप्टर की शुरुआत करवा देते हैं । इसी क्रम में वे अपने माध्यम से धन-संग्रह भी करते हैं ।
स्पिक-मैके का विश्वास है कि केवल मनोरंजन के स्तर तक ही सीमित रखने पर वास्तविक उद्देश्य अधूरा रह जाएगा। इसलिए व्यावहारिक प्रदर्शन से ले कर उसकी शास्त्रीय व्याख्या, व्याख्यान, जवाब – सवाल, संस्था की भाषा में कहें तो “लेक डेम लेक्चर एंड डेमोंसट्रेशन, भाषण और प्रस्तुति भी आयोजित करते हैं, जिसमें कलाकार कला के प्रदर्शन के बहुआयामी पक्षों पर भी विचार व्यक्त करके एवं उनकी शंकाओं का समाधान करता है । साथ-साथ उस विधा के श्रोताओं को जानकारी एवं उनकी शंकाओं का समाधान करता है।
संगीत के इतिहास में एक नया आयाम जोड़ने का जो एक ऐति- हासिक कार्य संस्था ने किया है, वह है इसका स्कूली छात्रों में “लेक डेम ” का आयोजन । स्कूल के छोटे बच्चे जो कल का भविष्य हैं, उनके निर्मल मन में भारतीय संस्कृति, संगीत के प्रति जिज्ञासा तथा लगाव का अंकुर उत्पन्न करने के लिए संस्था विशेष ध्यान रखती है। बचपन में ही मन पर पड़ा प्रभाव चिरस्थाई बन जाता है।
संस्कृति, साहित्य, कला, लोक संस्कृति, योग इत्यादि के कार्य में भी संस्था रुचि रखती है । योगाभ्यास के कैंप, आर्ट पिक्चर, लोकोत्सवों, के कार्यक्रम भी इसने आयोजित किए हैं। स्पिक मैके के अथक प्रयास से नई पीढ़ी के युवक युवतियो में भारतीय संस्कृति, कलाओं के प्रति अभिरुचि जगी है, जो शास्त्रीय संगीत कभी स्कूल और कालेजों में देखने को नहीं मिलता था, आज इसके प्रदर्शन पर कालेजों के हाल भरे होते हैं। पूरी गंभीरता और तल्लीनता से श्रोता इसका रसास्वादन करते हैं तथा स्वयं सीखना भी आरंभ कर देते हैं। शहर की संगीत संस्थाओं द्वारा आयोजित महफिलों को मैंने पहले भी देखा था परंतु आज उसमें नई पीढ़ी जिस उमंग के साथ शिरकत करतो है, उससे कलाकार को आनंद तथा दक्षिणा दोनों मिलते हैं। इसका बहुत कुछ श्रेय स्पिक मैके को जाता है।
उपरोक्त जो वर्णन मैंने लिखा है, वह कोई किताबी नकल या ज्ञान नहीं, अपने विश्वविद्यालय जीवन में तकरीबन 10 साल मैंने और मेरे एक अन्य साथी पुरुषोत्तम दास जो अभी-अभी इंडियन मिलिट्री इंजीनियरिंग सर्विस से एडिशनल डायरेक्टर जनरल के पद से रिटायर्ड हुए हैं, स्पिक मेंके के वॉलिंटियर के रूप में गुजारे हैं। जब वे दिल्ली कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग के छात्र थे तो स्पिक मैके के प्रोग्राम में ही उनसे मुलाकात हुई थी, हिंदुस्तान के प्रसिद्ध शास्त्रीय गायक उस्ताद रशीद ख़ान के गायन का प्रोग्राम उन्होंने अपने कॉलेज में आयोजित किया था, जिसमें श्रोता के रूप में हम पांच लोग वहां मौजूद थे। दिल्ली सहित देश के अन्य भागों में स्पिक मैके द्वारा आयोजित प्रोग्राम में वॉलिंटियर के रूप में हम शिरकत करते थे। साथी पुरुषोत्तम खुद क्योंकि एक बांसुरी वादक भी है, इसलिए प्रोग्राम में मुख्य कलाकार के साथ वे तानपुरा भी बजाते थे। उसी तरह कलाकारों का परिचय लिखने तथा सभा में उद्घोषणा करने का कार्य मैं भी कई बार करता था। स्पिक मैके के वक्त हुई हमारी यह दोस्ती आज भी बरकरार है, उसी तरह अन्य वॉलिंटियरों के भी निजी संबंध हमेशा हमेशा के लिए बन गए होते हैं। हमारे समय में कामायनी, जालान, मुकुलिका बनर्जी, मधुलिका, रुक्मणी शेखर, महेंद्र सिसोदिया, सोमा सुंदरम, मिथिलेश झा ( मोंटू,), सबीना सहगल, मालविका मजूमदार वगैरा की एक टोली एक साथ मिलकर स्पिक मैके के कार्य में जुटी रहती थी। प्रसिद्ध संगीत समीक्षक रविंद्र मिश्रा प्रचार के कार्य में सदैव जुड़े रहते थे।
हमारे समय से स्पिक मैके बहुत अधिक आगे बढ़ गया है। स्पिक मैके का प्रथम कार्यक्रम जो दिल्ली के आईआईटी ऑडिटोरियम जिसमें 15, 00 दर्शकों के बैठने की व्यवस्था है वहां पर मात्र पांच श्रोता हाजिर थे, परंतु अब इसका विस्तार बहुत व्यापक पैमाने पर हो चुका है। इस समय वह 1 साल में तकरीबन 5000 कार्यक्रम देश-विदेश में आयोजित कर रहा है। दुनिया भर में 800 से अधिक शहरों में इसकी शाखाएं हैं,अब उसका कार्य क्षेत्र केवल स्कूल या कॉलेज या यूनिवर्सिटी तक ही सीमित नहीं रह गया। देश विदेश दोनों जगह उसकी शाखाएं कार्य कर रही है। शहर के पार्कों में बड़े स्तर पर सांस्कृतिक आयोजन, संगीत सभाएं आयोजित की जा रही है। भारतीय शास्त्रीय संगीत, नृत्य वादन गायन के साथ-साथ योग, ध्यान, पारंपरिक हथकरघा, हस्तशिल्प व्याख्यान प्रदर्शन आयोजित हो रहे हैं।
भारत की इस सांस्कृतिक क्रांति का एकमात्र जनक प्रोफेसर किरण सेठ है। मैंने उनको बहुत नजदीक से देखा, सुना, परखा है। पदमश्री प्राप्त किरण सेठ ने कश्मीर से कन्याकुमारी 3500 किलोमीटर की साइकिल यात्रा 75 साल की उम्र में करके हिंदुस्तान को एक सांस्कृतिक सूत्र में बांधने के प्रयास में आज भी लगे हुए हैं।
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