भारत के चुनाव आयोग की स्वतंत्रता बहाल करें: भारत के माननीय राष्ट्रपति से एक सार्वजनिक अपील

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बिहार में मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण का मामला, जिसके लिए भारत के चुनाव आयोग (ECI) ने आदेश दिया है, सर्वोच्च न्यायालय के संज्ञान में है। चूँकि यह मामला न्यायालय में विचाराधीन है, सिटिज़न्स फ़ॉर डेमोक्रेसी (जनतंत्र समाज), एक ज़िम्मेदार संगठन और जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों के रक्षक होने के नाते, नियमों और परंपराओं का पालन करेगा और इस मामले पर कोई टिप्पणी नहीं करेगा। बहरहाल, कई संगठनों, राजनीतिक दलों और व्यक्तियों ने, याचिकाकर्ता के रूप में, देश सर्वोच्च अदालत के समक्ष अपना पक्ष पहले ही प्रस्तुत कर दिया है। कहने की आवश्यकता नहीं कि हम याचिकाकर्ताओं के साथ हैं।

लेकिन, 2014 में भाजपा सरकार के सत्ता में आने के बाद से ही चुनाव आयोग की चूक और गलतियों को उजागर करना हमारा कर्तव्य है, जिसे निभाने में हम संकोच नहीं करेंगे। चुनाव आयोग, जो एक स्वतंत्र संवैधानिक निकाय है, ने अपनी स्वायत्तता को सत्तारूढ़ दल के चरणों में डाल दी है और भारत में लोकतंत्र को कुचलने के सत्तासीन पार्टी के प्रयासों को अंजाम देने में फ़रमाँ-बरदार बन गया है। मुख्य चुनाव आयुक्त के प्रतिष्ठित पद पर जैसे कोई नया व्यक्ति बैठता है वैसे ही हालात बद से बदतर हो जाते हैं।

चुनाव आयोग – अब एक सरकारी दफ्तर

2023 में, सर्वोच्च न्यायालय ने मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य आयुक्तों की नियुक्ति प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश की एक समिति द्वारा करने का सुझाव दिया और सरकार से 1991 के अधिनियम में ज़रुरी बदलाव करने को कहा। सरकार ने तुरंत अधिनियम में संशोधन किया और मानो, सर्वोच्च न्यायालय का मखौल उड़ाते हुए, मुख्य न्यायाधीश को समिति में शामिल नहीं किया। और ऐसा प्रावधान किया कि समिति के तीन सदस्यों में से एक को प्रधानमंत्री ख़ुद नियुक्त करेंगे। प्रधानमंत्री स्वयं समिति के मुखिया हैं, और एक मंत्री को सदस्य के रूप में नियुक्त करते है। इस तरह नेता विपक्ष (LOP), जो समिति का तीसरा सदस्य है, हमेशा अल्पमत में ही रहेगा। इसके साथ चुनाव आयोग का दर्जा घटकर एक सरकारी दफ्तर का रह गया है। ऐसे निकाय से निष्पक्षता की उम्मीद नहीं की जा सकती।

हालाँकि, हम मानते हैं कि संविधान में दर्शाये गये तरीक़ों से किसी अधिनियम में संशोधन करने का संसद को अधिकार है, फिर भी संविधान के लिखित शब्दों से ऊपर भी कुछ है, और वह है संवैधानिक नैतिकता। सरकारी कार्रवाई को केवल कानूनी दृष्टिकोण से देखना, वास्तव में, लोकतंत्र की भावना के विरुद्ध है। इससे पता चलता है कि सरकार एक स्वतंत्र चुनाव आयोग नहीं चाहती थी। भारतीय संविधान के निर्माताओं ने ऐसी घटनाओं की कल्पना भी नहीं की होगी जिसमें संविधान के शब्द उसकी भावना से ऊपर उठ जाएँ।

सिविल सर्विस के सदस्यों की विफलता

इसका एक और पहलू है जिस पर सार्वजनिक रूप से शायद ही चर्चा होती है। मुख्य चुनाव आयुक्त या अन्य आयुक्त के पद पर केवल उन लोगों को ही बिठाया जाता है जो सिविल सर्विस के अधिकारियों के एक चुनिंदा समूह में होते हैं। आमतौर पर, वे सेवानिवृत्ति के कगार पर पहुँचे सचिव होते हैं। सिविल सर्विस अधिकारियों से संविधान के अनुसार जनता की सेवा करने की अपेक्षा की जाती है। प्रशासन को अलोकतांत्रिक प्रभावों से मुक्त रखना उनका काम है। दुर्भाग्य से, उन्हें मौजूदा सरकार की राजनीतिक लाइन पर चलते हुए देखा गया है। भारतीय सिविल सर्विस के सदस्यों का कर्तव्य है कि वे सरकार को बताएं है कि क्या उचित है और क्या अनुचित। सिविल सर्विस में आने वाले नए लोग बौद्धिक रूप से प्रतिभाशाली और मेधावी होते हैं, जो कठोर चयन प्रक्रिया के तीन स्तरों से गुजरते हैं, और उनमें से केवल 10 प्रतिशत ही सफल हो पाते हैं। यदि वे अपनी प्रतिभा को बेईमान राजनेताओं के हाथों गिरवी रख देते हैं और संविधान का उल्लंघन करते हुए उनके संकीर्ण हितों की पूर्ति करते हैं, तो यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि अगले पाँच वर्षों में देश का क्या होगा।

निःसंदेह, भाजपा सरकार संविधान के शब्दों का उल्लंघन किए बिना संवैधानिक नैतिकता का उल्लंघन करने में माहिर है। वे अपनी होशियारी से खुश होते हैं और छिछलेपन को होशियारी समझते हैं। वे बहुत चतुर हैं और राजनीतिक दलों सहित अपने विरोधियों का मुँह बंद करने में सक्षम हैं। उनके कार्य देश के लोकतांत्रिक मूल्यों का अपमान हैं। कहा जा सकता है कि वे लोकतंत्र को कुचलने के जितने तरीके जानते हैं, लोकतंत्र को बचाने के उतने तरीके उनके विरोधी नहीं जानते।

पारदर्शिता का अभाव

स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव मजबूत प्रातिनिधिक लोकतंत्र का साधन है। पारदर्शिता इसकी सबसे प्रमुख विशेषता है। लेकिन, पिछले साल दिसंबर में, जब पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग को सीसीटीवी फुटेज सहित सभी चुनाव संबंधी दस्तावेज़ों को प्रमाण के लिए स्वीकार्य दस्तावेज़ के रूप में साझा करने का निर्देश दिया, तो केंद्र ने तुरंत चुनाव संचालन नियम, 1961 में संशोधन करके सीसीटीवी फुटेज तक देने पर प्रतिबंध लगा दिया। तर्क यह दिया गया कि इससे मतदाताओं की पहचान उजागर हो जाएगी। चुनाव आयोग का रुख था कि ‘चुनाव पेपर्स’ में ऐसे इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड शामिल नहीं हैं क्योंकि वे कागज़ नहीं हैं। बूथ स्तर पर अगर कोई गड़बड़ी हो रही है, तो इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड की मदद से उजागर किया जा सकता है; लेकिन ऐसे किसी भी प्रयास को रोकने के इरादे से यह किया गया है। अगर एक दब्बू चुनाव आयोग की आड़ में चुनावों में तोड़फोड़ की जा रही है, तो समय आ गया है कि लोग अपने चैन के दायरे से बाहर निकलें और देश के लिए आवाज़ उठाएँ। लोकतंत्र के सिद्धांतों पर मंडराते ख़तरों को सहन नहीं किया जाना चाहिए।

हमारा लंबा इतिहास दर्शाता है कि विभिन्न सामाजिक समूहों और धार्मिक प्रथाओं के लोग एक साथ और शांतिपूर्वक रहते थे। हमारे प्रधानमंत्री ने अक्सर दावा किया है कि भारत लोकतंत्र की जननी है, लेकिन उनकी सरकार का हर कदम देश के लोकतांत्रिक जीवन के सीधे खिलाफ जाता है। कुछ साल पहले, ईडी और आईटी विभागों को लोगों पर खुला छोड़ दिया गया था, 

और उसके बाद सत्तारूढ़ दल ने एक नया तरीक़ा खोज लिया है। अब, बदलाव के तौर पर, ईडी और आईटी छापे बंद हो गए हैं, लेकिन चुनाव आयोग की व्यवस्था के माध्यम से और भी बुनियादी बदलाव लाए जा रहे हैं।

पक्षपातपूर्ण चुनाव आयोग

भाजपा के शासन में चुनाव आयोग घोर पक्षपाती बना रहा है। वह हर चुनाव से पहले आचार संहिता लागू करता है और देश से वादा करता है कि चुनावों की पवित्रता और विश्वसनीयता बनी रहेगी। प्रधानमंत्री और उनके अनुयायी खुलेआम आचार संहिता का उल्लंघन करते हैं और बेहद भौंडे सांप्रदायिक बयान देते हैं। शिकायतों के बावजूद, चुनाव आयोग कोई कार्रवाई नहीं करता। भाजपा चुनावों को सांप्रदायिक रंग देने की अपनी मंशा नहीं छिपाती और मुख्य चुनाव आयुक्त व अन्य आयुक्त, जो कभी उच्च पदस्थ नौकरशाह थे, इस पर ध्यान तक नहीं देते। दूसरी ओर, किसी भी विपक्षी दल द्वारा किए गए मामूली उल्लंघन पर ध्यान दिया जाता है और प्रतिबंध लगा दिया जाता है।

2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के दौरान, मोदी ने कब्रिस्तान, श्मशान, रमज़ान और दिवाली का ज़िक्र किया था। 2019 के झारखंड चुनावों में, मोदी ने सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों का वर्णन इस प्रकार किया था, “जो लोग संपत्ति में आग लगा रहे हैं, उन्हें टीवी पर देखा जा सकता है। उन्हें उनके कपड़ों से पहचाना जा सकता है।” फिर, 2019 में मोदी के एक सार्वजनिक भाषण में केरल के वायनाड से राहुल गांधी की उम्मीदवारी पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि वह ऐसी जगह है, जहाँ “बहुसंख्यक ही अल्पसंख्यक हैं।” मार्च 2024 में, तमिलनाडु के सलेम में एक भाषण में, मोदी ने कहा: “भारत गठबंधन बार बार और जानबूझकर हिंदू धर्म का अपमान कर रहा है। वे हिंदू धर्म के खिलाफ विचार बो रहे हैं। वे अन्य धर्मों के खिलाफ नहीं बोलते। लेकिन जब भी उन्हें मौका मिलता है, वे बिना एक पल भी इंतज़ार किए हिंदू धर्म का अपमान करते हैं। हम इसे कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं? हम इसकी अनुमति कैसे दे सकते हैं?” 2022 में, उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के दौरान, योगी आदित्यनाथ ने धार्मिक समुदायों का जिक्र करते हुए चुनाव को “80% बनाम 20%” का खेल बताया। ये सभी आदर्श आचार संहिता और जनप्रतिनिधित्व अधिनियम के उल्लंघन थे, जिसमें चुनाव प्रचार के दौरान धार्मिक उल्लेखों पर रोक लगाई गई है। चुनाव आयोग हर मामले में साफ तौर पर चुप रहा। केवल एक ही बार इसमें बदलाव हुआ जब 2019 में तत्कालीन चुनाव आयुक्त अशोक लवासा ने मोदी के कथित विभाजनकारी भाषणों को बार-बार क्लीन चिट देने के तरीके पर अपनी असहमति जताई। उनकी असहमति को रिकॉर्ड पर दर्ज नहीं किया गया। उन्हें इस्तीफा देने और एडीबी में प्रतिनियुक्ति का विकल्प चुनने के लिए मजबूर होना पड़ा।।

चुनाव आयोग प्रधानमंत्री के चुनावी दौरों के अनुसार चुनाव कार्यक्रम तैयार करता है। इसलिए, जैसे ही किसी निर्वाचन क्षेत्र में चुनाव प्रचार समाप्त होता है, प्रधानमंत्री पड़ोसी निर्वाचन क्षेत्र में पहुँच जाते हैं और जिस निर्वाचन क्षेत्र से वे अभी-अभी निकले हैं, उसे प्रभावित करने के लिए अपना सांप्रदायिक एजेंडा जारी रखते हैं। उत्तर प्रदेश में सुरक्षा के नाम पर चुनाव एक महीने या छह हफ़्ते तक खिंच जाते हैं, जबकि पिछले सभी चुनाव आयोगों ने उत्तर प्रदेश में इससे कम समय में चुनाव कराए हैं। क्या सुरक्षा की स्थिति इतनी बिगड़ गई है कि उत्तर प्रदेश में मतदान प्रक्रिया को इतना लंबा खींचना पड़ रहा है? चुनाव कार्यक्रमों के लंबे होने से भाजपा को फ़ायदा होता है, जिसने इलेक्टोरल बॉन्ड के ज़रिए कॉर्पोरेट्स से सबसे ज़्यादा पैसा इकट्ठा किया है। 2024 में महाराष्ट्र में तो शांति थी, इसके बावजूद पाँच चरणों में चुनाव कराना समझ से परे था। बंगाल में सात चरणों में चुनाव कराने से मोदी को बार-बार दौरे करने में सहूलियत हुई लेकिन यह विपक्षी दलों को थका देने की कोशिश थी और यह चुनाव भी वही चुनाव आयोग करवा रहा था जो सुप्रीम कोर्ट में दलील देता है कि सभी वीवीपैट की गिनती से नतीजों में देरी होगी। 2014 के बाद के चुनाव आयोगों के तहत नतीजों में महीनों की देरी होती है! चुनाव आयोग और विपक्ष के बीच कोई बातचीत नहीं हुई है, जिनकी माँग थी कि सभी मतदान केंद्रों पर वीवीपैट मशीनें (जिससे मतदाता देख सके कि उसका वोट सही दर्ज हुआ है या नहीं) लगाई जाएँ। चुनाव आयोग बेझिझक एक सरकारी दफ्तर की तरह व्यवहार कर रहा है।

चुनाव आयोग जब भी कोई कार्रवाई करता है, तो ज़्यादातर विपक्षी दलों के ख़िलाफ़ ही करता है। भाषणों में कुछ शब्दों के इस्तेमाल को लेकर सिर्फ़ राहुल गाँधी को ही नोटिस भेजा गया, मोदी को कभी नहीं और शायद ही कभी अन्य भाजपा नेताओं को। बंगाल में, चुनाव आयोग ने 24 घंटे में 3 पुलिस महानिदेशक बदल दिए। केवल विपक्ष शासित राज्यों को ही ‘हिंसा प्रवण’ माना जाता है। विपक्ष को बेचैन रखा जाता है और वह नियमित रूप से चुनाव आयोग के निशाने पर रहता है, जबकि भाजपा चुनाव आयोग की जाँच से पूरी तरह मुक्त रहती है।

यह पहली बार है कि विपक्षी दल के नेता ने राहुल गांधी ने एक अखबार में लेख लिखकर सार्वजनिक रूप से चुनाव आयोग के पक्षपातपूर्ण रवैये के लिए आलोचना की है। उनके आरोपों में मतदाता सूचियों में नकली मतदाताओं की संख्या बढ़ाना, मतदान प्रतिशत के आँकड़े बढ़ा-चढ़ाकर बताना और उन जगहों पर फर्जी मतदान को होने देना शामिल था जहाँ भाजपा को जीतना ज़रूरी था। सीएसडीएस के संजय कुमार जैसे लंबे समय से सम्मानित राजनीतिक विश्लेषक ने भी टिप्पणी की है, ” एक छोटे अर्से में मतदाताओं की संख्या में बढ़ोतरी शक़ पैदा करती है, राजनीतिक विश्लेषकों और राजनीतिक नेताओं के सवाल वाजिब हैं, जिनका चुनाव आयोग को जवाब देना चाहिए। इसी तरह, जब आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में अपनी करारी हार के बाद संशोधित मतदाता सूचियों की बारीकी से जाँच की, तो उसने पाया कि चुनाव आयोग के पंजीकरण फॉर्म 7 का उपयोग करके उसके 70 में से 17 निर्वाचन क्षेत्रों में कई नाम जोड़े या हटाए गए थे जिसका नतीजा यह था कि औसतन 3% ज़्यादा वोट भाजपा की ओर चले गये। इन नामों के जुड़ने और हटने का असर इस बात से नापा जा सकता है कि दिल्ली में भाजपा की जीत का अंतर सिर्फ़ 1.99% था। आज तक, राहुल गांधी के इस सवाल का कोई जवाब नहीं मिला है कि महाराष्ट्र में मतदाताओं की संख्या उसकी वयस्क आबादी से ज़्यादा कैसे है।

हाल ही में, विपक्षी दल बिहार में एसआईआर प्रक्रिया पर अपना विरोध दर्ज कराने चुनाव आयोग के कार्यालय गए। विपक्षी नेता यह शिकायत करते हुए बाहर आए कि बैठक सौहार्दपूर्ण नहीं थी। चुनाव आयोग, अगर और कुछ नहीं तो सिर्फ़ शिष्टाचार के नाते ही सही, उन्हें सुनने को भी तैयार नहीं था। यह एकमात्र और पहला उदाहरण है जो दर्शाता है कि चुनाव आयोग किस स्तर तक गिर गया है। ईडी और आयकर के छापों से तो व्यक्ति प्रभावित होते हैं; चुनाव आयोग की कार्रवाई से राष्ट्र प्रभावित होता है।

चुनाव आयोग में सुधार, एक बड़ा चुनावी सुधार

हमारे देश को चुनावी सुधारों की सख़्त ज़रूरत है। सर्वोच्च न्यायालय ने जब चुनावी बॉन्ड को अवैध करार दिया तब वह जनता की आवाज़ बना था, हालाँकि इससे भाजपा को कोई नुकसान नहीं हुआ क्योंकि बॉन्ड के ज़रिए प्राप्त कोई भी धन वापस नहीं मिला। हालाँकि, इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग सिस्टम का पुनर्गठन, नोटा की प्रभावशीलता, राइट टू रिकॉल, फर्स्ट पास्ट द पोस्ट प्रणाली का पुनर्मूल्यांकन, राजनेता-अपराधी गठजोड़, काले धन के इस्तेमाल को रोकना, राजनीतिक दलों के आंतरिक ढाँचे का लोकतांत्रिकरण आदि जैसे कई अन्य सुधार भी हैं। इन सुधारों का समर्थन करने वाले सभी लोकतांत्रिक लोगों को इन वांछनीय सुधारों की सूची में एक और सुधार जोड़ना होगा, और वह है चुनाव आयोग की स्वतंत्रता।

यदि चुनाव आयोग की स्वायत्तता और स्वतंत्रता बहाल 

नहीं की गई तो कुछ भी कारगर नहीं होगा। इसलिए, चुनाव संचालन नियम, 1961 में नवीनतम संशोधन को निरस्त करने की मांग करना

आवश्यक है। जब चुनाव आयोग का नेतृत्व टी. एन. शेषन कर रहे थे, उस संक्षिप्त अवधि को छोड़कर यह संवैधानिक निकाय कभी मुखर नहीं रहा और मुख्यतः तत्कालीन सरकारों के साथ मिलकर काम करता रहा। मुख्यतः तो सुरक्षा कारणों से सशस्त्र बलों की आवश्यकता के बारे में। राजनीतिक दलों को कभी छुआ नहीं गया था। लेकिन शेषन के चुनाव आयोग ने राजनीतिक दलों का सीधा सामना किया और चुनाव प्रक्रिया में विश्वास बहाल किया। चुनाव आयोग ने अपने उस स्वर्णिम काल में हमारे लोकतंत्र को लगे ग्रहण की ओर इशारा किया था। आज, हालात कहीं ज़्यादा ख़राब हैं। पूरा विपक्ष बिखरा हुआ है। हालाँकि हम राजनीतिक दलों की लोकतांत्रिक साख को देखें तो हम उनको बहुत इज़्ज़त की नज़र से नहीं देखते, लेकिन हमारा मानना है कि किसी भी संवैधानिक संस्था द्वारा लिया गया कोई भी अलोकतांत्रिक कदम देश के लिए किसी भी चीज़ से ज़्यादा हानिकारक है।

गरीबों को उनके मताधिकार से वंचित करना

बिहार में चुनाव आयोग की वर्तमान कार्रवाई का उद्देश्य गरीबों के अपनी सरकार चुनने के अधिकार को कम करना है। यह वयस्क मताधिकार पर एक अप्रत्यक्ष हमला है। भारत वर्ग, जाति, धर्म और आर्थिक स्थिति की परवाह किए बिना वयस्क मताधिकार लागू करने वाला पहला देश था। चुनाव आयोग के माध्यम से 

सरकार एक तरह से गरीबों की स्वतंत्रता पर हमला करती है, उन्हें उनके मताधिकार से वंचित करने का प्रयास करती है और समानता के सिद्धांत का अनादर करती है। सभी लोकतांत्रिक ताक़तों को एकजुट होकर राष्ट्रपति से कार्रवाई करने की मांग करनी चाहिए। लोकतंत्र में, राज्य के मुखिया जितना

ऊँचा व्यक्ति भी आखिरकार, जनता के साथ खड़े होकर ही अपने ऊँचे दर्जे तक पहुँचता है। उसे जनता की ओर से कार्य करने का विशेष अधिकार प्राप्त होता है।

माननीय राष्ट्रपति से अपील

अतः, हम भारत की माननीय राष्ट्रपति से अपील करते हैं कि वे भारत के संविधान के अनुच्छेद 53 के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए, हमारे लोकतंत्र के सबसे महत्वपूर्ण उपकरण, भारत के चुनाव आयोग, को राजनीतिक जोड़-तोड़ से बचाने के लिए सरकार से स्वतंत्र होकर कार्य करें। हमारी व्यवस्था की वर्तमान कार्यपालिका पर हावी सत्तारूढ़ पार्टी की सनक और राजनीतिक स्वार्थों पर हमारे लोकतंत्र की रक्षा को नहीं छोड़ा जा सकता। लोकतंत्र की रक्षा के प्रमुख मुद्दे के सामने सरकार एक छोटी इकाई है, और हम दिल से मानते हैं कि राष्ट्रपति ऐसे मामलों में स्वतंत्र रूप से कार्य कर सकते हैं और उन्हें ऐसा करना भी चाहिए। राष्ट्रपति को संविधान की भावना को बनाए रखने के लिए स्वतंत्र रूप से कार्य करने का अधिकार है, जो राष्ट्र प्रमुख को चुनाव आयोग की स्वतंत्रता जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों के मामले में अपने विवेक से कार्य करने का आदेश है।

हम भलीभाँति जानते हैं कि श्रीमती द्रौपदी मुर्मू एक साधारण परिवार से देश के सर्वोच्च पद तक पहुँची हैं। इसलिए, हम उनकी अंतरात्मा को, लोगों के बीच रहने के उनके प्रत्यक्ष अनुभव को अपील करते हैं कि लोकतंत्र के पक्ष में कार्य करें। जैसा कि महात्मा गांधी ने कहा था: “आपके जीवन में ऐसे क्षण आते हैं जब आपको कार्य करना ही पड़ता है, भले ही आप अपने सबसे अच्छे मित्रों को अपने साथ न रख सकें। जब कर्तव्यों का टकराव हो, तो आपके भीतर की ‘शांत मद्धिम आवाज़’ को हमेशा अंतिम निर्णायक बनना चाहिए।” (यंग इंडिया, 4-8-1920, पृष्ठ 3).


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