स्वतन्त्रता का आन्दोलन, लोकतन्त्र का आन्दोलन था – डॉ राजेंद्र रंजन चतुर्वेदी

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Rajendra Ranjan Chaudhary

न्द्रह अगस्त, स्वतन्त्रता-दिवस आ रहा है। स्वतन्त्रता की अमृत-जयन्ती भी चल रही है, उसे अमृत-काल भी कहा जा रहा है। घर-घर तिरंगा फहरे यह बहुत अच्छी बात है, लेकिन एक बात समझ लेना जरूरी है और वह यह कि स्वतन्त्रता का आन्दोलन, लोकतन्त्र का आन्दोलन था। स्वतन्त्रता का संघर्ष विश्व के इतिहास में अनूठा था तो इसलिए कि यह संघर्ष देश के सामान्यजन का संघर्ष था! सामान्यजन, जिसके पास कोई खजाना नहीं था, कोई अस्त्र-शस्त्रों का भंडार नहीं था! जिसके पास कोई सेना नहीं थी! यह लड़ाई किसी जाति या मजहब ने नहीं लड़ी थी! यह लड़ाई जाति, मजहब, वर्ण, वर्ग और समस्त भेद-विभेदों को अलग हटा कर लड़ी जा रही थी! यह लड़ाई जिस साम्राज्य से लड़ी जा रही थी, वह कोई मामूली ताकत नहीं थी, उसने कौन सा दाँव नहीं चलाया?

उसने राजा-महाराजा तथा जाति-मजहब के नाम पर अनेक नेता तैयार कर लिये थे, जो जनता की एकता को भाँति-भाँति से तोड़ने का काम कर रहे थे, ताकि जनता की इस लड़ाई को कमजोर किया जा सके! चलते-चलते भी गोरे शासकों के चेहरे पर कुटिल मुसकान थी, वे दुराशा कर रहे थे कि हम जा तो रहे हैं किन्तु हमको बीच रास्ते से ही बुलावा आ जायेगा! ऐसी अनेक बातें उस जमाने के अखबारों में छप रही थीं! यह लड़ाई कमजोर न पड़ती तो विभाजन भी क्यों होता? यह बात सूरज की रोशनी की तरह साफ है कि स्वतन्त्रता का आन्दोलन केवल इतना ही नहीं था कि अंग्रेज यहाँ से चले जायें! स्वराज का मतलब यह भी नहीं था कि देश के शासन का सूत्र किसी एक जाति के हाथों में चला जाय अथवा देश के शासन का सूत्र किसी एक पार्टी-सुप्रीमो के हाथ में चला जाय! स्वराज का मतलब था, लोकतन्त्र अर्थात शासन में सामान्यजन की भागीदारी सुनिश्चित हो! चुनाव या मतदान लोकतन्त्र का एक लक्षण है, लेकिन वह एकमात्र लक्षण नहीं है! आज हम संसद के न चलने के लिए झींकते हैं, लेकिन यह भी तो बतलाइये कि ये अपराधी-लोग जिनको जेल में होना चाहिये था, संसद में किस रास्ते से पहुँच गये? इनको टिकट किसने दी? क्यों दी? मतदान होता है, लेकिन मतदान में बड़े झोल हैं!

वे कौन सी परिस्थितियाँ हैं, जिनमें सामान्य आदमी चुनाव लड़ने का सपना भी नहीं देख सकता! यह तो स्वतन्त्रता के आन्दोलन की परिकल्पना के एकदम विरुद्ध है! दुर्भाग्य यह है कि आज जब स्वतन्त्रता-आन्दोलन की कुत्सित व्याख्या की जाती है तब नयी पीढ़ी उस पर सहज विश्वास कर लेती है क्योंकि उसने उन स्वतन्त्रता-आन्दोलन के सेनानियों को देखा नहीं, जाना नहीं, समझा नहीं कि आन्दोलन के सेनानियों की वह पीढ़ी किस धातु की बनी हुई थी? आज लोकतन्त्र के मार्ग में हजार-हजार बाधाएं खड़ी हुई हैं, जैसे—निर्वाचन आयोग को निर्बल बनाना! टी. एन. शेषन के बाद निर्वाचन आयोग को निर्बल बना दिया गया ताकि बेचारा कोई कार्यवाही न कर सके! निर्वाचन आयोग ने सभी राजनैतिक दलों को निर्देश दिया था कि इस तारीख तक सभी दल अपने आन्तरिक चुनाव कर लें, किसने किये? नहीं करेंगे तो वह क्या कर लेगा? चुनाव आयोग ने चुनाव-चन्दे के लिए नये बॉण्ड सिस्टम का विरोध किया था कि इससे चुनाव के खर्चे की गिनती नहीं हो सकेगी! किसने माना?

निर्वाचन सुधार के लिए जो समितियाँ बनीं, वे धूल खा रही हैं, उनको पढ़ने वाला भी कोई नहीं है! चुनावी थैली पारदर्शी नहीं है, क्या पता किस कंपनी ने किस दल को कितना चन्दा दिया और बदले में उसको क्या मिला? अपराध और राजनीति का गठजोड़ है! प्रशासनतन्त्र साम्राज्यवाद वाला ही है, उसमें सुधार हुआ नहीं! उसका रवैया जनतान्त्रिक है ही नहीं! यही बात पुलिस सुधार की है! जनता पर डंडे बरसाना नित्य प्रति का खेल है! भ्रष्टाचार के विरुद्ध लोकपाल बना, वह बेचारा कहीं रो रहा होगा! जातिभेद, प्रान्तीय भेद, क्षेत्रीयता, भाषाभेद, मजहबी जुनून! जनता के बीच आर्थिक विषमता, अशिक्षा, लालच, शराब! अन्तर्विरोध यह कि नेता लोग जो लोकतन्त्र पर भाषण देते नहीं थकते, किन्तु इनकी निष्ठा न लोक में है और न लोकतन्त्र में! कोई भी दल ऐसा नहीं है, जिसमें आन्तरिक लोकतन्त्र हो! सब कहीं-न-कहीं किसी सुप्रीमो के इशारे (रिमोट) से चल रहे हैं! नेता के प्रति वफ़ादारी ही एकमात्र योग्यता है! रास्ते अलग-अलग होते ही हैं, आज भी हैं और कल भी होंगे लेकिन मंजिल एक होनी चाहिये, और वह है लोकतन्त्र—शासन में जनता की भागीदारी! पन्द्रह अगस्त पर ध्वजारोहण करिये, ध्वज-वंदन करिये लेकिन लोकतन्त्र की बाधाओं पर सोचिए। स्वतन्त्रता आन्दोलन का लक्ष्य लोकतन्त्र ही था।


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