परम्परा और परिवर्तन : राम, कृष्ण और शिव के संदर्भ में डॉ. लोहिया और डॉ. अम्बेडकर के विचारों का अन्तर

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Shri Krishna

Parichay Das

— परिचय दास —

।। एक।।

राम, कृष्ण और शिव भारतीय सांस्कृतिक चेतना के मूल प्रतीक हैं। ये तीनों न केवल धार्मिक जीवन में बल्कि लोकजीवन, साहित्य, राजनीति और दर्शन में भी गहरे अर्थों के वाहक हैं। इन प्रतीकों पर आधुनिक भारतीय चिंतकों ने अपने-अपने ढंग से विचार किया है। डॉ. राममनोहर लोहिया और डॉ. भीमराव अंबेडकर दोनों ने ही भारतीय परंपरा की पड़ताल करते हुए राम, कृष्ण और शिव के माध्यम से समाज, राजनीति और संस्कृति की दिशा को समझने का प्रयत्न किया। दोनों की दृष्टि अलग-अलग सामाजिक पृष्ठभूमि से निर्मित हुई थी, इसलिए इनके विचारों में समानताओं की अपेक्षा गहरे अंतर दिखाई देते हैं।

लोहिया भारतीय परंपरा के आलोचक होते हुए भी उसमें निहित सकारात्मक तत्त्वों को खोजना चाहते थे। वे मानते थे कि भारतीय संस्कृति का इतिहास केवल शोषण का इतिहास नहीं है बल्कि इसमें संघर्ष, विद्रोह और मुक्ति की चेतना भी निहित है। इसलिए वे राम, कृष्ण और शिव को केवल धार्मिक देवता न मानकर सामाजिक-राजनीतिक प्रतीक के रूप में देखते हैं। उनके लिए ये पात्र भारतीय मानस की रचनात्मकता और सामाजिक जीवन के प्रतीक हैं। उदाहरणतः राम उनके लिए केवल आदर्श पुत्र और राजा नहीं बल्कि ऐसी मर्यादा के प्रतिनिधि हैं, जिसमें समाज का अनुशासन और व्यवस्था सुरक्षित होती है। लोहिया ने राम को “मर्यादा पुरुषोत्तम” के रूप में स्वीकारते हुए उन्हें एक ऐसे नायक के रूप में प्रस्तुत किया, जिसने व्यक्तिगत सुख को त्याग कर सामाजिक और राजनीतिक कर्तव्य को प्रधानता दी। कृष्ण के संदर्भ में लोहिया की दृष्टि और भी खुली है। वे कृष्ण को राजनीति के सबसे बड़े यथार्थवादी, रणनीतिकार और कर्मयोगी मानते हैं। गीता के माध्यम से उन्होंने भारतीय राजनीति और समाज में कर्म, नीति और साहस का संदेश देखा। कृष्ण के बहुआयामी व्यक्तित्व ने लोहिया को यह कहने की प्रेरणा दी कि भारतीय समाज में केवल त्याग और तपस्या नहीं बल्कि प्रेम, क्रीड़ा, आनंद और कूटनीति भी मूल्यवान हैं। शिव के प्रति उनका दृष्टिकोण विद्रोही और सांस्कृतिक है। वे शिव को ‘लोकदेवता’ और ‘विद्रोह के देवता’ के रूप में देखते हैं। शिव का रूप लोहिया के लिए उस जनपक्षधर संस्कृति का प्रतीक है, जिसमें श्रमशील, आदिवासी और दलित समाज की आस्था सुरक्षित है। इसीलिए वे शिव को भारतीय क्रांतिकारी चेतना का सबसे बड़ा प्रतीक मानते हैं, जो भांग, धतूरा, जटाजूट और तांडव के माध्यम से स्थापित व्यवस्था को चुनौती देते हैं।

इसके उलट डॉ. भीमराव अंबेडकर की दृष्टि इन प्रतीकों के प्रति आलोचनात्मक और संशयग्रस्त रही। अंबेडकर ने भारतीय धार्मिक प्रतीकों को उस दृष्टि से देखा, जिसमें बहुजन समाज का शोषण और वंचना लगातार बनी रही। उनके लिए राम, कृष्ण और शिव का चरित्र सामाजिक न्याय और समानता की कसौटी पर अक्सर सवालों के घेरे में खड़ा होता है। अंबेडकर ने राम के बारे में कहा कि उनका आदर्श न्यायपूर्ण समाज की जगह वर्णव्यवस्था को पुष्ट करने वाला रहा। रामायण की कथा में शंबूक वध और सीता की अग्निपरीक्षा जैसे प्रसंगों को वे सामाजिक अन्याय और स्त्री-दलित विरोधी मानसिकता का उदाहरण मानते थे। उनके लिए राम मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं बल्कि सवर्ण मर्यादा के रक्षक थे। कृष्ण के संदर्भ में अंबेडकर का दृष्टिकोण भी आलोचनात्मक रहा। उन्होंने कृष्ण को उस परंपरा का वाहक माना, जिसमें स्त्रियों का वस्तूकरण हुआ और गीता के माध्यम से वर्णव्यवस्था को धार्मिक आधार मिला। गीता का उपदेश अंबेडकर के लिए कर्म और धर्म की आड़ में सामाजिक असमानता को बनाए रखने का साधन था। वे मानते थे कि कृष्ण की राजनीति और गीता की शिक्षाएं दलित और वंचित समाज के लिए मुक्ति का रास्ता नहीं देतीं बल्कि उन्हें नियति का गुलाम बनाती हैं। शिव के बारे में अंबेडकर का दृष्टिकोण द्वंद्वात्मक था। एक ओर शिव को जनपक्षधर देवता माना जाता है, जो आदिवासियों और श्रमजीवियों के निकट हैं, लेकिन दूसरी ओर शैव परंपरा ने भी अंततः वर्णव्यवस्था और ब्राह्मणवादी वर्चस्व का समर्थन किया। अंबेडकर को लगता था कि इन धार्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल समाज को बराबरी और स्वतंत्रता की ओर नहीं, बल्कि जाति व्यवस्था को बनाए रखने की ओर किया गया है।

यहीं पर लोहिया और अंबेडकर के विचारों में सबसे बड़ा अंतर दिखाई देता है। लोहिया भारतीय परंपरा के भीतर से ही नये मूल्यों की खोज करना चाहते थे, जबकि अंबेडकर परंपरा के बंधन को तोड़कर बाहर निकलने की राह देखते थे। लोहिया मानते थे कि राम, कृष्ण और शिव भारतीय मानस के स्थायी प्रतीक हैं और इन्हें जनपक्षधरता, क्रांति और समानता के संदर्भ में पुनर्परिभाषित किया जा सकता है। जबकि अंबेडकर का विश्वास था कि ये प्रतीक पहले से ही सवर्णवादी, पितृसत्तात्मक और जातिवादी व्यवस्था के वाहक बन चुके हैं, इसलिए वंचित समाज की मुक्ति इनके सहारे संभव नहीं।

लोहिया के लिए राम का आदर्श अनुशासन और त्याग था, अंबेडकर के लिए वही आदर्श दलितों और स्त्रियों के शोषण का औचित्य। लोहिया के लिए कृष्ण रणनीति और प्रेम के समन्वय का प्रतीक थे, अंबेडकर के लिए वे वर्ण व्यवस्था और स्त्री-विरोध के संरक्षक। लोहिया के लिए शिव विद्रोही जनसंस्कृति का प्रतिरूप थे, अंबेडकर के लिए शैव परंपरा भी अंततः ब्राह्मणवादी व्यवस्था की जकड़न में फँसी हुई थी।

फिर भी दोनों के विचारों में एक समानता भी है। दोनों ने इन प्रतीकों को केवल धार्मिक नहीं माना बल्कि सामाजिक-राजनीतिक अर्थों में व्याख्यायित किया। दोनों ने यह महसूस किया कि भारतीय जनता की चेतना से इन प्रतीकों को अलग नहीं किया जा सकता। अंतर बस इतना था कि लोहिया ने उन्हें सकारात्मक ऊर्जा के स्रोत के रूप में देखा, जबकि अंबेडकर ने उनमें छिपे अन्याय को उजागर करने का कार्य किया।

इस तरह, राम, कृष्ण और शिव पर डॉ. लोहिया और डॉ. अंबेडकर के विचार भारतीय परंपरा की दो धाराओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। एक धारा, जो परंपरा के भीतर ही परिवर्तन और क्रांति की संभावना खोजती है, और दूसरी धारा, जो परंपरा को तोड़कर एक नये, समतामूलक भविष्य की ओर बढ़ना चाहती है। इन दोनों दृष्टियों का अंतर भारतीय समाज के वैचारिक द्वंद्व को स्पष्ट करता है और यह भी बताता है कि हमारी सांस्कृतिक चेतना के प्रतीकों को केवल श्रद्धा या केवल अस्वीकार से नहीं, बल्कि गंभीर विमर्श से समझा जाना चाहिए।

।। दो ।।

राम, कृष्ण और शिव पर लोहिया और अंबेडकर की दृष्टियों के द्वंद्व को और गहराई में देखने पर यह स्पष्ट होता है कि दोनों ही विचारक अपने समय की सामाजिक-राजनीतिक चुनौतियों से जूझ रहे थे। लोहिया समाजवादी आंदोलन के नेता थे और वे भारत के स्वाधीनता संघर्ष के बाद की परिस्थितियों में एक नए समाज की रचना करना चाहते थे। उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती थी—हिंदू समाज में व्याप्त जातिगत भेदभाव को समाप्त करना और लोकतांत्रिक राजनीति में समानता की स्थापना करना। इस संदर्भ में वे भारतीय धार्मिक प्रतीकों को त्यागने के बजाय उन्हें नये अर्थों में पुनः व्याख्यायित करने की कोशिश करते हैं। इसके विपरीत अंबेडकर का अनुभव एक दलित व्यक्ति का था, जिसने बचपन से ही अस्पृश्यता और सामाजिक भेदभाव का दंश झेला था। उनके लिए हिंदू धार्मिक प्रतीकों का अर्थ था—दमन और अपमान का इतिहास। इसलिए वे मानते थे कि मुक्ति केवल तब संभव है जब इन प्रतीकों से अलग हटकर एक नया धार्मिक-सांस्कृतिक आधार निर्मित किया जाए।

लोहिया राम को इस दृष्टि से देखते हैं कि वे अपने व्यक्तिगत सुख का त्याग कर समाज और राज्य की रक्षा करते हैं। वे राम के जीवन में अनुशासन और नियम का गहरा बोध देखते हैं। किंतु अंबेडकर के लिए यही राम स्त्री और शूद्र के प्रति अन्याय के प्रतीक हैं। शंबूक वध का प्रसंग उनके लिए यह प्रमाण है कि राम ने वर्णव्यवस्था की रक्षा हेतु एक शूद्र तपस्वी की हत्या की। इसी तरह सीता की अग्निपरीक्षा स्त्री के सम्मान के विरुद्ध है। अंबेडकर मानते थे कि ऐसा आदर्श दलितों और स्त्रियों के लिए घातक है। इस प्रकार राम पर उनकी दृष्टि नकारात्मक रही।

कृष्ण के संदर्भ में लोहिया उन्हें राजनीतिक यथार्थ का महान आचार्य मानते हैं। महाभारत में उनका मार्गदर्शन, गीता में दिया गया कर्मयोग और जीवन में प्रेम-रस का समावेश—इन सबको लोहिया भारतीय समाज की बहुआयामीता के रूप में देखते हैं। उनके अनुसार कृष्ण यह बताते हैं कि जीवन में केवल संयम और मर्यादा ही नहीं, बल्कि आनंद और क्रीड़ा भी आवश्यक हैं। वे राजनीति में भी रणनीति और कूटनीति के प्रतीक हैं। किंतु अंबेडकर गीता की आलोचना करते हैं। वे मानते थे कि गीता ने वर्णव्यवस्था को दैवीय और शाश्वत घोषित किया। कृष्ण का उपदेश दलित समाज को केवल अपने ‘कर्म’ में लगे रहने और अपनी नियति को स्वीकार करने की शिक्षा देता है। उनके अनुसार यह धार्मिक ग्रंथ दलितों और शोषितों की स्वतंत्रता का मार्ग नहीं दिखाता।

शिव पर लोहिया की दृष्टि सबसे अधिक रोचक है। वे शिव को ब्राह्मणवादी परंपरा के विपरीत एक लोकदेवता मानते हैं। उनके लिए शिव का तांडव विद्रोह का प्रतीक है, उनका रहन-सहन आदिवासी और लोकजीवन से जुड़ा हुआ है, और उनका व्यक्तित्व जनसंस्कृति की अस्मिता से निर्मित है। लोहिया के अनुसार शिव उस संस्कृति के प्रतीक हैं, जो भव्यता और वैभव से दूर, श्रमशीलता और सहजता से जुड़ी है। वहीं अंबेडकर शिव के इस लोकपक्ष को स्वीकार करने के बावजूद यह कहते हैं कि अंततः शैव परंपरा भी ब्राह्मणवादी तंत्र में समाहित हो गई और उसने जातिगत असमानता को समाप्त नहीं किया। इसीलिए उनके लिए शिव भी अंतिम मुक्ति का मार्ग प्रस्तुत नहीं करते।

इन विचारों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि लोहिया और अंबेडकर का अंतर उनके सामाजिक अनुभवों और राजनीतिक दृष्टिकोण में निहित है। लोहिया, जो सवर्ण पृष्ठभूमि से आए थे, उनके लिए परंपरा के भीतर परिवर्तन संभव था। वे मानते थे कि यदि हम राम, कृष्ण और शिव जैसे प्रतीकों को नये सन्दर्भ में परिभाषित करें तो वे समाज को एक नयी दिशा दे सकते हैं। अंबेडकर के लिए, जो जन्म से दलित थे और जिन्होंने हर स्तर पर भेदभाव झेला, यह संभव नहीं था। वे जानते थे कि इन प्रतीकों के सहारे दलित समाज को न्याय नहीं मिल सकता। इसलिए उन्होंने बौद्ध धर्म की ओर रुख किया और एक ऐसी सांस्कृतिक परंपरा को अपनाया, जिसमें समानता और करुणा का भाव प्रधान था।

राम, कृष्ण और शिव के बारे में ये भिन्न दृष्टियाँ वास्तव में भारतीय समाज की जटिलता को उजागर करती हैं। एक ओर वे समाज के उच्च वर्ग के लिए आदर्श और प्रेरणा हैं, वहीं दूसरी ओर वंचित वर्ग के लिए अन्याय और दमन के प्रतीक। लोहिया और अंबेडकर के विचारों का यह द्वंद्व हमें यह सोचने को बाध्य करता है कि परंपरा को केवल श्रद्धा या केवल अस्वीकार के आधार पर नहीं देखा जा सकता। उसमें छिपे न्याय और अन्याय दोनों पक्षों को समझना आवश्यक है।

।। तीन।।

भारतीय परंपरा में राम, कृष्ण और शिव की उपस्थिति इतनी व्यापक है कि इन्हें केवल धार्मिक कथा या पूजा तक सीमित नहीं किया जा सकता। ये प्रतीक भारतीय समाज के मनोविज्ञान, राजनीति और लोकाचार में गहराई तक पैठे हुए हैं। इसलिए जब डॉ. लोहिया और डॉ. अंबेडकर जैसे आधुनिक विचारक इन प्रतीकों पर विचार करते हैं, तो वे केवल धर्मशास्त्र नहीं बल्कि पूरे सामाजिक ढांचे को प्रश्नांकित कर रहे होते हैं। दोनों के बीच का अंतर इसी दृष्टिकोण से और गहराई में समझा जा सकता है।

राम को लेकर लोहिया यह कहते हैं कि वे अनुशासन और सामाजिक मर्यादा के प्रतिरूप हैं। उनके लिए राम का वनवास इस बात का प्रतीक है कि समाज और राज्य की स्थिरता के लिए व्यक्ति को अपने निजी सुखों का त्याग करना चाहिए। वे राम के नेतृत्व को आदर्श मानते हैं। किंतु अंबेडकर की दृष्टि में यही राम का वनवास दलितों और स्त्रियों के प्रति अन्याय का उद्घोषक है। अंबेडकर ने बार-बार कहा कि रामायण में दलित और शूद्र को केवल अधीनस्थ की स्थिति दी गई है। शंबूक वध उनके लिए निर्णायक उदाहरण है। यदि एक शूद्र तपस्या करता है तो उसकी हत्या कर दी जाती है, क्योंकि वह ‘उच्च’ वर्ग की सीमा को लांघ रहा है। अंबेडकर के अनुसार यह घटना केवल मिथकीय कथा नहीं बल्कि उस समय की सामाजिक व्यवस्था का प्रतिबिंब है, जिसमें दलित को शिक्षा, साधना और उच्च जीवन से दूर रखा गया।

कृष्ण के बारे में लोहिया का विचार बहुत उदार और रचनात्मक है। वे मानते हैं कि कृष्ण भारतीय राजनीति के सबसे बड़े शिक्षक हैं। महाभारत में उनका मार्गदर्शन केवल युद्ध की विजय के लिए नहीं बल्कि न्याय की स्थापना के लिए है। वे कृष्ण को जीवन का संपूर्ण प्रतीक मानते हैं—रास और प्रेम में रसिक, गीता में दार्शनिक, रणभूमि में रणनीतिकार और राजनीति में व्यवहारकुशल। उनके लिए कृष्ण यह संदेश देते हैं कि जीवन केवल तप और त्याग नहीं, बल्कि आनंद और कर्म का समन्वय है। किंतु अंबेडकर इस दृष्टि से सहमत नहीं थे। वे गीता को वर्णव्यवस्था का शास्त्रीय औचित्य मानते थे। उनके अनुसार गीता ने यह कहकर समाज को बंधन में जकड़ा कि व्यक्ति को अपने वर्ण और कर्म के अनुसार ही जीवन बिताना चाहिए। इस प्रकार कृष्ण का संदेश दलित और शोषित वर्ग को स्वतंत्रता देने की बजाय उन्हें उसी स्थान पर बाँधे रखने का साधन बन गया। अंबेडकर की दृष्टि में कृष्ण का बहुरंगी व्यक्तित्व वंचित समाज के लिए आशा का स्रोत नहीं था।

शिव पर लोहिया का दृष्टिकोण सबसे अधिक जनपक्षधर है। वे शिव को उस संस्कृति का प्रतीक मानते हैं, जो भव्यता से परे है। उनका रूप जटाजूट, भस्म, भांग और नृत्य से बना है। वे पर्वतीय और आदिवासी जीवन के करीब हैं। लोहिया कहते हैं कि शिव का तांडव केवल नृत्य नहीं बल्कि विद्रोह का प्रतीक है। यह विद्रोह सामाजिक असमानता और अन्याय के खिलाफ है। वे शिव को ‘विद्रोह और क्रांति के देवता’ मानते हैं। दूसरी ओर अंबेडकर शिव के इस लोकपक्ष को मान्यता देने के बावजूद कहते हैं कि शैव परंपरा भी धीरे-धीरे ब्राह्मणवाद में समाहित हो गई। मंदिर, पुरोहित और जातिगत अनुष्ठान इस परंपरा पर हावी हो गए। नतीजतन, शिव भी दलित समाज की मुक्ति के वाहक नहीं रह सके। अंबेडकर मानते थे कि वंचित समाज की मुक्ति के लिए केवल प्रतीकों की पुनर्व्याख्या पर्याप्त नहीं, बल्कि नए धार्मिक-सांस्कृतिक आधार की जरूरत है। यही कारण है कि उन्होंने अंततः बौद्ध धर्म अपनाया।

इन तीनों प्रतीकों के प्रति लोहिया और अंबेडकर की भिन्न दृष्टियाँ भारतीय समाज के दो अलग-अलग रास्तों को दर्शाती हैं। लोहिया का विश्वास था कि यदि हम परंपरा को सही तरह से समझें और उसमें निहित जनपक्षधर तत्वों को उजागर करें, तो वह परिवर्तन का साधन बन सकती है। उनके लिए राम, कृष्ण और शिव ऐसे पात्र हैं, जिन्हें जनपक्षधरता और समाजवाद के संदर्भ में नये अर्थ दिए जा सकते हैं। वहीं अंबेडकर का अनुभव उन्हें यह कहने के लिए विवश करता है कि परंपरा के ये प्रतीक पहले से ही ब्राह्मणवाद और जातिवाद से ग्रस्त हैं, इसलिए इनके सहारे समानता और न्याय संभव नहीं।

यह अंतर केवल धार्मिक प्रतीकों की व्याख्या का नहीं बल्कि समाज परिवर्तन की दिशा का भी है। लोहिया भारतीय समाजवाद को परंपरा के सहारे जनमानस तक पहुँचाना चाहते थे, जबकि अंबेडकर ने परंपरा से अलग हटकर एक नया मार्ग चुना। इसीलिए लोहिया की राजनीति में धार्मिक प्रतीकों का प्रयोग बार-बार दिखाई देता है—वे शिव, बुद्ध और कबीर जैसे लोकनायकों की छवि को समाजवाद से जोड़ते हैं। जबकि अंबेडकर ने इन प्रतीकों से दूरी बनाकर कहा कि दलित समाज को अपने लिए नई सांस्कृतिक अस्मिता गढ़नी होगी।

इस द्वंद्व से हमें यह शिक्षा मिलती है कि भारतीय परंपरा को समझने के लिए केवल श्रद्धा या केवल अस्वीकार से काम नहीं चलेगा। उसे उसके ऐतिहासिक, सामाजिक और राजनीतिक संदर्भ में देखना होगा। लोहिया और अंबेडकर दोनों की दृष्टियाँ हमें इस कार्य के लिए अलग-अलग उपकरण देती हैं। एक ओर लोहिया हमें परंपरा के भीतर संभावनाओं की खोज करना सिखाते हैं, वहीं अंबेडकर हमें परंपरा की सीमाओं को पहचानने और उससे आगे बढ़ने की राह दिखाते हैं।

।। चार ।।

राम, कृष्ण और शिव पर डॉ. राममनोहर लोहिया और डॉ. भीमराव अंबेडकर की दृष्टियों का अंतर केवल दार्शनिक या धार्मिक विमर्श तक सीमित नहीं है, बल्कि यह भारतीय समाज की गहरी संरचना और उसमें परिवर्तन की दिशा से जुड़ा हुआ है। खण्ड 4 में यदि इस द्वंद्व को तुलनात्मक और निष्कर्षात्मक दृष्टि से देखें तो यह स्पष्ट होता है कि दोनों चिंतकों ने इन प्रतीकों को अपने-अपने सामाजिक अनुभव और राजनीतिक परियोजना के आलोक में देखा।

लोहिया का आग्रह था कि भारत की जनता से जुड़े हुए सांस्कृतिक प्रतीकों को नकार कर नहीं, बल्कि उन्हें नए सन्दर्भों में प्रस्तुत कर सामाजिक न्याय की दिशा में प्रयुक्त किया जाए। वे मानते थे कि जनता का मानस इन्हीं प्रतीकों से निर्मित है, इसलिए यदि परिवर्तन लाना है तो उसी मानस को संबोधित करना होगा। यही कारण है कि वे राम को ‘त्याग और अनुशासन’, कृष्ण को ‘रणनीति और आनंद’ तथा शिव को ‘विद्रोह और जनपक्षधरता’ का प्रतीक मानते हैं। उनकी राजनीति में यह दृष्टि दिखाई देती है कि भारतीय समाजवाद को धार्मिक- सांस्कृतिक प्रतीकों से जोड़ा जाए, ताकि वह जनता की चेतना में जड़ पकड़ सके। उनके लिए राम का मर्यादा भाव, कृष्ण का कर्मयोग और शिव का तांडव—सब मिलकर उस क्रांतिकारी समाज का आधार बन सकते हैं, जो जातिगत भेदभाव को मिटा सके।

इसके विपरीत अंबेडकर के लिए यह संभव नहीं था। उन्होंने अपने जीवन में अस्पृश्यता, अपमान और सामाजिक बहिष्कार को प्रत्यक्ष रूप से भोगा था। उनके अनुभव में यह स्पष्ट था कि हिंदू धार्मिक प्रतीकों और ग्रंथों ने दलितों को बराबरी का दर्जा नहीं दिया। रामायण में शंबूक वध और सीता की अग्निपरीक्षा, महाभारत और गीता में वर्णव्यवस्था का औचित्य, तथा शैव परंपरा का ब्राह्मणवादी नियंत्रण—इन सबने उन्हें यह कहने पर विवश किया कि इन प्रतीकों से न्याय की आशा करना व्यर्थ है। अंबेडकर ने धर्म और संस्कृति की पुनर्व्याख्या करने के बजाय उनसे अलग हटकर नया मार्ग अपनाने पर बल दिया। यही कारण है कि उन्होंने बौद्ध धर्म को स्वीकार किया, क्योंकि उनके लिए बौद्ध परंपरा समानता, करुणा और तर्कशीलता का प्रतीक थी।

तुलनात्मक रूप से देखें तो लोहिया और अंबेडकर दोनों की दृष्टियों में कुछ समान बिंदु भी हैं। दोनों ही इन प्रतीकों को केवल पूजा-पाठ की वस्तु नहीं मानते बल्कि सामाजिक-राजनीतिक विमर्श में उन्हें पढ़ते हैं। दोनों मानते हैं कि जनता के जीवन से इन प्रतीकों को हटाया नहीं जा सकता। अंतर यह है कि लोहिया ने उनमें सकारात्मक ऊर्जा खोजने का प्रयास किया, जबकि अंबेडकर ने उनमें निहित अन्याय और शोषण को उजागर किया। लोहिया का दृष्टिकोण सुधारवादी और पुनर्व्याख्यात्मक था, जबकि अंबेडकर का दृष्टिकोण क्रांतिकारी और अस्वीकारवादी।

यह अंतर दोनों के राजनीतिक एजेंडे से भी जुड़ा था। लोहिया भारतीय समाजवाद की स्थापना चाहते थे, जिसमें परंपरा और आधुनिकता का संतुलन हो। उनके लिए भारतीय जनता को संबोधित करने के लिए परंपरा से संवाद आवश्यक था। जबकि अंबेडकर का एजेंडा दलित समाज की मुक्ति और समानता था, जिसके लिए उन्हें परंपरा की जकड़न से पूरी तरह बाहर आना पड़ा।

इस विमर्श से यह निष्कर्ष निकलता है कि भारतीय समाज के लिए राम, कृष्ण और शिव जैसे प्रतीक केवल धार्मिक नहीं, बल्कि राजनीतिक और सांस्कृतिक अर्थों में भी महत्त्वपूर्ण हैं। लोहिया और अंबेडकर दोनों की दृष्टियाँ हमें यह सिखाती हैं कि इन प्रतीकों को समझना केवल आस्था का प्रश्न नहीं, बल्कि न्याय, समानता और परिवर्तन का प्रश्न भी है। एक ओर लोहिया की दृष्टि हमें यह बताती है कि परंपरा के भीतर भी विद्रोह और जनपक्षधरता के तत्व खोजे जा सकते हैं, वहीं दूसरी ओर अंबेडकर हमें यह सिखाते हैं कि जब परंपरा की सीमाएँ बहुत कठोर हों, तो नए मार्ग की तलाश करना आवश्यक हो जाता है।

इस प्रकार, राम, कृष्ण और शिव पर इन दोनों विचारकों के विचारों का अंतर भारतीय बौद्धिक इतिहास की एक बड़ी धारा को उजागर करता है। यह हमें यह सोचने पर विवश करता है कि क्या हमें अपनी सांस्कृतिक परंपरा के प्रतीकों को नये संदर्भ में पढ़ना चाहिए या उनसे आगे बढ़कर नए प्रतीक गढ़ने चाहिए। यही द्वंद्व भारत के सामाजिक-राजनीतिक विमर्श की मूल चुनौती है और इसी से भारतीय लोकतंत्र तथा समाज सुधार की दिशा तय होती है।

।। पाँच।।

आज के समय में जब हम राम, कृष्ण और शिव पर डॉ. राममनोहर लोहिया और डॉ. भीमराव अंबेडकर की दृष्टियों को देखते हैं, तो यह स्पष्ट होता है कि यह बहस अब भी भारतीय समाज और राजनीति में उतनी ही प्रासंगिक है जितनी उनके जीवनकाल में थी। भारत का लोकतंत्र अब भी जातिगत असमानताओं, सांप्रदायिक तनावों और आर्थिक विषमताओं से जूझ रहा है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या हमें लोहिया की तरह परंपरा के भीतर परिवर्तन की संभावनाएँ खोजनी चाहिए या अंबेडकर की तरह परंपरा से बाहर निकलकर एक बिल्कुल नया मार्ग अपनाना चाहिए।

राम के प्रतीक को देखें तो आज उन्हें राजनीति में व्यापक रूप से प्रयोग किया जा रहा है। राममंदिर निर्माण ने उन्हें केवल धार्मिक देवता से कहीं अधिक राजनीतिक प्रतीक बना दिया है। यहाँ लोहिया की दृष्टि उपयोगी हो सकती है, जो राम को त्याग और मर्यादा का प्रतीक मानते थे। यदि उनकी व्याख्या को अपनाया जाए तो राम केवल एक समुदाय या धर्म के नहीं, बल्कि सम्पूर्ण समाज के अनुशासन और न्याय के आदर्श बन सकते हैं। लेकिन अंबेडकर की चेतावनी भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है कि रामायण के भीतर छिपे अन्याय को भूलना नहीं चाहिए। यदि राम को केवल सत्ता और धर्म के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाएगा तो वह दलितों और स्त्रियों के लिए शोषण का प्रतीक ही बने रहेंगे।

कृष्ण के संदर्भ में गीता आज भी राजनीति, नैतिकता और जीवन-दर्शन में उद्धृत होती है। लोहिया का कहना था कि कृष्ण हमें राजनीति की जटिलताओं से निपटने की शिक्षा देते हैं और जीवन को रसपूर्ण बनाते हैं। यह व्याख्या आधुनिक लोकतंत्र में प्रासंगिक है, जहाँ आदर्श और यथार्थ के बीच संतुलन आवश्यक है। परंतु अंबेडकर की आलोचना हमें यह सोचने पर विवश करती है कि गीता के माध्यम से वर्णव्यवस्था का औचित्य अब भी समाज में कहीं न कहीं सक्रिय है। अतः आज यदि गीता और कृष्ण को अपनाना है तो उस दृष्टि से अपनाना होगा, जिसमें न्याय, समानता और दलित-स्त्री की गरिमा सुरक्षित हो।

शिव के प्रतीक का वर्तमान भारत में सबसे व्यापक और बहुआयामी प्रयोग होता है। वे एक ओर योग और तपस्या के देवता हैं तो दूसरी ओर नृत्य, विद्रोह और लोकजीवन के प्रतीक भी। लोहिया ने शिव को विद्रोह और जनपक्षधरता का देवता कहा था, जो आज भी सामाजिक आंदोलनों को प्रेरित कर सकता है। शिव का रूप हमें यह याद दिलाता है कि भारतीय संस्कृति की जड़ें केवल महलों और दरबारों में नहीं, बल्कि जंगलों, पहाड़ों और लोकजीवन में भी हैं। लेकिन अंबेडकर का यह कहना भी सार्थक है कि शैव परंपरा अंततः ब्राह्मणवादी नियंत्रण में समाहित हो गई। इसलिए यदि शिव को आज के समाज में प्रासंगिक बनाना है तो उनके लोक और विद्रोही रूप को पुनः जीवित करना होगा।

आज की राजनीति और समाज सुधार के संदर्भ में लोहिया और अंबेडकर के विचारों का अंतर हमें यह सिखाता है कि केवल प्रतीकों की पुनर्व्याख्या पर्याप्त नहीं है। प्रतीकों का प्रयोग तभी सार्थक है जब वे वास्तविक सामाजिक न्याय और समानता की दिशा में प्रयुक्त हों। लोहिया का आग्रह हमें यह सिखाता है कि जनता से जुड़े प्रतीकों को नकारने से परिवर्तन नहीं आएगा। वहीं अंबेडकर हमें यह चेतावनी देते हैं कि यदि हम केवल प्रतीकों के मोह में फँसेंगे तो सामाजिक असमानताएँ कभी समाप्त नहीं होंगी।

आज का समय वास्तव में इन दोनों दृष्टियों के संवाद का समय है। हमें लोहिया से यह सीखना है कि भारतीय परंपरा के भीतर विद्रोह और जनपक्षधरता की ऊर्जा खोजी जाए और अंबेडकर से यह सीखना है कि परंपरा की सीमाओं को पहचानकर उनसे परे भी नया मार्ग अपनाया जाए। राम, कृष्ण और शिव यदि आज भी भारतीय मानस में जीवित हैं तो उन्हें न्याय, समानता और स्वतंत्रता के प्रतीक के रूप में पुनर्परिभाषित करना हमारी जिम्मेदारी है।

इस प्रकार, राम, कृष्ण और शिव पर डॉ. लोहिया और डॉ. अंबेडकर के विचारों का अंतर न केवल अतीत की व्याख्या है, बल्कि वर्तमान और भविष्य की दिशा भी निर्धारित करता है। ये दोनों दृष्टियाँ हमें यह बताती हैं कि भारत की सांस्कृतिक चेतना को समझे बिना समाज में परिवर्तन नहीं लाया जा सकता, और यह भी कि सांस्कृतिक चेतना को केवल महिमामंडन से नहीं, बल्कि आलोचना और पुनर्निर्माण से ही सार्थक बनाया जा सकता है। यही इस विमर्श का अंतिम निष्कर्ष है।


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