
हिन्दू- संस्कृति परस्पर आदान प्रदान के प्राणवायु से पोषित होकर विकसित हुई है। इसमें सबको खुलकर सांस लेने का भरपूर उदार अवकाश मिलता रहा है। भारतीय जीवन उस महाअरण्य के सदृश रहा है, जिसमें अनगिनत वृक्ष वनस्पति सिर ऊंचा किये खड़े हैं और उन्हीं की छाया में लख-चौरासी के समान वनस्पति-जगत के नाना तृण- गुल्म- लतायें एवं बहुत सी जड़ी-बूटियों फूलती फलती रही हैं। सबका स्वतंत्र अस्तित्व है, पर साथ ही सब एक में गुँथ कर मिल जाने के लिए भी स्वच्छन्द हैं । शताब्दी और सहस्राब्दियों से वे एक दूसरे की ओर हाथ बढ़ा कर मिलते रहे हैं । बेलों ने वृक्षों से सख्य- भाव दूँढ़ा है, क्षुपों ने घुल मिल कर झाड़-झंखाड़ों का रूप धारण कर वन की भूमि को छेदा है, और जिसके मन में जहाँ तक प्राण और जीवन का उल्लास आया ,वहीं तक उसने अपने आपको अरण्य-जीवन के सतत संघर्ष में डालकर आकाश के नीचे अपने लिये स्थान प्राप्त किया है। हिन्दू-संस्कृति भी इसी प्रकार के वातातपिक- स्वातन्त्र्य को अर्थात् धूप और खुली हवा में लहराने वाले जीवन वेग को पाकर आगे बढ़ी हैं । शतदल कमल के एक-एक दल के समान यहाँ विभिन्न विचारों के दल हैं ।
केले के काण्ड भाग में जैसे ऊपर नीचे दलों के परत जमे रहते हैं, उसी प्रकार हिन्दू धर्म में विचारों के कदली-वृक्ष का निर्माण हुआ है। उच्चतम ब्रह्म-दर्शन या अध्यात्मवाद से लेकर नीचे की तलहटियों में पनपने वाले भूत-प्रेतों के विश्वास, नागों और वृक्षों की पूजा, जड़ श्रद्धा एवं अन्धपरम्पराओं तक को हिन्दू धर्म के अन्तर्गत स्थान मिला है । पुलिन्द ,पुक्कस, खश, डोम्ब, नाग, कोल, भिल्ल, मुण्डा, शवर, आदि जातियाँ आर्य संस्कृति के सम्पर्क में आयी । दोनों ने अपने अपने प्राणामय तन्तु वन की लताओं की तरह एक दूसरे के प्रति फैलाये । उन तन्तुओं के द्वारा जीवन रस का प्रवाह एक ओर से दूसरी ओर बहने लगा । जहाँ जीवन रस रहता है वहीं नई सृष्टि, नया निर्माण होता है। जहाँ जीवन रस है वहाँ मृत्यु की जड़ता नहीं पहुँचती । इसी कारण आर्य-संस्कृति और वन्य-संस्कृति दोनों की परम्परा पारस्परिक हित सम्बन्ध से आज तक जीवित है। दोनों के मानसतल एक दूसरे के लिये प्रीति भाव से युक्त हैं । उनमें एक दूसरे को उखाड़ने फेंकने की होड़ नहीं है ।
गृह, निषाद और आर्य राम एक दूसरे के हृदय के निकट पहुँच गये। गुह को अपना मानने वाले उनके वंशज आज उसी हिन्दूधर्म के अङ्ग है ,जिसे राम ने अपनी साधना से पोषित किया है। धर्म और संस्कृति की दृष्टि से भारत में रहने वाली सब जातियाँ एक समान उन्नत नहीं है, फिर भी धर्म और जीवन का एक सार्वजनिक पक्ष ऐसा है जिसमें सबको भाग मिला है। धार्मिक देवता, पर्व और उत्सव ,मेले-नृत्य और संगीत, कृषि-प्रधान जीवन आदि अनेक सानों से जीवन की विषमता घटती गई और समानता एवं सहानुभूति का उदय होता रहा। हिन्दूकरण की एक सर्वाभिभावी प्रक्रिया इस देश में सदा से चलती रही है और आज भी जारी है। समाजशास्त्र की दृष्टि से हिन्दूकरण की इस प्रक्रिया ने राष्ट्र की बड़ी सेवा की है। इसी के द्वारा राष्ट्र के ऊबड़ खाबड अनेक अनमिल अङ्ग पारस्परिक सम होने के भाव से एक साथ टिकने के योग्य बनते रहे हैं। हिन्दूकरण की यह पद्धति सहस्राब्दियों के बीच होती हुई समन्वय और समवाय के ऊँचे गौरी शंकर शिखर की ओर जनता को बढ़ाती रही है। राष्ट्र की अभेद्य इकाई को रचने में उसने सबसे अधिक हमारा साथ दिया है । इस दृष्टिकोण में सदा सबके लिये अभय-मुद्रा का वरदान खुला हुआ रहा है। भूमि पर बसने वाले जन के लिये मनसावाचा कर्मणा अभय प्रदान संगठित राष्ट्र का सबसे बड़ा वरदान समझा जाता है । भारतीय संस्कृति में भी साधना की जिस मानसी प्रतिभा ने सबसे अधिक गौरव प्राप्त किया उसका दक्षिण हाथ अभय मुद्रा में उठा हुआ था । अपने विगत इतिहास से अभय की भावना हमें मूल्यवान उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त हुई है । इसी का दूसरा नाम वह सहिष्णुता है, जो सच्चे हिन्दू धर्म की एक मात्र कसौटी है ।
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