डालमियानगर : बिहार की राजनीति का सबसे बड़ा खंडहर

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Dalmianagar: The biggest ruin of Bihar politics

Arvind sharma

— अरविंद शर्मा —

बिहार में चुनाव नजदीक आते ही पुराने टेप बजाए जाने लगे हैं—“बिहार में का बा?” जो पूछ रहे हैं, उन्हें सबसे पहले अपने भीतर झांककर देखना चाहिए कि ऐसे सवाल पूछने की स्थितियां ही क्यों आई। किसने पैदा की। बिहार में क्या नहीं था। —और अब नहीं है तो इसके लिए जिम्मेवार कौन है। बिहार का समृद्ध अतीत की तस्वीर देखनी है तो आपको डालमियानगर चलना होगा। यह वही औद्योगिक कस्बा है जिसे कभी देश की औद्योगिक राजधानी बनने का सपना दिखाया गया था और आज बिहार की बर्बादी का प्रतीक बन चुका है।

डालमियानगर की शुरुआत किसी परीकथा से कम नहीं थी। सोन नदी के किनारे फैले गांव, आसपास चूना-पत्थर से भरी पहाड़ियां, रेल और सड़क की आसान कनेक्टिविटी। रामकृष्ण डालमिया ने सोचा—यहीं बसेगा बिहार का मिनी जमशेदपुर। देखते ही देखते सीमेंट, पेपर, शुगर, एस्बेस्टस और जाने कितने उद्योग खड़े हो गए। इतना बड़ा टाउनशिप बना कि उसमें स्कूल, कॉलेज, रेलवे लाइन, पावर हाउस और यहां तक कि निजी एयरपोर्ट तक बना दिए गए। मजदूरों और अफसरों के लिए क्वार्टर, बाजार, अस्पताल—सब कुछ। तब देशभर में हल्ला होने लगा था कि बिहार में ई बा। असली औद्योगिक बिहार।

लेकिन बिहार की सबसे बड़ी बीमारी है, जो परिंदा बनकर उड़ने लगता है, उसके पंख नोचने की कला में यहां के लोग माहिर हैं। बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण बाबू के निधन के बाद जिनके हाथों में कमान दी गई, उन नेताओं और उनके आकाओं को लगा कि डालमिया-जैन समूह कुछ ज़्यादा ही फल-फूल रहा है। नतीजा हुआ कि जांच आयोग बैठा, संसद में भाषण हुआ और कंपनी पर वित्तीय हेराफेरी के आरोप लगे। उद्योग बचाने का उपाय किसी को नहीं सूझा। बस गड़बड़ी उजागर करने का शौक पूरा कर लिया गया। इसके बाद इस औद्योगिक नगरी की बदनसीबी की पूरी किताब खुल गई।

बिहार सरकार ने बिजली बिल के बकाये का बहाना बनाकर फैक्ट्रियों की सप्लाई काट दी। लूट-खसोट के मकसद से मजदूरों को भड़काया गया। यूनियनें बनती गईं और माननीय लोग मजदूरों की तकलीफ से ज़्यादा अपने राजनीतिक एजेंडे में दिलचस्पी लेने लगे। कभी हड़ताल, कभी आंदोलन, कभी धरना। उत्पादन ठप होता गया और नेताओं की राजनीति गर्माती गई। उधर कानून-व्यवस्था की हालत ऐसी हो गई कि नक्सलवाद और जातीय सेनाओं ने पूरे इलाके को रणभूमि बना दिया। कारखाने में काम करने जाना उतना ही खतरनाक हो गया जितना किसी बारूद के ढेर पर सोना।

इसी बीच अदालतें भी मैदान में उतर आईं। हाईकोर्ट ने लिक्विडेटर नियुक्त किया, सुप्रीम कोर्ट ने पुनर्वास आयुक्त बिठाया, और हजारों मजदूर तारीख पर तारीख लेकर कोर्ट-कचहरी का चक्कर काटने लगे। बकाया वेतन के नाम पर न जाने कितनी रिपोर्ट बनीं, कितने आदेश निकले, लेकिन मजदूरों की थाली में आखिरकार कुछ नहीं आया। अदालतों के आदेश और अफसरों की बैठकों ने डालमियानगर को सिर्फ एक कानूनी कब्रिस्तान में बदल दिया।

और फिर आया लालू प्रसाद का दौर। रेल मंत्री बनने के बाद उन्होंने बड़े गर्व से ऐलान किया कि डालमियानगर की जमीन रेलवे खरीदेगा और यहां बनेगी आधुनिक बोगी फैक्टरी। बोली लगी, 140 करोड़ रुपये खर्च हुए, शिलान्यास भी हुआ। मगर बिहार में शिलान्यास विकास का पर्याय नहीं, बल्कि फोटो खिंचवाने की रस्म भर है। आज उस जमीन पर सिर्फ टूटी दीवारें हैं जिन पर मोटे अक्षरों में लिखा है—“यह संपत्ति रेलवे की है।” मतलब विकास की जगह सरकारी नोटिस बोर्ड खड़ा है।

आज डालमियानगर का हाल यह है कि जो क्वार्टर कभी हजारों मजदूरों से गुलजार थे, वहां अब अदालत का आदेश चिपका है—घर खाली करो। जो इमारतें कभी उद्योग की पहचान थीं, वे अब खंडहर बनकर खड़ी हैं। बच्चे अब वहां खेलते हैं, जहां कभी मशीनों की गड़गड़ाहट गूंजती थी। और मजदूर? वे अपनी कहानी सुनाने के लिए जिंदा म्यूज़ियम की तरह बचे हैं।

डालमियानगर की बर्बादी में कोई एक अपराधी नहीं है। इसमें नेताओं की लापरवाही, अफसरशाही की उदासीनता, यूनियनों की स्वार्थपरस्ती और नक्सलवाद-जातीय हिंसा की राजनीति सब बराबर के हिस्सेदार हैं। सबने मिलकर एक औद्योगिक कस्बे को खंडहर में बदल दिया।

इसलिए चुनावी सभाओं में —“बिहार में का बा?” पूछने वाले नेताओं और गायक-गायिकाओं को तो नेपथ्य से आवाज आनी चाहिए कि —“डालमियानगर का खंडहर बा, अदालत का केस बा, अधूरे वादों का म्यूज़ियम बा।” यही असली पहचान है इस राज्य की राजनीति की, जिसने सपनों के शहर को भी खा लिया और उम्मीदों को भी।

डालमियानगर सिर्फ एक कस्बा नहीं, बिहार का आईना भी है। इसमें जो दिखता है, वह साफ-साफ कहता है—यहां सिर्फ खंडहर उगते हैं।


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