जब ‘सरदार सरोवर’ को ‘नवागाम बांध’ कहा जाता था ! 

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Rajendra Joshi

— राजेन्द्र जोशी —

चार दशकों के ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ की वर्षगांठ पर यह जानना बेहद रोचक हो सकता है आखिर इस लंबे संघर्ष कि शुरुआत कैसे हुई थी? कौन लोग थे जिन्हें पानी और उसके लिए बांधों की जरूरत के उस जमाने में बड़े बांधों की मुखालिफत याद आई थी? कैसे उस दौर की ‘नर्मदा घाटी नवनिर्माण समिति’ धीरे-धीरे आज के ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ में तब्दील होती गई थी? प्रस्तुत है, इसी की पड़ताल करता राजेन्द्र जोशी का यह लेख।–संपादक
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‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ के चालीस सालों से पहले भी नर्मदा के ‘सरदार सरोवर बांध’ का विरोध हुआ था। गांधीवादी और सर्वोदय कार्यकर्ताओं ने मध्यप्रदेश के धार ज़िले के ‘ग्राम भारती आश्रम, टवलाई’ में जनवरी 1977 में ‘नर्मदा घाटी नवनिर्माण समिति’ की नींव रखी थी। इस समिति के  गठन में गुजरात के रमेश भाई देसाई की अग्रणी भूमिका थी जो गुजरात के ‘उकाई’ और ‘माही-कडाना’ बांधों के विस्थापितों की बदहाली से परिचित थे और देशभर में बड़े बांधों के खिलाफ अलख जगा रहे थे। यह समिति कालांतर में महाराष्ट्र की ‘नर्मदा धरणग्रस्त समिति’ और गुजरात की ‘नर्मदा बांध असरग्रस्त समिति’ के साथ मिलकर ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ के नाम से देश-दुनिया में जानी-पहचानी गई।

‘ग्राम भारती आश्रम, टवलाई’ में देशभर से आने वालों की कोई कमी नहीं थी। आज देश के बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों में चल रहे सामाजिक व्यवस्था, व्यापार प्रबंधन, स्वालंबन, स्वदेशी जैसे पाठ्यक्रमों की यह आश्रम जीवित इकाई हुआ करता था। सत्तर के दशक तक आश्रम में कई तरह के उत्पादक कार्य, जैसे – गुड़, साबुन, सूत-कताई और खादी के कपड़े बनाने, घानी से तेल निकालने के कार्य होते थे। आश्रम परिसर में मध्यप्रदेश का संभवत: पहला गोबर-गैस प्लांट लगा था जिसे देखने भी कई लोग आते थे।

रमेश देसाई ने अपने आने का उद्देश्य शाम की प्रार्थना के बाद बताया। उन्होंने नर्मदा नदी पर ‘नवागाम बांध’ (सरदार सरोवर) बनने ओर उससे निमाड़ में होने वाली सम्भावित डूब के बारे में विस्तार से बताते हुए कहा कि निमाड़ के लोगों में इसके प्रति जागरूकता लाने का कार्य किया जाए तो हजारों किसानों व नर्मदा किनारे रहने वालों को बचाया जा सकता है। उन्हें सचेत कर दिया जाए तो वे अपने हक़ की जमीनों, अचल सम्पत्ति के लिए आगे आयेंगे। रमेश देसाई का मानना था कि आश्रम परिवार क्षेत्र की समस्याओं व समाधान से परिचित होने के कारण आम लोगों को नजदीकी से प्रभावित कर सकता है।

अपने प्रवास के दौरान रमेश भाई ने बड़वानी के नज़दीक, नर्मदा किनारे, राजघाट स्थित गांधी समाधि पर भी समय बिताया और जाने से पहले भविष्य में अपनी ओर से सहयोग की बात कही। उनके जाने के बाद आश्रम परिवार की बैठक बुलाई गई जिसमें यह बात आई कि हम अभी तक सामाजिक जागरूकता, कुरीतियों को दूर करने, छुआछूत का दंश मिटाने, स्वालंबन, स्वदेशी और गांधी के विचारों पर कार्य करते आए हैं। हम यदि नर्मदा बांध से सम्बंधित कार्य हाथ में लेते हैं, तो कार्यक्षेत्र विस्तृत – सम्पूर्ण धार, (अविभाजित) खरगोन व (अविभाजित) झाबुआ ज़िला होगा। यह तय किया गया की बांध से ग्रामीण ज़्यादा प्रभावित होंगे इसलिए हमारा कार्यक्षेत्र गांव और ग्रामीण रहेंगे। अंतिम निष्कर्ष यह हुआ कि हमें समाज के लिये यह कार्य करना होगा जिसके लिये एक पृथक समिति बनाई जाएगी।

कार्य प्रारम्भ करने के पूर्व औपचारिक रूप से समिति का गठन किया गया जिसे ‘नर्मदा घाटी नवनिर्माण समिति’ नाम दिया गया। इस समिति में संस्था प्रमुख काशीनाथ त्रिवेदी, फूलचंद पटेल, रामलाल पटवार,  मांगीलाल जोशी और कार्यालयीन कार्य हेतु प्रभाकर मांडलिक शामिल किये गये। प्रारम्भिक कार्य हेतु परिचय क्षेत्र वाले गाँवों का चयन कर वहाँ के परिचितों को पत्र भेजे गये – कुछ डाक से तो कुछ बसों के माध्यम से। सन् 1977 की 12 फ़रवरी को राजघाट (बडवानी) की गांधी-समाधि पर बापू के श्राद्ध दिवस पर संकल्प के साथ कार्य प्रारम्भ किया गया।

समिति तो गठित हो गई, लेकिन सबसे बड़ा सवाल था, गांव-गांव में जनसम्पर्क कैसे किया जाये? उस समय न तो कोई वाहन सुविधा थी और न ही टेलिफ़ोन। प्रस्तावित ‘सरदार सरोवर बांध’ के विपरीत परिणामों की जानकारी भी सीमित थी। तब काशीनाथ त्रिवेदी ने ‘भूदान आंदोलन,’ झाबुआ में अकाल पीड़ितों के लिये कार्य, बागी-आत्मसमर्पण, ‘सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन’ आदि में सक्रिय रहे, तीनों ज़िलों के ग्रामों से परिचित,  सत्त्तर के दशक में सरकारी स्तर पर गठित ज़िला स्तरीय ‘बीस सूत्रीय समिति’ के सदस्य रहे मांगीलाल जोशी को यह ज़िम्मेदारी दी। जोशी जी के पास अतिरिक्त सुविधा यह थी कि वे सायकल चलाना जानते थे और ‘स्वाधीनता सेनानी’ होने के नाते उन्हें ‘मप्र राज्य परिवहन निगम’ की बसों में एक सहयोगी के साथ निःशुल्क यात्रा पास मिला हुआ था।

मांगीलाल जोशी जहां तक सरकारी बस जाती, वहाँ पहुँचकर नज़दीकी गांव जाने के लिये सायकल का इस्तेमाल करते, गांव पहुँचकर आने का उद्देश्य बताते, साथ ही एक-दो गाँवों की संयुक्त बैठक का आयोजन करने की सहमति लेते। तय दिनांक को आयोजित बैठक को काशीनाथ त्रिवेदी संबोधित करते। उन दिनों न तो कुर्सी-टेबल होती, न माइक, लेकिन उसके बावजूद ग्रामीण बात सुनते ओर अपनी रखते। प्रभाकर मांडलिक आश्रम में वित्तीय कार्य देखने के साथ पत्राचार का कार्य भी देखते थे इसलिये उन्हें समिति से संबंधित पत्राचार और लेखा की जिमेदारी दी गई थी।

‘नर्मदा घाटी नवनिर्माण समिति’ द्वारा गांव-गांव में जनजागरण अभियान के चलते बोरलाय के अंबाराम मुकाती, बगूद के शोभाराम जाट व निसरपुर के पारसमल करनावट भी समिति से जुड़ गये। बाद में खरगोन के रमाकान्त खोड़े और इंदौर के ओमप्रकाश रावल भी आए, लेकिन वे कार्यक्रमों में ही आ पाते थे, पूर्ण-कालिक समय नहीं दे सकते थे। समिति के पास सबसे बडी कमी थी कार्यकर्ताओं की, इसलिए आश्रम परिवार के पदाधिकारियों के पढ़ने वाले बच्चों से स्वैच्छिक समयदान का आग्रह किया गया। बैठक वाले गांव में लोगों के साथ मिलकर बिछायत करवानी होती थी, जिसमें दरी, खाद की थैलियों से बनी पल्ली उपयोग करते थे। इन बैठकों में कोठडा, छोटी-टवलाई,महापुरा, पटवार, बड़ा- बड़दा, गांगली, पीपलदा, गढ़ी, कोटेश्वर, कुकरा, राजघाट,  बड़वानी, ककराना जैसे कई गांवों के लोग शामिल होते थे।

नर्मदा नदी को पवित्र ओर पूज्य मानने वाले ग्रामीण इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे कि मातेश्वरी (नर्मदा नदी) को कोई कैसे बांध सकता है। इतनी बड़ी नदी पर बांध कैसे बनेगा और बनेगा भी तो इतनी दूर से हमारे इलाक़े में पानी कैसे आ पायेगा? तब उन्हें गांव के खेत में पहुंचाई जाने वाली नाली (लांगी) के उदाहरण से बताया जाता था कि चलते पानी को रोकने से क्या होता है। जिज्ञासा अनेक थी, समाधान-कारक उत्तर कम थे। फिर भी गांव-गांव अलख जगती रही, लोग जुड़ते गये। तब आज की तरह सोशल-मीडिया जैसे संचार-साधन नहीं थे, न ही बैठक में आने वालों के पास निजी वाहन। सभी अपनी-अपनी सुविधानुसार आते थे।

जब ‘नर्मदा घाटी नवनिर्माण समिति’ का कार्य क्षेत्र बढ़ने लगा और लगने लगा कि आमजनों को बात समझ में आने लगी है तो और भी कई साथी जुड़ते गये। सन् 1981 में ‘नवागम बांध’ के विरोध में दो बुजुर्ग बैजनाथ महोदय (इंदौर) और पंडित विश्वनाथ शर्मा (मांडव) भी आए। महोदयजी मध्यभारत सरकार में काशीनाथ त्रिवेदी के साथ मंत्री रह चुके थे तो पंडित विश्वनाथ शर्मा धार स्टेट के इंजीनियर होने के साथ मांडव इतिहास के जीवित विश्वकोश थे। इनका साथ कुछ दिनों का रहा, लेकिन इन्हें देखकर युवाओं में भी जोश जागा। दूसरी ओर उम्रदराज होते सर्वोदयी और गांधीवादी कार्यकर्ताओं को लगातार यात्रा में परेशानी आने लगी, फिर भी समय-समय पर कार्यक्रम होते रहे। इस सबके बीच इंदौर के ‘चेतना मंडल’ ने ‘नवागम बांध’ के बैक-वॉटर से आने वाली डूब का नक़्शा प्रकाशित किया। इस नक़्शे ने लोगों को काफ़ी जागरूक किया।

इसी बीच सरकार को लगा कि मुट्ठी भर सर्वोदयी और गांधीवादी कार्यकर्ता बड़ा जनाधार बना रहे हैं तो उन्होंने इसे रोकने के लिये ‘ग्राम भारती आश्रम, टवलई’ द्वारा संचालित स्कूल का अनुदान जारी रखने में अड़ंगे डालना प्रारम्भ कर दिया। इसके बावजूद कार्यकर्ताओं का हौसला नहीं टूटा, लेकिन उम्र साथ नहीं दे रही थी इसलिये इसकी गतिविधियाँ कम होने लगीं। फिर भी 1984 तक सभी सक्रिय रहे। बाद के सालों में स्वास्थ्य अनुसार सक्रियता रही, लेकिन तब तक नई पीढ़ी आ चुकी थी। सन 1988-89 तक ‘नर्मदा घाटी नवनिर्माण समिति’ के नाम से पहचाना जाने वाला ‘नवगाम बांध’ का विरोध ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ में बदल गया, साथ ही ‘नर्मदा घाटी नवनिर्माण समिति’ से जुड़े सदस्यों के कार्य व नाम गुमनामी में चले गये। (सप्रेस)

अभार ; सर्वोदय प्रेस


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