
प्रबंधन की आधुनिक तकनीकों को गांधी के आंदोलनों, खासकर उनकी तैयारी के संदर्भ में देखें तो बहुत स्पष्ट रूप से उनका अमल दिखाई देता है। इस लिहाज से गांधी उस प्रबंधन के कारगर गुरु माने जा सकते हैं जिसे अनेक स्वनामधन्य विश्वविद्यालयों में बड़ी मशक्कत से पढ़ाया – सिखाया जाता है। प्रस्तुत है, इसी की पड़ताल करता प्रक्षाली देसाई का यह लेख।
आजकल प्रबंधन को हर क्षेत्र में सफलता का प्रमुख आधार माना जाता है। यदि हम इतिहास पर दृष्टि डालें तो पाएंगे कि आधुनिक प्रबंधन के अनेक सिद्धांतों को महात्मा गांधी ने अपने आंदोलनों के माध्यम से बहुत पहले ही अमल कर लिया था। उन्होंने जनसंगठन, संसाधन प्रबंधन, संवाद कला, संकट प्रबंधन और रणनीतिक दृष्टि का ऐसा समन्वय किया कि सत्याग्रह केवल राजनीतिक संघर्ष का साधन नहीं रहा, बल्कि वह मानवीय नेतृत्व और व्यवस्थापन का जीवंत विद्यालय बन गया।
गांधीजी के जीवन में निर्णायक मोड़ उस समय आया था, जब उन्हें दक्षिण अफ्रीका के प्रिटोरिया स्टेशन पर अपमानित कर ट्रेन से बाहर फेंक दिया गया था। उस क्षण उनके मन में यह सवाल खड़ा हुआ था कि क्या अन्याय से डरकर भागना चाहिए या उसका डटकर सामना करना चाहिए। यहीं से उनके भीतर यह बोध विकसित हुआ कि सच्चा नेतृत्व केवल नियमों और आदेशों पर आधारित नहीं होता, बल्कि उसमें संवेदनशीलता, नैतिक साहस और भावनात्मक प्रतिबद्धता भी आवश्यक है। यही सोच उन्हें ‘मोहन’ से ‘महात्मा’ की ओर ले गई।
दक्षिण अफ्रीका में 1893 से 1914 तक का संघर्ष उनके प्रबंधकीय कौशल का पहला प्रमाण था। वहाँ उन्होंने भारतीयों पर लागू अन्यायपूर्ण कानूनों का सामना किया। ‘नटाल इंडियन कांग्रेस’ की स्थापना की और लोगों को संगठित कर ‘गिरमिटिया कानून’ के विरुद्ध व्यापक आंदोलन चलाया। यह आंदोलन केवल व्यक्तिगत प्रतिशोध का साधन नहीं था, बल्कि सामूहिक अधिकारों और मानवीय गरिमा की रक्षा का प्रयास था। गांधीजी ने यहाँ भागीदारी नेतृत्व अपनाया और निर्णय लेने की प्रक्रिया में सभी को सम्मिलित किया।
संवाद के लिए गांधीजी ने ‘इंडियन ओपिनियन’ अखबार का सहारा लिया और सरकार, प्रेस व जनता तीनों से बहुस्तरीय संवाद स्थापित किया। संसाधनों की पूर्ति के लिए उन्होंने समुदाय से दान एकत्र कर ‘ट्रस्टीशिप’ का सिद्धांत प्रस्तुत किया। ‘टॉलस्टॉय फार्म’ और ‘फीनिक्स आश्रम’ की स्थापना कर उन्होंने अनुशासन और प्रशिक्षण की व्यवस्था की। अहिंसा और सत्य जैसे मूल्यों का उन्होंने पहली बार राजनीतिक रणनीति के रूप में प्रयोग किया और लोगों के भय को ‘नैतिक बल’ में बदल दिया। इस अनुभव ने उनके आगामी आंदोलनों के लिए एक ठोस आधार तैयार कर दिया।
भारत लौटने के बाद 1917 में बिहार का चंपारण गांधीजी की प्रयोगशाला बना। यहाँ अंग्रेज ज़मींदार किसानों से ज़बरन नील की खेती करवाते थे। गांधीजी ने गाँव-गाँव घूमकर किसानों से संवाद किया, सर्वेक्षण कराया और साक्ष्य जुटाए। यह वस्तुतः ‘फील्ड रिसर्च’ और ‘डेटा संग्रहण’ की प्रक्रिया थी। उन्होंने स्थानीय नेताओं, जैसे – डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, आचार्य कृपलानी और मजरूल हक के अलावा छात्रों को भी आंदोलन से जोड़ा। इस प्रकार ‘टीम-बिल्डिंग’ और स्थानीय ‘नेटवर्किंग’ की सशक्त मिसाल पेश की।
स्वयं किसानों के बीच रहकर उन्होंने सेवक नेतृत्व का परिचय दिया। किसानों ने उन्हें अपना हमदर्द और सच्चा साथी माना। जब ब्रिटिश सरकार ने उन्हें चंपारण छोड़ने का आदेश दिया, तो उन्होंने शांतिपूर्वक इंकार कर दिया। यह उनका ‘जोखिम प्रबंधन’ था। आंदोलन के बाद उन्होंने शिक्षा, स्वच्छता और स्वास्थ्य सुधार जैसे स्थायी कार्यक्रम शुरू किए। इस प्रकार चंपारण केवल किसानों की समस्या का समाधान नहीं रहा, बल्कि ग्रामोत्थान और क्षमता निर्माण का केंद्र बन गया।
1918 में गुजरात के खेड़ा जिले में भयंकर अकाल पड़ा। किसान कर अदा करने में असमर्थ थे, लेकिन सरकार उन्हें राहत देने को तैयार नहीं थी। गांधीजी ने आंदोलन का नेतृत्व स्वयं करने की बजाय इसे सरदार वल्लभभाई पटेल और उनके सहयोगियों को सौंपा। गाँव-गाँव समितियाँ बनीं, जनसभाएँ हुईं और व्यक्तिगत संवाद द्वारा किसानों में साहस जागा। सामूहिक चंदा और पारस्परिक सहयोग से आंदोलन आगे बढ़ा। यह गांधीजी के ‘विकेंद्रीकृत प्रबंधन’ का अद्भुत उदाहरण था, जहाँ नेता केवल प्रेरक होता है, वास्तविक नेतृत्व स्थानीय स्तर पर पनपता है।
इसी वर्ष गांधीजी ने अहमदाबाद में मिल मालिकों और मजदूरों के बीच मध्यस्थता की। मजदूरों ने वेतन वृद्धि की माँग करते हुए हड़ताल कर रखी थी। महिला नेत्री अनसूया साराभाई के नेतृत्व में मजदूर एकजुट थे। गांधीजी ने दोनों पक्षों से संवाद कर यथार्थवादी माँगों को सामने रखा और वार्ता की राह खोली। जब गतिरोध बढ़ा तो उन्होंने उपवास कर नैतिक दबाव बनाया। उन्होंने किसी त्वरित जीत की बजाय छोटे-छोटे मुद्दों पर सहमति बनाकर आंदोलन को आगे बढ़ाया। यही वार्ता प्रबंधन की सच्ची कला थी। परिणामस्वरूप 1920 में ‘मजदूर महाजन संघ’ की स्थापना हुई, जो भारत का पहला संगठित श्रमिक संगठन बना।
1930 का ‘नमक सत्याग्रह’ गांधीजी के प्रबंधकीय कौशल का सर्वोत्तम उदाहरण था। अंग्रेजों ने नमक पर कर लगाया था, जो हर व्यक्ति की अनिवार्य आवश्यकता थी। गांधीजी ने इस सरल किंतु गहरे असर वाले मुद्दे को चुना। 78 चुनिंदा सत्याग्रहियों के साथ उन्होंने ‘साबरमती आश्रम’ से दांडी तक 240 मील लंबी पदयात्रा की। प्रत्येक गाँव में पहले से योजना बनाई गई थी, जहाँ कार्यकर्ता सफाई, चरखा कातने, शिक्षा और अछूत उद्धार जैसे रचनात्मक कार्यक्रम चलाते रहे। संदेश था – ‘नमक कर अन्याय है और हम इसे तोड़ेंगे।’ अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने इस यात्रा को पूरी दुनिया तक पहुँचाया। दांडी पहुँचकर गांधीजी ने स्वयं नमक बनाया और सरकार को खुली चुनौती दी। लाखों लोगों ने गिरफ्तारी दी, लेकिन आंदोलन चलता रहा। यही नेतृत्व का विकेंद्रीकरण था, जिसने आंदोलन को स्थायित्व दिया। अंततः गांधी-इरविन समझौते ने कांग्रेस को वैधानिक मान्यता दिलाई और स्वतंत्रता संग्राम को वैश्विक स्तर पर विश्वसनीयता प्रदान की।
1942 का ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ गांधीजी की रणनीतिक दूरदृष्टि और प्रबंधन का उच्चतम शिखर था। 8 अगस्त को मुंबई के गोवालिया टैंक मैदान से उन्होंने ‘करो या मरो’ का आह्वान किया। यह केवल नारा नहीं था, बल्कि पूरे आंदोलन का स्पष्ट लक्ष्य और भावनात्मक संदेश था। संक्षिप्त और सटीक नारा जन-जन तक पहुँचा और पूरे राष्ट्र को एक सूत्र में बाँध दिया। समय भी रणनीतिक दृष्टि से उपयुक्त था क्योंकि द्वितीय विश्वयुद्ध में अंग्रेज पहले से ही कमजोर हो चुके थे। नेताओं की गिरफ्तारी के बावजूद आंदोलन गाँव-गाँव में फैल गया। यह विकेंद्रीकृत नेतृत्व की ही सफलता थी कि बिना किसी केंद्रीय निर्देश के आंदोलन चलता रहा। इस आंदोलन ने जनता के भीतर त्याग, साहस और संकल्प का संचार किया।
गांधीजी के आंदोलनों से हमें स्पष्ट होता है कि नेतृत्व और प्रबंधन का वास्तविक आधार केवल तकनीक या औपचारिक संरचना नहीं, बल्कि पारदर्शिता, सत्य, अहिंसा, अनुशासन और समयबोध है। उनका संदेश सरल होता था, किंतु वही सरलता आंदोलन को व्यापक प्रभाव प्रदान करती थी। संसाधनों का पारदर्शी उपयोग जनसमर्थन अर्जित करता था और अनुशासन आंदोलन को दीर्घकाल तक स्थायित्व देता था।
आज के ‘कृत्रिम बुद्धिमत्ता’ के युग में जब हम जटिल चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, गांधीजी के मूल्य – सत्य, अहिंसा, आत्मानुशासन, धैर्य और प्रेम – ऐसे स्थायी सूत्र हैं जो हर कठिनाई का समाधान खोजने में सक्षम हैं। महात्मा गांधी के सत्याग्रह आंदोलनों की यही विशेषता रही कि उन्होंने जनता को केवल राजनीतिक स्वतंत्रता का लक्ष्य नहीं दिया, बल्कि प्रबंधन और नेतृत्व की ऐसी प्रेरणा दी जो आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी उस दौर में थी। उनके आंदोलनों ने यह सिद्ध कर दिया कि सही उद्देश्य, स्पष्ट संदेश, नैतिक आधार और सामूहिक भागीदारी के बल पर किसी भी अन्यायपूर्ण व्यवस्था की नींव हिलाई जा सकती है।
( आभार सर्वोदय प्रेस )
सुश्री प्रक्षाली देसाई विगत 21 वर्षों से झाबुआ में प्रवासी आदिवासीयों के बच्चों हेतु ‘सम्पर्क बुनियादी शाला’ का संचालन कर रही हैं, जो गाँधी की ‘नई तालीम’ से प्रेरित है।
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