— सुशोभित —
महात्मा गांधी के जीवनकाल में कुल 6 बार उनकी हत्या के प्रयास किए गए थे। इनमें कम से कम 4 प्रयासों में नाथूराम गोडसे की संलिप्तता थी! वहीं कम से कम 5 प्रयास ऐसे थे, जिनके लिए हिन्दू महासभा की पुणे शाखा के कट्टर हिन्दुत्ववादी जिम्मेदार माने गए थे।
महात्मा गांधी पर एक शुरुआती प्राणघातक हमला 1934 में तब किया गया था, जब पाकिस्तान-निर्माण या भारत-विभाजन की गंध भी दूर-दूर तक नहीं थी। गांधी जी पुणे में हरिजनों की एक सभा में प्रविष्ट होने आए थे। यह उनके दलितोद्धार के प्रयासों का एक हिस्सा था। वे अछूतों के मंदिर में प्रवेश करने के अधिकारों पर आंदोलन कर रहे थे। तब उन पर हिन्दू धर्म को ‘अपवित्र’ करने और वर्ण-व्यवस्था व मंदिर के नियमों के साथ छेड़खानी का आरोप लगाया गया। उनकी गाड़ी पर बम फेंका गया। बम ने निशाना चूका। षड्यंत्र नाकाम रहा।
महाराष्ट्र के तत्कालीन हिन्दुत्ववादी सर्किल में नाथूराम ‘सावरकर का जमादार’ कहलाता था। नाथूराम की तरफ़ से गांधी जी की हत्या की पहली ज्ञात कोशिश जुलाई 1944 में हुई। तब तक भारत-विभाजन की बातें सामने आ चुकी थीं, लेकिन धरातल पर कुछ भी निर्णय नहीं हुआ था। अभी तो गांधी-जिन्ना वार्ताएँ भी शुरू नहीं हुई थीं। तब पंचगनी में एक प्रार्थना-सभा के दौरान नाथूराम गोडसे हाथ में एक खंजर (जाम्भिया) लेकर नारे लगाता हुआ गांधी जी की ओर दौड़ा!
तब पूना के मणिशंकर पुरोहित और सातारा के डी. भीलारे गुरुजी ने उसे दबोच लिया। गांधी जी ने आग्रह किया कि हमलावर के साथ कठोर व्यवहार न किया जाए। नाथूराम को पुलिस के हवाले करने की भी बातें हुईं, लेकिन गांधी जी ने उसे क्षमा कर दिया और कहा कि उसे जाने दें। नाथूराम उस समय ‘अग्रणी’ नाम का अख़बार निकालता था। बाद में उसने अख़बार का नाम बदलकर ‘हिन्दू राष्ट्र’ कर दिया। गांधी जी ने उसके लिए एक संदेशा भी भिजवाया कि वो आकर उनसे बातें करे और उन्हें बताए कि वह किस बात को लेकर उनसे नाराज़ है। लेकिन नाथूराम नहीं आया। ‘हिन्दू हृदय सम्राट’ नाथूराम गोडसे कायर था!
दो ही महीने बाद सितम्बर 1944 में नाथूराम ने फिर अपना प्रयास दोहराया। इस बार यह घटना सेवाग्राम में हुई। गांधी-जिन्ना वार्ता की तैयारियाँ थीं और हिन्दू महासभा ऐसा नहीं चाहती थी। ताज्जुब की बात है कि ख़ुद हिन्दू महासभा मुस्लिम लीग के साथ चुनावी गठजोड़ कर चुकी थी। सिंध में दोनों दलों ने मिलकर हुकूमत भी चलाई थी। कांग्रेस दोनों की साझा-शत्रु थी। बंगाल में श्यामाप्रसाद मुखर्जी भी फ़ज़लुल हक़ की मुस्लिम लीग सरकार में मंत्री रह चुके थे। लेकिन इसी महासभा को इस बात पर ऐतराज़ था कि गांधी जिन्ना से संवाद क्यों कर रहे हैं। एक बार फिर नाथूराम जाम्भिया लहराते हुए आगे बढ़ा और एक बार फिर आश्रमवासियों ने उसे दबोच लिया।
जून 1946 में गांधी जी को पूना ले जा रही रेलगाड़ी नेरुल और कर्जत स्टेशनों के बीच दुर्घटनाग्रस्त हो गई। इंजन चालक परेरा ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि पटरियों पर भारी पत्थर रख दिए गए थे और षड्यंत्रकारियों का मक़सद रेलगाड़ी को बेपटरी कर देना था। इंजन पत्थरों से टकराया, लेकिन बड़ा हादसा टल गया क्योंकि ड्राइवर सतर्क था और उसने समय रहते आपातकालीन ब्रेक लगा दिए थे।
अगले दिन पूना में एक सार्वजनिक सभा में बोलते हुए गांधी जी ने कहा, “ईश्वर की कृपा से मैं कई बार मृत्यु के मुँह से बच निकला हूँ। मैंने किसी को चोट नहीं पहुँचाई है और न ही मैं किसी को अपना शत्रु मानता हूँ। मुझे समझ नहीं आता कि मेरी जान लेने की इतनी कोशिशें क्यों हो रही हैं। मैं अभी नहीं मरूँगा, मेरा लक्ष्य 125 साल तक जीना है।” इसके कुछ दिनों बाद हिन्दू महासभा की पूना शाखा द्वारा आयोजित एक सार्वजनिक सभा में बोलते हुए नाथूराम गोडसे ने कहा- ‘पण तुम्हाला तेवड़ा जगु देनार कोन?’ (लेकिन गांधी, तुम्हें इतने साल जीने कौन देगा?)!
विदर्भ के अकोला में गांधी जी की हत्या के एक और प्रयास को प्रबोधनकार ठाकरे की चेतावनी ने टाल दिया था। ठाकरे ने सनातनी हिन्दुओं को चेताया था कि गांधी जी की हत्या के बार-बार प्रयास करना बंद करें। वे बाल ठाकरे के पिता थे!
20 जनवरी 1948 को यानी महात्मा गांधी की हत्या से मात्र दस दिन पहले बिड़ला भवन, दिल्ली की उसी प्रार्थना-सभा में एक और प्रयास किया गया। इस बार बम धमाका हुआ। धमाका करने वाले मदनलाल पाहवा को घटनास्थल से गिरफ़्तार कर लिया गया था। उसने स्वीकारा कि वह गांधी जी की हत्या कर देना चाहता था। साजिश में नाथूराम गोडसे, नारायण आप्टे, विष्णु करकरे, गोपाल गोडसे भी शामिल थे।
21 जनवरी की प्रार्थना-सभा में गांधी जी ने इस षड्यंत्र के बारे में जो बातें कहीं, वो हृदयंगम करने योग्य हैं :
“कल के बम फूटने की बात कर लूँ। लोग मेरी तारीफ़ करते हैं और तार भी भेजते हैं। पर मैंने तो कोई बहादुरी नहीं दिखाई। मैंने तो यही समझा कि फ़ौजवाले कहीं प्रैक्टिस करते हैं। बाद में सुना कि बम था। मुझसे कहा गया कि आप मरने वाले थे, पर ईश्वर की कृपा से बच गए। अगर सामने बम फटे और मैं न डरूँ, तो आप देखेंगे और कहेंगे कि वह बम से मर गया तो भी हँसता ही रहा। आज तो मैं तारीफ़ के काबिल नहीं हूँ। जिस भाई ने यह काम किया, उससे आपको या किसी को नफ़रत नहीं करनी चाहिए। उसने तो यह मान लिया कि मैं हिन्दू-धर्म का दुश्मन हूँ। हम सब ईश्वर से प्रार्थना करें कि वह उसे सन्मति दे। इस तरह से हिन्दू धर्म नहीं बच सकता। कुछ सिखों ने मुझसे आकर कहा कि हम नहीं मानते कि इस काम में कोई सिख शामिल था। सिख होता तो भी क्या? मुसलमान होता तो भी क्या? ईश्वर उसका भला करे। मैंने इंस्पेक्टर जनरल से कहा है कि उस आदमी को सताया न जाये। उसका मन जीतने की कोशिश की जाये। उस पर ग़ुस्सा न करें, रहम करें। अगर सबके मन में यही है कि बूढ़े का फ़ाका (उपवास) निकम्मा था, पर इसे मरने कैसे दें, तो आप गुनहगार हैं न कि बम फेंकने वाला नौजवान। गोलियाँ चलें और तब भी मैं स्थिर रहूँ, राम-नाम लेता रहूँ, ऐसी शक्ति ईश्वर मुझे दे।”
दस दिन बाद गांधी जी ने इस कथन को चरितार्थ कर दिखाया। गोलियाँ चलीं और वो राम-नाम लेते रहे। किन्तु उनके उद्बोधन में झलक आई इस निर्मलता और निश्छलता को आप देखते हैं? यह अपनी हत्या का प्रयास करने वाले के प्रति महात्मा गांधी के उद्गार हैं! मदनलाल पाहवा को वे ‘भाई’ कहकर सम्बोधित कर रहे हैं। प्रसंगवश, अनेक हिन्दुत्ववादी लोग गांधी जी पर आरोप लगाते हैं कि उन्होंने स्वामी श्रद्धानन्द के हत्यारे अब्दुल रशीद को अपना ‘भाई’ कहकर पुकारा था। वो इस तथ्य को छुपा जाते हैं कि गांधी ने स्वयं अपनी हत्या का प्रयास करने वाले हिन्दू को भी ‘भाई’ कहा था। मुझे पूरा विश्वास है अगर वो मृत्यु के बाद गवाही दे पाते तो नाथूराम को भी अपना ‘भाई’ ही कहते!
लेकिन 30 जनवरी 1948 को, शाम 5:17 बजे, आखिरकार नाथूराम अपने अनवरत प्रयासों में सफल हुआ। उसने गांधी जी के बिलकुल निकट जाकर धड़ाधड़ तीन गोलियाँ 79 वर्ष की बूढ़ी, कृशकाय देह में दाग़ दीं। गांधी जी राम का नाम लेकर गिर पड़े। रामनाम का पुण्य उनके साथ गया। और ‘रामबोला’ की हत्या का कलंक उस विचारधारा के मत्थे मढ़ गया, जो गांधी को मारकर भी मार नहीं पाई है!
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